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खेल चरित्र बनाते ही नहीं, उन्हें दर्शाते भी हैं
संदीप जोशी। खेल चरित्र बनाते ही नहीं, उन्हें दर्शाते भी हैं। खेलों पर यह बारीक टिप्पणी भारत के महान बल्लेबाज और क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली के पैदा होने से पहले कह दी गई होगी। पढ़ने पर लगता है कि यह विराट कोहली पर ही कहा गया होगा। क्रिकेट आज जितना मैदान में खेला जाता है, उससे कहीं ज्यादा टीवी पर देखा जाता है। क्रिकेट, कोहली और कैमरे का रिश्ता भी इतना ही पुराना है। इस महान बल्लेबाज ने सफल होने के बाद अचानक कप्तानी छोड़ने का फैसला किया। हालांकि विराट की महान बल्लेबाजी अब भी देखने को मिलती रहेगी।
पिछले कुछ समय से भारतीय क्रिकेट में जो उथल-पुथल मची थी, उसको विराट ने विराम दे दिया है। आखिर भारत के क्रिकेट के 'किंग' रहे कोहली के साथ अब सौतेला व्यवहार क्यों हो रहा है? उनको अचानक कप्तानी के लिए बूढ़ा क्यों मान लिया गया? कोहली की बादशाहत पर बट्टा कौन लगा रहा है? कप्तान को जरूरत से ज्यादा जीत का श्रेय मिलता है। हार के लिए भी जरूरत से ज्यादा दोष दिया जाता है। मगर कोई भी कप्तान न तो जीत में श्रेय का, और न ही हार में दोष का अकेला जिम्मेदार रहता है। मैदान में कोहली के हाव-भाव कभी उनको कैमरे से दूर नहीं रख पाए। उनका जोश जहां युवाओं में क्रिकेट का लड़ाकू उत्साह पैदा करता, वहीं परंपरावादी उनमें दंभी अशिष्टता देखते। उनका चाल-चलन और हरकतें क्रिकेट की सभ्यता को ही ललकारते रहे हैं। वह खुद से अभिभूत रहे हैं।
वर्ष 2014 में पहली बार ऑस्ट्रेलिया में कप्तान बने कोहली ने अपनी अनूठी आक्रामकता और बेफिक्री से सभी को मुरीद बनाया। यही वह समय था, जब भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) को मनोनीत लोग चला रहे थे। कोहली बल्लेबाजी की महानतम लय में थे। कोहली अपनी बल्लेबाजी से विराट लग रहे थे। ऐसे में कोहली ही चयनकर्ता और कोच के अलावा कमेंटेटर तक का भी चयन कर रहे थे। खेल प्रेमियों को याद होगा, जब सलाहकार समिति ने अनिल कुबंले को कोच बनाया, कोहली रवि शास्त्री को कोच चाहते थे। टीम और ड्रेसिंग रूम का माहौल बिगड़ा। हालात ऐसे बने कि कुंबले को पद छोड़ना पड़ा। शास्त्री को फिर से कोच बनाया गया। तब कोहली का बल्ला, और उनका रुतबा चरम पर था। गांगुली, सचिन और लक्ष्मण के खिलाफ कही गई बातों ने मन-मुटाव पैदा किया। गांगुली जब भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष बने, तब कोहली के कप्तानी के दिन गिने जाने लगे।
कोहली का कैमरे से प्रेम जगजाहिर रहा है। वही कैमरा, जिसने उनकी लोकप्रिय लड़ाकू छवि गढ़ी, उनके जीवन में हस्तक्षेप भी करने लगा। कैमरे को आप हर समय अपनी सुविधा से इस्तेमाल नहीं कर सकते। फिर क्रिकेट संघ की सत्ता काबिज हुई, तो कैमरे और कोहली की जुगलबंदी में खलल पड़ने लगी। उनकी घर कर गई लत से लोग उकताने लगे। उनकी मनमर्जी पर लगाम लगी। जब तक कोहली का बल्ला चलता रहा, और भारत जीतता रहा, उनकी सभी बातें नजरंदाज होती रहीं। जीत के लिए शिकारी जैसी भूख रखने वाले कोहली आज इसीलिए खुद का शिकार किए जाने का आभास दे रहे हैं। क्रिकेटर के जीवन में भी वही होता है, जो जीवन के खेल में होता है। नए कोच राहुल द्रविड बने। कुंबले प्रसंग के बाद द्रविड़ ने कप्तानी का मुद्दा भी उठाया होगा। क्रिकेट संघ इस बार कोच की मानने पर अड़ा है।
बेशक विराट कोहली भारत के कप्तान के तौर पर आंकड़ों में सबसे सफल रहे हैं, लेकिन आईपीएल में बेंगलुरु टीम का लंबा असफल काल उनकी कप्तानी पर धब्बा ही रहा है। न तो वह अच्छी टीम खड़ी कर पाए, न ही अपनी बनाई टीम को सफल ही बना पाए। आशा तो सभी की यही रही है कि कोहली है, तो सब संभाल लेंगे। मगर टीम खेल में अकेला कप्तान भाड़ नहीं फोड़ सकता। भारतीय क्रिकेट आज पूर्वाग्रह से ग्रस्त दिख रहा है। भारतीय क्रिकेट और विराट कोहली आज जिस बीमारी से जूझ रहे हैं, उसको कृष्ण बिहारी नूर के शेर से समझने में आसानी होगीः आईना ये तो बताता है मैं क्या हूं/ आईना इस पर है खामोश कि मुझमें क्या है।
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