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- परंपरा की किरचें
हरीशचंद्र पांडे; शहर से लेकर गांवों तक में हर जगह समूह या समाज देखने को मिल जाता है जो समय-समय पर लोगों को आपसी कड़ियों में जोड़ता है, मेल-मुलाकात कराता है। इसके अलावा हर महीने छोटे-बड़े पर्व-त्योहार इसीलिए मिलजुल कर मनाए जाते रहे हैं, ताकि सबका आपसी जुड़ाव बना रहे और एक दूसरे से हौसला मिलता रहे।
यह सामाजिकता लाभदायक तो है ही, साथ ही अनिवार्य भी है, क्योंकि अगर इंसान मिलना-जुलना बंद कर दे तो समझना चाहिए कि वह एकाकी होकर मौत की तरफ आगे बढ़ रहा है। मगर इस सामाजिकता का मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि किसी की आर्थिक स्थिति का मखौल उड़ा कर उसे कष्टप्रद हालात से गुजर कर इस सामाजिकता का पालन करना पड़े। मिसाल के तौर पर एक सामाजिक प्रथा है मृत्युभोज।
किसी परिजन की मृत्यु होने के बाद आयोजित किया जाने वाला भोज, नुक्ता, मौसर, गंगा-प्रसादी आदि मृत्युभोज कहलाता है। अलग-अलग जगहों पर इसका नाम कुछ अलग हो सकता है। अपने परिजन की मौत के बाद लोग अपने दूसरे परिजनों या समाज के लिए धार्मिक संस्कार या परंपरा के नाम पर मृत्युभोज आयोजित करते रहे हैं।
इस प्रथा के पक्ष में लोगों का मानना है कि यह परंपरा एक समाज की अमानत है, फिर इसका पूरा-पूरा पालन क्यों न किया जाए! जबकि इसी प्रथा ने कई स्तरों पर लोगों के जीवन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया है। किसी की मृत्यु होने पर लोगों को भरपेट जायकेदार भोजन कराना और कई बार भोजन करके लौटते समय यथायोग्य भेंट भी देना। यह इतनी गलत प्रथा है, जिसने गरीब तबकों और मजदूरी करके गुजारा करने या कमाने-खाने वालों की जिंदगी मुश्किल बनाकर रख दी है।
गरीबी की वजह से कई स्तरों पर अभाव से दो-चार परिवारों के बीच कभी एक बीमार का महंगा इलाज कराते परिवार पर यों भी अर्थसंकट ही छाया रहता है। उसके बाद अगर उस रोगी का जीवन नहीं बच पाता है तो परंपरा के प्रहरी और गांव के उन लोगों का हुजूम उस घर पर अघोषित रूप से दबाव डालता है। जबकि वह पहले से ही कठिनाइयों का सामना कर रहा होता है।
उस परिवार को समाज की दुहाई देकर तरह-तरह की बातें कही जाती हैं कि हर किसी ने इस परंपरा का पालन किया है, पूरे गांव को भोजन कराया… सब रीति-रिवाज भली प्रकार से निभाए। अब तुमको भी इसे निभाना है अगर लोगों के बीच सम्मान से उठना-बैठना चाहते हो। कहीं से उधार लो या कुछ बंदोबस्त करो, पर ये जान लो कि मरने वाले के नाम पर इतने लोगों को खाना खिलाना है।
ऐसी स्थिति में अव्वल तो खुद भी इसके लिए तैयार रहते हैं, मगर जो हिचकते भी हैं, उन्हें गांव और समाज में समुदाय से बाहर होने का डर होता है। वे चुपचाप हर आदेश मान लेते हैं और अपनी गाय, भैंस, बकरी या सोना-चांदी बेचकर कुछ इंतजाम करते हैं और सबको मृत्युभोज कराते हैं। उस परिवार के युवा या किशोर को पगड़ी बांधी जाती है, उसे जिम्मेदारी सौंपे जाने का सम्मान दिया जाता है। तरह-तरह के सुंदर उपमान से उसका नाम जोड़ा जाता है, भले ही अगले दिन रोटी खाने के लिए उसके पास कोई इंतजाम न हो, लेकिन मृत्युभोज देकर उसने अपने कुल का नाम रोशन किया होता है।
कुछ राज्यों में मृत्युभोज निवारण कानून को लागू किया गया है। इसके मुताबिक अगर कोई व्यक्ति मृत्युभोज का आयोजन करेगा या इसके लिए किसी को उकसाएगा, मदद करेगा तो उसके निर्धारित सजा है। लेकिन खेद का विषय है कि इस कानून का पालन आमतौर पर नहीं होता है। कुछ पौराणिक प्रसंग ऐसे मिलते हैं कि मृत्यु के बाद दिए जाने वाले भोज में मृतक के पूज्यजनों, जैसे गुरु, वैद्य, दामाद, समधी, बेटी और अन्य आत्मीय जनों को ही भोजन कराया जाता था। उन्हें यथा शक्ति स्मृति चिह्न दिए जाते थे। इसके पीछे रहस्य यह था कि मृतक के दुनिया से चले जाने के बाद भी उसके संबंधियों का घर से नाता बना रहे। परिवार और रिश्तेदार एकजुट रहें। लेकिन अब इस प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया है।
कहा जाता है कि जब खिलाने वाले और खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो, तो ऐसी स्थिति में कभी भोजन नहीं करना चाहिए। लेकिन मृत्युभोज में इस संवेदना का शायद ही किसी को खयाल रहता है। यों लोग कहते हैं कि अच्छी बातें जानवरों से भी सीखें, जिसका साथी बिछुड़ जाने पर वह कई बार उस दिन चारा नहीं खाता है। लेकिन इंसानों के बीच किसी की मृत्यु के बाद मृत्युभोज का आयोजन किया जाता है। यह किस तरह का शोक है। सच यह है कि मृत्युभोज समाज में फैली कुरीति है और इसे खत्म किया जाना चाहिए। तभी व्यक्ति की सोच-समझ स्वस्थ होगी और गरीब तबकों के बीच आर्थिक तरक्की के रास्ते भी खुलेंगे।