सम्पादकीय

भारतीय एकता के आध्यात्मिक सूत्र, फिर चर्चा में है पंजाब, कई हैं अहम मुद्दे

Gulabi
24 Dec 2021 10:00 AM GMT
भारतीय एकता के आध्यात्मिक सूत्र, फिर चर्चा में है पंजाब, कई हैं अहम मुद्दे
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भारतीय एकता के आध्यात्मिक सूत्र
शंकर शरण। विभिन्‍न कारणों से पंजाब एक बार फिर चर्चा में है। इस चर्चा के केंद्र में कई मुद्दे हैं। इनमें एक हिंदू-सिख संबंध भी हैं। ऐसे मौके पर प्रोफेसर कपिल कपूर को सुना जाना चाहिए। खालिस पंजाबी और भाषा-साहित्य-धर्म के विद्वान प्रो. कपिल कपूर को गुरुद्वारों, टकसालों में भी उसी श्रद्धा से बुलाया जाता है, जितना हिंदू सभा-सेमिनारों में। प्रो. कपूर के शब्दों में, ''सिख हिंदुओं के बड़े भाई हैं, क्योंकि हिंदू परिवारों के बड़े बेटे ही सिख बनाए जाते थे और आज भी बनाए जाते हैं। दुर्भाग्य से कुछ बड़े भाई के बेटे ही छोटे भाई के बेटों को अलग मान बैठे हैं।''
यह कोई काल्पनिक उपमा भर नहीं। सौ साल पहले तक हिंदू-सिख में ऐसा भेद नहीं माना जाता था। 1871 में हुई पहली जनगणना के समय ही जनगणना कर्मचारियों ने पाया था कि हिंदू और सिखों में कोई पक्का भेद न था। किसी नागरिक से पूछने पर भी उन्हें उलझन होती थी कि उसे सिख लिखें या हिंदू? तब 1891 में अगली जनगणना के समय अंग्रेज अधिकारियों ने सिख की परिभाषा बनाई। उन्होंने तय किया कि एक सिख की पहचान है कि वह खालसा का सदस्य हो, गुरु गोबिंद सिंह के आदेशों का अनुयायी हो।
अंग्रेज अधिकारियों ने उन बाहरी चिन्हों को बुनियादी महत्व देने की नीति आरंभ की, जो गुरु नानक जी के समय से चार सौ साल तक नहीं हुआ था। बाहरी चिन्हों से सिख को हिंदू से अलग बताने का चलन हाल का है। बाहरी चिन्हों से स्वयं सिखों में भी खालसा को सहजधारी, उदासी, नानकपंथी जैसे अन्य सिख-संप्रदायों से विशिष्ट बताया जाने लगा। इतिहास बताता है कि उस परिभाषा के बाद भी जनगणना समस्या खत्म नहीं हुई, अत: 1911 की जनगणना में सरकारी निर्देश फिर संशोधित हुआ। कारण कि काफी बड़ी संख्या में सिख और जैन स्वयं को हिंदू धर्म से अलग गिनने के विरुद्ध थे। तब व्यवस्था दी गई कि ''वैसे लोगों की गिनती हिंदू-सिख या हिंदू-जैन के रूप में करें।''यह भी संतोषजनक साबित न हुआ।
सो यह नीति भी 1931 में संशोधित की गई। तब जनगणना कमिश्नर ने नया निर्देश जारी किया कि कोई नागरिक अपने को हिंदू-सिख नहीं कह सकता। उसे चुनना ही होगा कि वह अपने को किस समुदाय में मानता है? उस समय इस पर काफी विवाद भी हुआ। एक विचित्र विवाद जिसमें सदियों से स्थापित धर्म-मूल्यों को अपने-अपने पूर्वाग्रहों से नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश हो रही थी, पर दुर्भाग्य से नया विचार ही जमने लगा। पुराना विचार कमजोर होता गया। इसमें किसी धार्मिक-आध्यात्मिक भेद के बदले राजनीतिक-आर्थिक कारकों का ही महत्व निर्णायक रहा। चाहे इसका आरंभ अंग्रेज अधिकारियों ने किया हो, किंतु भारतीय नेतृत्व द्वारा धर्म-समाज के मामलों की उपेक्षा करने से भी एकता के बदले विभेद को बल मिलने में आसानी रही। राष्ट्रीय नेतृत्व में आज तक वही उपेक्षा है।
अभी कुछ वर्ष पहले राजकीय निर्देश जारी कर सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव में सहजधारी सिखों को वोट देने के अधिकार से वंचित किया गया। यह कोई राजकीय मामला न था। सिख समाज स्वयं इसका समाधान कर सकता था, परंतु हमारे नेतागण किसी भी मामले में सामाजिक एकता के बदले विलगाव के कदम उठाने में अधिक रुचि लेते हैं। कहां तो सिखों को हिंदुओं से अलग नहीं समझा जाता था, लेकिन अब यह स्थिति हो गई है कि सिखों में भी अपने-पराये का भेद किया जा रहा है। यह सब हालिया भेद है। प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री रिचर्ड जी फाक्स ने अपनी पुस्तक 'लायंस आफ पंजाब: कल्चर इन द मेकिंग' में लिखा है कि 19वीं सदी तक सिखों को हिंदुओं से अलग करके देखना असंभव था।
यदि आज सिखों की एक विशिष्ट, बल्कि सीमित पहचान बनी है तो इसका संबंध गुरु नानक की शिक्षाओं से जोड़ना कठिन है। वस्तुत: दसों गुरुओं की शिक्षाओं से भी इसका तालमेल बिठाना कठिन काम होगा। यह दावा तो शायद ही कोई करे कि हाल के सिख नेताओं की समझ उन सभी गुरुओं से अधिक है, जो खालसा से पहले के थे। यह ऐेतिहासिक तथ्य है कि दशम गुरु गोबिंद सिंह से पहले खालसा संप्रदाय नहीं था। यदि गुरु नानक जी से लेकर चार सदी तक सिखों ने अपने को अलग माना होता, तो भारतीय साहित्य तथा लोक-परंपराओं में इसके विविध संकेत मिलते। जबकि भारतीय साहित्य तो दूर, कई विदेशी लेखकों के विविध आकलनों में भी ऐसा कुछ नहीं मिलता।
हिंदू-सिखों में दुराव बनाने की वैचारिक-राजनीतिक प्रक्रिया 19वीं सदी की अंतिम चौथाई में शुरू हुई, जो अंग्रेज अधिकारियों ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों से किया। दूसरी ओर स्वयं सिखों में भी केवल केशधारियों को ही सिख मानने का चलन शुरू हुआ। इसके चलते वैष्णव धारा से लगाव रखने वाले उदासी, सहजधारी आदि संप्रदाय दूर किए जाने लगे। यह कुछ-कुछ वैसी ही 'शुद्धतावादी' प्रवृत्ति थी जो ईसाइयत तथा इस्लामी मतों में रही है। इसी अवधारणा को जाने-अनजाने हिंदू, सिख, जैन आदि पर भी जबरन लागू किया गया। यह भुला दिया गया कि भारतीय धर्म की धारणा में तरह-तरह के संप्रदाय अलग होकर भी धर्म को एक ही मानते थे। इसीलिए कई लोग एक साथ कई संप्रदायों में बने रहते थे। किसी का एक साथ हिंदू और सिख, दोनों होना, इसी परंपरा के अनुरूप था।
दुर्भाग्यवश ठीक स्वतंत्र भारत में ही हमारी अपनी धर्म-शिक्षा तेजी से खत्म की गई। हमारे ही नेताओं ने सेक्युलरवाद के नाम पर हिंदू ज्ञान-परंपरा को रिलीजियस कहकर शिक्षा से निष्कासित कर दिया। फलत: पश्चिमी धारणाओं के अनुरूप रिलीजन वाली धारणाएं स्वत: फैलने लगीं, क्योंकि औपचारिक शिक्षा में वही भावना व्याप्त है। इसीलिए स्वयं श्री गुरुग्रंथ साहिब में वर्णित सीखों को भी उपेक्षित करके केश-कृपाण आदि विशिष्ट पहचान को ही निर्णायक माना जाने लगा। यह अशिक्षा और कुशिक्षा से जुड़ी समस्या है। हम अपनी पहचान भूल रहे हैं। इतना भी नहीं जानते कि श्री गुरुग्रंथ साहिब में देशभर के महान संतों, ज्ञानियों की वाणियां संकलित हैं। प्रो. कपिल कपूर के शब्दों में, 'श्री गुरुग्रंथ साहिब पंजाब को संपूर्ण भारत की देन है। जैसे कि ऋग्वेद आदिकालीन पंजाब की संपूर्ण भारत को देन है।' इस सत्य को आत्मसात करके ही भारतीय एकता के आध्यात्मिक सूत्र को पहचाना जा सकता है।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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