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By: divyahimachal
इक तिलिस्म है सरकारी खजाने का और कोई लुटेरा हाथ की सफाई से जादूगर बन गया। हिमाचल में सरकारी धन के व्यय और अपव्यय में फर्क करना जब तक जरूरी नहीं होता, जनता अपनी ही रगों को काटकर ताली बजाती रह जाएगी। प्रदेश को जगमगाते देखना हो तो राजधानी के उस कक्ष में जाइए जो सरकार कहलाती है, फिर मालूम होगा कि हर फाइल जादूगर है और हाथ की सफाई से जनता के पैसे को इधर से उधर करती है। जैसे बरसात में डंगे गिरते हैं या यूं कहें कि हम साल भर यह देखते हैं कि अपनी गिरावट किसके माथे पर डालें, उसी तरह हिमाचल की किस्मत की लकीरें पढ़ते-पढ़ते सियासत ने सिर्फ यह सीख लिया कि सत्ता में शाबाशियां और विपक्ष में आरोपों के बीच किस तरह बेच डालें प्रदेश की नीतियों और नालायकियों को। हमारे सामने केंद्रीय योजना-परियोजना के दो मुजरिम हैं। जिक्र स्मार्ट सिटी शिमला का करें या धर्मशाला का करें, एक अवसर को उजाडऩे का शिद्दत से इस्तेमाल हुआ। शिमला डंगों और पिंजरों का शहर हो गया, तो धर्मशाला में स्मार्ट सिटी परियोजना की अस्मत लूट ली गई। इस बीच पिछली सरकार के जादूगर यानी शहरी विकास मंत्री अपना करतब दिखाते हुए, बजट को उड़ाते रहे। आज शिमला की आंखों में जिस परियोजना ने सुरमा डालना था, वह बरसात के आंसुओं में बह रहा है। धर्मशाला की स्थिति आरंभ से ही खराब है। पहले एक मुकाबला यह हुआ कि यह हिमाचल की पहली स्मार्ट सिटी कैसे घोषित हो गया और फिर भाजपा ने इसे मोदी सरकार की मेहरबानियों में देखा तो कांग्रेस ने केंद्र से पूरा बजट न मिलने की शिकायत की।
हालांकि शिमला में 2905 करोड़ के प्रस्ताव थे, लेकिन यह घटकर 706 करोड़ तक ही सिमट गया, जबकि धर्मशाला में कुल 2109 करोड़ से परियोजना बनी थी, जो घटकर मात्र 631 करोड़ की रह गई। इस तरह करोड़ों की परियोजनाओं को पहले ही फांसी लगा दी गई, जबकि जिस तरह इस काम को आगे बढ़ाया, उससे केवल धन का दुरुपयोग ही सामने आने लगा है। स्मार्ट रोड की परिकल्पना शहर की बदकिस्मती बन गया, तो अब मामला फुटबाल स्टेडियम की विजिलेंस जांच तक पहुंच गया। स्मार्ट सिटी के ओहदेदार या पिछली सरकार की व्यवस्था ने मिलकर ऐसा कारनामा क्यों किया कि फुटबाल स्टेडियम परियोजना सिर्फ धन के व्यय में मस्त होकर यह भी नहीं जान सकी कि खेलने के अंतरराष्ट्रीय मानदंड भी पूरे होने चाहिए। अब खड्ड के किनारे स्मार्ट सिटी का पैसा फूंक कर तमाशा हो गया। इसी तरह का तमाशा दिखाते हुए स्मार्ट सिटी का पैसा कहीं किसी निगम को दे दिया, तो कहीं विभाग को सौंप दिया गया। एचआरटीसी की वर्कशॉप पर तेरह करोड़ लग गए, लेकिन डिपो इलेक्ट्रिक नहीं हुआ। स्मार्ट सिटी के पंद्रह करोड़ से पंद्रह इलेक्ट्रिक बसें स्मार्ट होकर इतनी आगे बढ़ गईं कि यह स्थानीय परिवहन के बजाय एचआरटीसी के फेल रूटों को ढोने लग पड़ीं। हैरानी यह कि आधुनिक बस स्टॉप के नाम पर करोड़ों के काम हो गए, लेकिन इनमें से कइयों पर आकर बसें ठहरती नहीं या कई पार्किंग स्थल बन गए। सरकारी कामकाज का यह ढर्रा हिमाचल को असफल बनाने का जरिया बन गया है।
यहां बरसात कई विभागों के पाप धो जाती है। यहां योजनाओं के ऊपर नई योजनाएं और परियोजनाओं के ऊपर नई परियोजनाएं विराजित हो सकती हैं। हम हमीरपुर में न जाने कितने बाइपास बना कर भी यातायात को सुचारू नहीं बना पाएंगे। हम प्रदेश भर में हजारों डाक बंगले बना कर भी संतुष्ट नहीं होंगे। हमारा वश चले तो सियासत के दम पर केवल भवन बनाएंगे। स्कूल बनाएंगे, भले ही छात्र न हों। मेडिकल कालेज बनाएंगे, भले ही प्रसूति तक के अभाव में बच्चे एंबुलेंस में जन्म लेते रहेंगे। हम आवारा किस्म की सियासत में परिवहन नहीं, एचआरटीसी के बस डिपो जोड़ते जाएंगे। जरा ध्यान से देखना हर साल कितनी इमारतों को अधूरा और पूर्ण हो चुके भवनों को उद्घाटन से हम तरसाएंगे। यह राजनीति का जादू है और हर बार जादूगर राज्य के बजट को खाकर तमाशा दिखा रहा है।

Rani Sahu
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