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क्या आप शैलेंद्र को जानते हैं? संभव है, आज अधिकांश लोग इस सवाल के उत्तर में प्रश्नवाचक दृष्टि के साथ पेश आएं
पंकज शुक्ला | क्या आप शैलेंद्र को जानते हैं? संभव है, आज अधिकांश लोग इस सवाल के उत्तर में प्रश्नवाचक दृष्टि के साथ पेश आएं. मगर यदि आपने आज फिर जीने की तमन्ना है, प्यार हुआ इकरार हुआ, पिया तोसे नैना लागे रे, खोया-खोया चांद, सजन रे झूठ मत बोलो, बहन ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है, नानी तेरी मोरनी को … जैसे गाने सुने हैं तो आप शैलेंद्र को जानते हैं. यदि आपने कभी मुट्ठी तान कर कहा है कि हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है… या उम्मीद से भर कर कहा है कि तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पे यकीन कर… या किसी अपने के जाने पर भरे मन से कहा है कि ओ जानेवाले, हो सके तो लौटके आना… या तंज कसते हुए कहा हो कि दोस्त दोस्त न रहा… तो आप शैलेंद्र को जानते हैं.
जी हां, सच यही है कि शैलेंद्र न होते तो ये गीत भी न होते. आज उन्हीं शैलेंद्र की जयंती है. वे शैलेंद्र जिनके गीत ही नहीं बल्कि इन गीतों का मुखड़ा भी मुहावरा बन कर लोकप्रिय हुआ है. जैसे, प्यार हुआ इकरार हुआ, सजन रे झूठ मत बोलो, तुम ने पुकारा और हम चले आए.
शंकरदास केसरीलाल यानी शैलेन्द्र का जन्म पश्चिमी पंजाब के रावलपिंडी शहर (अब पाकिस्तान) में 30 अगस्त 1923 को हुआ था. मुफलिसी में जीवनयापन करने वाले शैलेन्द्र ने वर्ष 1947 में अपने करियर की शुरुआत मुंबई मे रेलवे की नौकरी से की थी. यह नौकरी उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं थी. फिर शैलेंद्र देश की आजादी की लड़ाई से जुड़ गए और अपनी कविता के जरिए वे लोगों में जागृति पैदा करने लगे. उन दिनों उनकी कविता 'जलता है पंजाब' काफी सुर्खियों में आ गई थी. शैलेन्द्र कई समारोह में यह कविता सुनाया करते थे.
प्रख्यात अभिनेता व निर्माता-निर्देशक राजकपूर के अभिन्न मित्र शैलेंद्र के फिल्म गीतकार बन जाने के पीछे भी इस गीत का जुड़ाव है. राजकपूर से उनकी प्रथम भेंट एक कार्यक्रम में हुई थी. जब वे अपना लोकप्रिय गीत 'जलता है पंजाब' सुना रहे थे.
जलता है, जलता है पंजाब हमारा प्यारा
हम जान गए दुश्मन तेरी चालें
साजिश है तेरी हमें भिड़ाकर उखड़ी जड़ें जमा ले
तूने ही कुछ मज़हब के अंधों को है उकसाया
कुछ धर्म के ठेकेदारों को तूने ही भड़काया
उफ़ ! कैसा विष फैलाया… जलता है, जलता है
जलता है, जलता है पंजाब हमारा प्यारा.
प्रभावित राज कपूर ने जब अपनी फिल्म 'आग' के लिए इस गीत को खरीदने की पेशकश की तो प्रगतिशील कवि शैलेंद्र ने यह कहते हुए साफ इंकार कर दिया कि कविता बिकाऊ नहीं होती. बाद में आजीविका की दुश्वारियों को दूर करने के लिए शैलेंद्र ने गीत लिखने पर सहमति दी. और इस तरह हमें फिल्म 'बरसात' से एक मकबूल गीतकार मिला. राजकपूर की इस ड्रीम फिल्म के लिए शैलेंद्र ने लिखा – बरसात में हम से मिले तुम….' इस फ़िल्म के बाद तो शैलेन्द्र और राजकपूर की जोड़ी ने कई फिल्में एक साथ कीं. इन फिल्मों में 'आवारा', 'आग', 'श्री 420', 'चोरी चोरी' 'अनाड़ी', 'जिस देश में गंगा बहती है', 'संगम', 'तीसरी कसम', 'एराउंड द वर्ल्ड', 'दीवाना', 'सपनों का सौदागर' और 'मेरा नाम जोकर' जैसी फिल्में शामिल हैं.
शैलेंद्र का परिचय उनके गीत ही नहीं बल्कि फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास 'मारे गए गुलफाम' पर कालजयी फिल्म 'तीसरी कसम' का निर्माण भी है. बीते दिनों उनके पुत्र दिनेश शंकर शैलेंद्र ने मीडिया से चर्चा में बताया था कि बाबा के बारे में एक गलतफहमी है कि फिल्म तीसरी कसम के फ्लॉप होने के बाद टूट गए थे. और यही बिखराव उनकी मृत्यु का कारण बना. ऐसा बिल्कुल नहीं है. बाबा ने यह फिल्म बनाई थी और इसमें उनका काफी पैसा भी लगा था. फिल्म फ्लॉप होने के बाद बाबा टूट भी गए थे लेकिन इसकी वजह पैसा डूबना नहीं बल्कि धोखा था. तीसरी कसम में पैसा डूबने के बाद दोस्तों, रिश्तेदारों का रवैया ज्यादा कष्टकारी था. इसके बाद शैलेंद्र ने स्वयं को एक कमरे में बन्द कर लिया था. एसडी बर्मन के बार बार आग्रह पर शैलेंद्र ने फिल्म 'ज्वेलथिप' ने एक ही गीत लिखा था- 'रुला के गया सपना मेरा.' यह फिल्म 1967 में रिलीज हुई और 1967 में शैलेंद्र का निधन हो चुका था. उनका यह अंतिम गीत भी उनके अन्य फिल्मी गीतों की तरह आम जनता के मनोभावों की अभिव्यक्ति बन गया था.
रुला के गया सपना मेराबैठी हूँ कब हो सवेरा, रुला …
वही है ग़म-ए-दिल, वही है चंदा, तारे
हाय, वही हम बेसहारे
आधी रात वही है, और हर बात वही है
फिर भी न आया लुटेरा,
… कैसी ये ज़िंदगी, कि साँसों से हम, ऊबे
हाय, कि दिल डूबा हम डूबे
एक दुखिया बेचारी, इस जीवन से हारी
उस पर ये ग़म का अन्धेरा, रुला …
अपने गीतों के लिए तीन फिल्म फेयर अवार्ड तथा फिल्म 'तीसरी कसम' के लिए सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जितने वाले गीतकार शैलेंद्र का जीवन गान भी विपन्नता और सुविधा के झूले में उतार चढ़ाव भोगता रहा. शैलेंद्र ने बारहा अपने जीवन अनुभवों को गीतों की शक्ल में ढाला है और हमने उन गीतों में अपने जीवन का अक्स पा लेते हैं. उर्दू शायरी के बीच सहज हिंदी में गीत रचने वाले शैलेंद्र मुश्किलों में हौंसले का उजास ले कर उपस्थित हुए हैं. गीतों की विविधता ऐसी है कि हम जीवन के हर प्रसंग के लिए शैलेंद्र के गीतों की ओर देख सकते हैं.
फिल्म तीसरी कसम के गाने 'सजन रे झूठ मत बोलो' की प्रथम पंक्ति अक्सर ही हमारे उलाहना देने का साधन बनती है. फिल्म सीमा का गाना 'तू प्यार का सागर है' एक निश्च्छल प्रेम प्रार्थना है :
घायल मन का, पागल पंछी उड़ने को बेक़रार
पंख हैं कोमल, आँख है धुँधली, जाना है सागर पार
जाना है सागर पार अब तू ही इसे समझा,
राह भूले थे कहाँ से हम
तू प्यार का सागर है …
यहां प्यार का सागर परम् पिता भी है और वह प्रिय भी जिसे खामोशी के साथ चाहा गया है. कोमल पंख और धुंधली आँखों से सागर पर जाने की मुश्किल या तो परमेश्वर दूर करें या प्रेम ही राह दिखलाए.
और हम भारतीय जीवन दर्शन खोजना चाहें तो 'किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार' जैसे सरल शब्दों वाली दूसरी अभिव्यक्ति क्या होगी? किसी की परेशानी बांटना और किसी के लिए अपने दिल में प्यार पैदा करना ही तो जिंदगी है.
विजय आनंद और देव आनंद की फ़िल्म 'गाइड' एक वृहद दर्शन की सिनेमाई प्रस्तुति है. इस फ़िल्म में शैलेंद्र के गीतों ने मूल कथा को विस्तार ही दिया है. जैसे, यह गीत :
कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फ़ानी
पानी पे लिखी लिखाई
है सबकी देखी, है सबकी जानी
किसी के ना आई
कुछ तेरा न मेरा, मुसाफ़िर ! जाएगा कहाँ?
'गाइड' फ़िल्म के लिए ही शैलेंद्र ने लिखा था 'आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है.' एक ही पंक्ति में जीवन और अंत का यह विरोधाभास श्रोताओं को विचार के लिए बाध्य करता है.
बहुत दिया देने वाले ने तुझ को लिखते हुए शैलेंद्र ने सहज ही बोध करवाया था :
जो भी दे दे मालिक तू कर ले कुबूल
कभी-कभी काँटों में भी खिलते हैं फूल
वहाँ देर भले है, अंधेर नहीं
घबरा के यूँ गिला मत कीजे !
और वे कभी नन्हे मुन्ने बच्चे से पूछ लेते हैं कि बता तेरी मुट्ठी में क्या है? इस गीत में शैलेंद्र लिखते हैं :
भीख में जो मोती मिलें, लोगे या न लोगे ?
ज़िन्दगी के आँसुओं का बोलो क्या करोगे ?
भीख में जो मोती मिलें तो भी हम न लेंगे
ज़िन्दगी के आंसुओं की माला पहिनेंगे
मुश्किलों से लड़ते-भिड़ते जीने में मज़ा है !
अतीत हमें स्वप्न लोक सा लगता है. भविष्य की राह उकेरते हुए जरा थक कर बैठते हैं तो यादें अपना संसार सजा लेती हैं. ऐसे में 'दूर गगन की छाँव में' फ़िल्म के लिए लिखा गया शैलेंद्र का यह गीत मन की दशा बताने में हमारा सहारा बनता है:
कोई लौटा दे मेरे, बीते हुए दिन
बीते हुए दिन वो हाय, प्यारे पल छिन
कोई लौटा दे …
मैं अकेला तो ना था, थे मेरे साथी कई
एक आँधी-सी उठी, जो भी था लेके गई
आज मैं ढूंंढूंं कहां, खो गए जाने किधर
बीते हुए दिन वो हाय, प्यारे पल-छिन
बीते दिनों की याद और उन्हें न सहेज पाने की कसक में ही तो शैलेंद्र ने लिखा है और पीढ़ियों ने गाया है :
दिन जो पखेरू होते, पिंजरे में मैं रख देता
पालता उनको जतन से
पालता उनको जतन से, मोती के दाने देता
सीने से रहता लगाए
याद न जाए, बीते दिनों की.
लोक गीतों की अभिव्यक्ति हो या प्रेम के कोमल भाव का बयान शैलेंद्र के गीतों में मन को छूने की माद्दा है. उनके परिजनों का मानना है कि सरकार की तरफ से शैलेंद्र को उतना सम्मान न मिला जितने के वे हकदार थे. जिसे मित्रों और नातेदारों ने छला वह अपनी लेखनी में ही चैन पा सका. प्रशंसकों की ओर से श्रद्धाजंलि तो यही होगी कि हम शैलेंद्र को उनके गीतों के जरिये याद करें और प्रार्थना करें :
दे-दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाए
फिर जाए जो उस पार कभी लौट के न आए
है भेद ये कैसा कोई कुछ तो बताना
ओ जानेवाले, हो सके तो लौटके आना.
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