सम्पादकीय

माखन दादा की जयंती पर विशेष: कोयले से जेल की दीवार पर कविता लिखने वाली भारतीय आत्मा

Gulabi Jagat
5 April 2022 8:53 AM GMT
माखन दादा की जयंती पर विशेष: कोयले से जेल की दीवार पर कविता लिखने वाली भारतीय आत्मा
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माखन दादा की जयंती पर विशेष
आज दादा माखनलाल चतुर्वेदी की 133वीं जयंती है. इस साल खास यह है कि मप्र सरकार ने उनके जिले का नाम होशंगाबाद से नर्मदापुरम और उनके जन्मस्थान बाबई को माखननगर कर दिया. हालांकि, दादा ऐसा कोई वैभव नहीं चाहते थे, उनकी इच्छा इतनी सहज और साधारण थी जिसे उनकी इन लाइनों को पढ़कर समझा जा सकता है,-
'चिमनियों, भट्ठियों और रेल के इंजनों के धुएं से दूर किसी गांव में मेरी समाधि बने, जहां चाहे नागरिक मेरा जीवन चरित्र न गा सकें वे मेरी पुण्यतिथि न मना सकें किंतु थकी हुई ग्रामीण बहनें सिर पर के पानी के घड़े तथा घास के बोझे को मेरी समाधि पर उतारकर थोड़ी देर विश्राम ले सकें. गांव के नन्हे खेलते बच्चे समय पर चरण धूलि जिस पर नित्य चढ़ा आया करे वह हो मेरा गांव. गांव के मंदिर के स्वर यदि वहां से सुनाई पड़े तो और भी अच्छा.'
दादा की ऐसी समाधि न बाबई में बन सकी, न उनकी कर्मस्थली खंडवा में. शहर का नाम उनके नाम पर करने के बाद भी उस भारतीय आत्मा की अंतिम इच्छा तो अधूरी ही रहेगी. एक व्यक्तित्व साधारण कामों से कैसे असाधारण हो जाता है, दादा उसकी एक मिसाल हैं. विख्यात समीक्षक डॉ नगेन्द्र ने तभी उन्हें कवि, योद्धा और संत बताया. अज्ञेय ने लिखा कि वह केवल एक भारतीय आत्मा नहीं एक 'स्वाधीन भारतीय आत्मा' थे. केवल गद्य या पद्य लिख देने से दादा माखनलाल चतुर्वेदी एक भारतीय आत्मा नहीं हो गए. उन्होंने समानांतर रूप से अपने जीवन में कई तरह के बिंबों को रचा. कर्मवीर कलम के ही नहीं कर्म के भी. इसलिए जेल जाने से कभी डरे नहीं. उन्होंने न्यायालय में लिखित बयान दर्ज किया कि
'मेरी अंतरात्मा निर्मल है, मैं विश्वास रखता हूँ कि मैंने किसी भी नैतिक कानून के प्रति अपराध नहीं किया है, मैं इस या किसी भी ब्रिटिश कोर्ट से न्याय कराने के लिए जरा भी उत्सुक नहीं हूँ, मैं अपनी मातृभूमि को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए इससे और अच्छी सेवा नहीं कर सकता कि मैं उसके लिए ख़ुशी से, धैर्य से कष्ट सहन करूँ.'
दादा ने अंग्रेज हुकूमत से असहयोग का न केवल मानक रचा, बल्कि जेल में ही सृजनधारा का संचार कर दिया. बनारसीदास चतुर्वेदी ने जब उन्हें शांतिनिकेतन जाने का न्योता दिया तो उसके जवाब में उन्होंने लिखा कि 'चारों तरफ ज्वाला जल रही है, आज एक जेल जा रहा है कल दूसरा, ऐसे समय जेल से बाहर रहना मुझे उस तरुणाई का अपमान प्रतीत होता है जिसे जेल भिजवाने का खेल शासन खेल रहा है. तो भी मन इधर-उधर खिंच रहा है, यदि आ सका तो खबर दूंगा या मेरे मन की विजय हुई तो मध्यप्रदेश की ही कोई जेल मेरे लिए शांति निकेतन बनेगी.'
एक अंग्रेज कवि की बात को उद्धृत करते हुए जबलपुर जेल से उन्होंने लिखा 'केवल लोहे की सींखचों, उंची काली दीवारों, दरवाजे पर लगे हुए ताले, तंग कोठरियां और चौबीस घंटे श्वास की तरह रहने वाले पहले किसी स्थान को जेल बना देते हैं. यदि ऐसा है तो फिर हम लोग इस जेल की अपेक्षा बाहर भी जेल में ही थे.'
इससे पता चलता है कि उनके लिए आजादी का मतलब कितना व्यापक था और वह गांधी के ग्राम स्वराज के सपने के कितने नजदीक भी था. अपने पूरे जीवन में वह लगभग 12 बार जेल गए. 63 बार उनके घर की तलाशियां हुईं. दादा का ऐसा परिवार था जिसके चार सदस्य आजादी की लड़ाई में जेल गए. गांधी से प्रेरित दादा ने आजीवन खादी पहनने का संकल्प लिया था. जेल में रहते हुए दादा को जब यह छूट नहीं मिली तो अपनी मांग पर अड़ गए.
अंतत: जेल प्रशासन को झुकना पड़ा. केवल दादा को ही नहीं उन सहित सभी कैदियों को खादी पहनने की सुविधा मिली जिन्होंने खद्दर पहनने का संकल्प लिया था. संघर्ष और सृजन की अद्भुत मिसाल दादा की कालजयी रचनाएं 'पुष्प की अभिलाषा' बिलासपुर जेल में रहते हुए रची गई, लेकिन एक दूसरी रचना 'कैदी और कोकिला' जिसकी अपेक्षाकृत कम चर्चा होती है भी जबलपुर जेल की दीवार पर उकेरी गई थी. इस कविता के बारे में प्रोफेसर डॉ. कांति कुमार जैन ने बहुत विस्तार से एक लेख लिखा है.
1930 के आसपास जब दादा असहयोग आंदोलन में हिस्सेदारी करते हुए गिरफ्तार किए गए तो उन्हें सेंट्रल जेल में डाला गया. उन्हें जेल में चक्की पीसने, पत्थर तोड़ने जैसे कठिन काम दिए गए. बाहर उनके पिता का देहांत हो गया था, लेकिन वह स्वतंत्रता आंदोलन की खातिर अंग्रेजी सरकार से बाहर आने के लिए कोई समझौता न किया. इस जेल के आसपास आम के कई पेड़ थे, आम पर बौर आने का मौसम था, शीतला सप्तमी की रात आम के पेड़ पर एक कोयल बोली. उसकी आवाज को वह देर रात तक बैठकर सुनते रहे. उसके संदेश को अपनी कविता में गढ़ते रहे और अंत में जिस एक कोयले का टुकड़ा उठाकर जेल की दीवार पर कैदी और कोयला लिख डाली. इस कविता को उन्होंने भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम, गांधी जी की गिरफ्तारी और अंग्रेजों के दमन से जोड़ दिया.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.
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