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कबीर अपने ज़माने की बेमिसाल अभिव्यक्ति थे.
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | हेमंत शर्मा | कबीर अपने ज़माने की बेमिसाल अभिव्यक्ति थे. कबीर को लेकर एक विस्तृत वैचारिक संसार है. ख़ूबी यह है कि कबीर विश्वविद्यालयों में अध्ययन केन्द्र में तो हैं. वे दर्शन में हैं. वेदान्त में हैं. अद्वैत में हैं. साथ ही भिखारियों की भिक्षा का माध्यम भी हैं. गुरुवाणी के पाठ में भी हैं. ओंकार नाथ ठाकुर से लेकर कुमार गन्धर्व तक के गायन में हैं. कबीर के यहां एक है दो नहीं. उनके यहां सुनना है. कहना नहीं. वे एक तरह के वाद्य हैं और वाद्य शब्दों की भाषा से परे होते हैं. कबीर जीवन की तरफ़ से नहीं, मृत्यु की ओर से संसार को देखते हैं.
छह सौ साल से कबीर भाषा के आर पार हर कहीं मिलते हैं. कबीर मठों में बाबा की तरह, पंथों में पंथ गायक की तरह, ग्रन्थों में ग्रन्थ विरोधी की तरह, मुसलमानों में ना मुसलमान की तरह, पंडितों में कर्मकाण्ड के ख़िलाफ़ खड्गहस्त, सूफ़ियों में सूफ़ी, साधुओं मे साधु, भिखारियों में कभी मांगने और कभी देते हुए. कामगारों मे दस्तकार के रूप में स्थापित हैं. कबीर सारंगी में, ख़ज़ंडी में, घुँघरू में, करताल में, खडताल में, रेबाब में, किंगरी में हर कहीं मिलेगें. वे दुख में, विषाद में, धूल और मिट्टी में भी आपको मिल जायेंगें.
वेदान्त और अद्वैत के प्रतिपादक
कबीर पढ़े लिखे नहीं थे, पर उनकी रचनाएं हर पढ़े लिखे के लिए आदर्श हैं. वे वेदान्त और अद्वैत के प्रतिपादक थे. छ: सौ सालों की मौखिक परम्परा में कबीर जीवित हैं. कबीर की रचनाओं में तीन भेद हैं. साखी, सबद और रमैनी. रमैनी में मुख्यत: दोहा चौपाई का प्रयोग है. कबीर के नाम पर क्या और कितना है इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है की उनके नाम छह लाख से ज्यादा दोहे हैं. "छह लाख छानबे सहस्त्र रमैनी एक जीभ पर होय" चेलों ने भी उनके नाम पर खूब नाम कमाया है.
जब हिन्दी बोलियों के सहारे थी तो कबीर पहले व्यक्ति थे. जिन्होंने हिन्दी को भाषा बनाने की पहल की. उन्होंने सभी भाषाओं और बोलियों से कुछ-कुछ लेकर एक सधुक्कड़ी भाषा का ईजाद किया. यानि साधुओं की घुमकक्ड़ी वृत्ति से हर जगह के शब्द ले उससे नई सधुक्कड़ी भाषा बनाना. उन्होंने दुनिया को ठेंगे पर रख एक फक्काड़ाना मस्ती को अपनी शैली बनाई. उस ज़माने में कुरीतियों के ख़िलाफ़ जंग के लिए लुकाठी हाथ मे लेकर अपना घर फूंकने की तत्परता कबीर ने दिखायी. वे सुधार चाहते थे. चाहे व्यवस्था टूट जाय. बीसवीं शताब्दी में लोहिया "सुधरो या टूटो" का एलान कर रहे थे. जब की कबीर ने यह एलान सोलहवीं सदी में ही कर दिया था.
पोथियों के बरक्स ढाई अक्षर की प्रतिस्थापना की
कबीर ने मोटी-मोटी पोथियों के अस्तित्व को नकारा था. इन पोथियों के बरक्स ढाई अक्षर की प्रतिस्थापना की. उस वक्त लोकतांत्रिक समाज बना नहीं था. नेता विरोधी दल के पद की कल्पना नहीं थी. फिर भी कबीर ने "निंदक नियरे राखिए का आँगन कुटी छवाय" का उद्घोष किया. मार्क्स के चार शताब्दी पहले कबीर का साम्यवाद देखिए. "साईं इतना दीजिए. जामै कुटुंब समाय. मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाय." मांग और आपूर्ति का यह फ़तवा मार्क्सवाद के जन्म से पांच सौ साल पहले का था. कबीर ने हमें जो साम्यवाद दिया वह प्लेटो और मार्क्स के साम्यवाद से भिन्न है. प्लेटो का साम्यवाद वंश पर आधारित है और मार्क्स का साम्यवाद अर्थ पर. कबीर का साम्यवाद जीवन मूल्यों पर आधारित है और मानव को जीने का समान अधिकार दिलाता है. इस साम्यवाद में मनुष्य साध्य है, और अर्थ साधन. और यह साधन मानव कल्याण के लिए प्रयुक्त होता है. कबीर ने कहा कि "उदर समाता अन्न लै, तनहिं समाता चीर. अधिक संग्रह ना करै, ताको नाम फकीर."
आज से छह सौ साल पहले भी समय के महत्व को समझते हुए कबीर दास ने कहा कि "काल करे जो आज कर, आज करे सो अब. पल में परलय होयगी, बहुरी करोगे कब." इस दोहे में कबीर ने समय के महत्व को थोड़े शब्दों में ही समझा दिया था. वे काल से परे सार्वकालिक हैं. जो सबमें हैं वह कबीर में हैं. और जो कबीर में है, वह सबमें है. फिर भी वे अकेले हैं. आज उनका जन्मदिन है. जन्मदिन मुबारक, कबीर साहब.
Tara Tandi
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