सम्पादकीय

हिंदी दिवस पर विशेष: राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 और रोजगार की तलाश करती हिंदी

Rani Sahu
14 Sep 2021 6:07 AM GMT
हिंदी दिवस पर विशेष: राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 और रोजगार की तलाश करती हिंदी
x
आज 14 सितंबर पूरे देश में हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका अपना एक इतिहास है

भावना मासीवाल। आज 14 सितंबर पूरे देश में हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका अपना एक इतिहास है। इस दिन 14 सितम्बर 1949 को संवैधानिक स्तर पर भारत संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी को मान्यता प्राप्त हुई थी।

धारा- 343 में कहा गया-
"संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी और अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय रूप होगा। शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग 15 वर्ष की अवधि तक किया जाता रहेगा।"
इस संबंध में 1955 में राजभाषा आयोग बना। हिंदी को राजभाषा के रूप में पूर्णत: स्थापित करने की प्रक्रिया में आयोग द्वारा तेरह सुझाव दिए गए। जिन पर सरकार द्वारा कोई ठोस कदम नहीं लिया गया। 1965 से पूर्व 1963 में राजभाषा अधिनियम आता है। जो पुन: 1967 में संशोधित होता है। इस अधिनियम के अंतर्गत 1965 तक हिंदी को पूर्णत: राजभाषा के रूप में स्थापित कराने के आश्वासन को पुन: अनिश्चित समय तक बढ़ा दिया जाता है, जिसका सबसे बड़ा कारण गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी का घोर विरोध था।
इस कारण यह कहा गया-
"26 जनवरी 1965 के बाद भी हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग में लाई जाती रहेगी, जिनके लिए इससे पहले प्रयोग में लाई जाती रही है।"
यह व्यवस्था संविधान लागू होने से लेकर आज तक यथावत् चली आ रही है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि सरकारी नीतियों के कारण आज भी हिंदी राजभाषा में सहायक के रूप में कार्य कर रही है और एक विदेशी भाषा हमारी प्रमुख राजभाषा के रूप के शासकीय प्रयोजनों व वार्ताओं, पत्रों, अभिलेखों की आधार भाषा बनी हुई है।
हिंदी भाषा और हम भारतीय
भाषा ज्ञान के रास्तों को खोलती है, लेकिन हमारे ही देश में अंग्रेजी पर हम सभी की अति-निर्भरता ने गांव, कस्बों व शहरों तक के विद्यार्थियों को अंग्रेजी भाषा ज्ञान के अभाव के कारण विज्ञान और तकनीकी ज्ञान से वंचित कर दिया है। अगर हम अपने आसपास ही देखें तो विद्यालय तक विज्ञान की शिक्षा हिंदी में लेने वाला छात्र, उच्च शिक्षा में प्रवेश के समय अंग्रेजी पाठ्यक्रम व अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता व हिंदी भाषा में पाठ्यपुस्तकों में अभाव के कारण विज्ञान व तकनीकी पाठ्यक्रमों से दूरी बना लेता है।
यह हमारी शिक्षा व भाषा नीति की विफलता है कि वह एक और आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है दूसरी ओर आजादी के इतने वर्षों उपरांत भी हम ज्ञान-विज्ञान के पाठ्यक्रमों को हिंदी, मातृभाषा व क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध कराने में असमर्थ हैं। जो थोड़ा बहुत उपलब्ध भी हो रहा है, वह अनुवाद मात्र है और स्तरीय नहीं है। भाषा की इस दुरूहता के कारण हमारी बहुत सी प्रतिभाओं को सामने आने का मौका नहीं मिल पा रहा है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी कहा है-
"हमने अपनी आंखें खोकर चश्में लगा लिए हैं"। यह चश्में आजादी मिलने के उपरांत अधिक बटने और लगने लगे। आज यह चश्में बौद्धिक चर्चा व बहसों के केंद्र में सर्वाधिक लगाए देखे जा सकते हैं।
नई शिक्षा नीति-2020 में स्पष्ट रूप से शिक्षण माध्यम के रूप में भाषा के सवाल को मुख्य रूप से उठाया गया है। - फोटो : iStock
हिंदी भाषा और हमारी नई शिक्षा नीति-2020
भारतीय शिक्षा व्यवस्था को व्यवस्थित व क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ाने और आज की जरूरत को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 लागू की है। जो राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी हुई है। नई शिक्षा नीति 2020 में भाषा के संबंध में उत्पन्न उन सभी सवालों को समझा व नई शिक्षा नीति का हिस्सा बनाया गया है जिस पर अमूमन पूरे देश में प्रत्येक हिंदी दिवस पर चर्चा होती आ रही है और वह है भाषा का सवाल।
इस नीति के अंतर्गत भी राजभाषा आयोग 1955 की सिफारिशों में से एक भारतीय भाषाओं के ज्ञान और सीखने की सिफारिश को शामिल किया गया है। जबकि इससे पूर्व 1968 में कोठारी आयोग (1964-66) जिसे भारतीय शिक्षा के इतिहास में पहला कदम कहा जाता है, वह शिक्षा को राष्ट्रीय महत्व का विषय घोषित करता है। 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य रखता है।
संस्कृत भाषा के शिक्षण को प्रोत्साहित करने व त्रिभाषा सूत्र को लागू करने की सिफारिश करता है। कोठारी आयोग की सबसे बड़ी उपलब्धता त्रिभाषा सूत्र को लाना था। क्योंकि यह समय भाषाई आंदोलन का था जहां राज्य एक ओर भाषाई आधार पर अलग हो रहे थे दूसरी और हिंदी को पूरी तरह राजभाषा बनाए जाने के15 वर्ष का पूर्ण हो रहे थे। साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी का घोर विरोध हो रहा था। इन विपरीत परिस्थितियों व भाषिक असहमतियों के मध्य कोठारी आयोग त्रिभाषा सूत्र को लाता है जो हिंदी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण सुझाव था|
कोठारी आयोग की सिफारिशों के उपरांत 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति आती है। इस नीति में 1992 में संशोधन होता है और कहा जाता है कि 1968 की शिक्षा नीति के अधिकांश सुझाव कार्यक्रम में परिणत नहीं हो सके, क्योंकि क्रियान्वयन की पक्की योजना नहीं बनी, न स्पष्ट दायित्व निर्धारित किए गए। इसी कारण नई चुनौतियों और सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर नई शिक्षा नीति तैयार की गई है।
1986 की शिक्षा नीति में भाषा को लेकर कोई विशेष निर्देश देखने को नहीं मिलते हैं। इस नीति का मुख्य उद्देश्य शिक्षा को नवाचार, तकनीक, प्रौद्योगिकी, विज्ञान व मूल्यों से जोड़ना था। भाषाओं के संबंध में इतना ही कहा गया कि "1968 की शिक्षा नीति में भाषाओं के विकास के प्रश्न पर विस्तृत रूप से विचार किया गया था।
उस नीति की मूल सिफारिशों में सुधार की गुंजाइश शायद ही हो और वे जितनी प्रासंगिक पहले थी उतनी ही आज भी है। किंतु देश भर में 1968 की नीति का पालन एक समान नहीं हुआ। अब इस नीति को अधिक सक्रियता और सौद्देश्यता से लागू किया जाएगा"।1968 की कोठारी आयोग की सिफारिशें हो या 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति दोनों ही भाषा के संदर्भ में अधिक मुखर नहीं होती है। जितनी की नई शिक्षा नीति 2020 होती है।
नई शिक्षा नीति-2020 में स्पष्ट रूप से शिक्षण माध्यम के रूप में भाषा के सवाल को मुख्य रूप से उठाया गया है। जिसके लिए एक उप-अध्याय 'बहुभाषावाद और भाषा की शक्ति' शीर्षक रखा गया है। भारत सरकार द्वारा शिक्षा माध्यम के रूप में भाषा की शक्ति को पहचानते हुए विभिन्न प्रावधान व सुझाव इस शिक्षा नीति में किए गए हैं। इसमें कहा गया कि " छोटे बच्चे अपनी घर की भाषा/ मातृ भाषा में सार्थक अवधारणाओं को अधिक तेजी से सीखते हैं और समझ लेते हैं।
घर की भाषा आमतौर पर मातृभाषा या स्थानीय समुदायों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। ....ऐसे में जहां तक संभव हो, कम से कम ग्रेड 5 तक लेकिन बेहतर यह होगा कि यह ग्रेड 8 और उससे आगे तक भी हो, शिक्षा का माध्यम, घर की भाषा/ मातृ भाषा/ स्थानीय भाषा/ क्षेत्रीय भाषा होगी। इसके बाद घर/ स्थानीय भाषा को जहाँ भी संभव हो भाषा के रूप में पढ़ाया जाता रहेगा। सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के स्कूल इसकी अनुपालना करेंगे।
विज्ञान सहित सभी विषयों में उच्चतम गुणवत्ता वाली पाठ्य पुस्तकों को मातृ भाषा में उपलब्ध कराया जाएगा।
बच्चे द्वारा बोली जाने वाली भाषा और शिक्षण के माध्यम के बीच यदि कोई अंतराल मौजूद होता हो तो उसे समाप्त किया जाएगा।
भाषा के विकास में त्रिभाषा सूत्र को पुनः शामिल किया गया और कहा गया कि इसमें कम से कम दो भारतीय भाषाएं होगी।
संस्कृत, पालि, फ़ारसी, प्राकृत के साथ ही तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और ओड़िया भाषाओं को भी विकल्प के रूप में शामिल किया जाएगा व पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाएगा।
हमारी मातृभाषाएं हमारी लोक व व्यापक जन की संवाद व संप्रेषण की भाषा है। यह हमारे राष्ट्र की धरोहर है यदि हम इनके प्रति ही स्वाभिमान का भाव पैदा नहीं कर सके तो फिर हम अपने राष्ट्र के प्रति भी स्वाभिमान का भाव नहीं रख सकते हैं।
महात्मा गांधी जी ने भी कहा है-
"मेरी मातृभाषा में कितनी खामियां क्यों न हो? मैं इससे इसी तरह चिपटा रहूंगा जिस तरह बच्चा अपनी मांं की छाती से। यही मुझे जीवनदायनी दूध दे सकती है। अगर अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है जिसकी वह हकदार नहीं है तो मैं उससे सख्त नफरत करुंगा वह कुछ लोगो के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों, करोड़ो की नहीं।"
राष्ट्र के विकास के लिए एक शिक्षा नीति का होना आवश्यक है। जिस प्रकार चीन की ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का माध्यम उनकी अपनी भाषा है। - फोटो : iStock
महात्मा गांधी जी ने वर्धा शिक्षा योजना 1937 में शिक्षा में मातृभाषा की अनिवार्यता पर बात कही थी। लेकिन वक्त के साथ उनके विचार भी बौद्धिक बहस का हिस्सा बनकर रह गए।
नई शिक्षा नीति-2020 में मातृभाषाओं को पुन: जीवित करने का प्रयास किया है। यह सच है कि कोई भी राष्ट्र तब तक मजबूत नहीं बनता जब तक उसकी जमीन अर्थात् उसका जन मजबूत नहीं होता है। हमारी मातृ भाषाएं इसी बड़े व व्यापक जन समूह का प्रतिनिधित्व करती हैं।
जब यह जन समूह मजबूत होगा तो उसका प्रतिनिधित्व करने वाली हमारी हिंदी भाषा भी स्वत: मजबूत होगी, क्योंकि हिंदी का शब्द भण्डार तो उसकी मातृभाषा, क्षेत्रीय बोलियों व भारतीय भाषाओं के शब्दों के भंडार से निर्मित है। ऐसे में बहुभाषिकता हमारी कमज़ोरी नहीं बल्कि हमारी विशेषता है।
डॉ.जाकिर हुसैन के शब्दों में कहें तो-
"हिंदी वह धागा है जो विभिन्न मातृभाषाओं रूपी फूलों को पिरोकर भारत माता के लिए सुंदर हार का सृजन करेगा"।
हमारे संविधान की सबसे बड़ी खूबी अनेकता में एकता है। पांच उंगलियां मिलकर एक मुट्ठी बनाती है। हमारी बहुभाषिकता में एक भाषा के रूप में हिंदी की पहचान उस मुट्ठी के समान हैं जो अलग-अलग उंगलियां अर्थात् भाषाओं के होने के बावजूद हिंदी के रूप में शक्ति का अहसास कराती है।
राष्ट्र के विकास के लिए एक शिक्षा नीति का होना आवश्यक है। जिस प्रकार चीन की ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का माध्यम उनकी अपनी भाषा है। उनका बाजार भी उनकी अपनी भाषा में संचालित है। उसी प्रकार हमारे देश के भीतर भी होना चाहिए। मगर यहां तो स्थितियाँ एकदम विपरीत है।
हमारे देश में ज्ञान-विज्ञान का माध्यम एक विदेशी भाषा है। यह हमारे देश की विडंबना ही है कि एक बहुभाषिक राष्ट्र होने के उपरांत भी आज भी अदालतों से लेकर प्रशासनिक व्यवस्था तक में विदेशी भाषा का प्रयोग किया जाता है। हम आजाद तो हो गए मगर आज भी भाषाई गुलामी में जी रहे हैं और हमारे देश का युवा अपनी ही भाषा के प्रति हीनता बोध से ग्रसित हैं।
नई शिक्षा नीति 2020, 34 वर्षों बाद व्यापक स्तर पर भाषा के विकास के सवालों को उठाती है जो उससे पूर्व 1968 के कोठारी आयोग व 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मुखर होकर नहीं उठाए गए थे। भारत सरकार द्वारा जारी यह शिक्षा नीति भारत की भावी शिक्षा व्यवस्था और राष्ट्र के उन्नयन के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाली नीति है। यह नीति यदि ईमानदारी पूर्वक क्रियान्वयन में नहीं लाई जाती है और अपने पूर्व की नीतियों के समान केवल महज दस्तावेज बनकर रह जाएगी।
जैसा कि इतिहास के आइने में वर्धा शिक्षा योजना के साथ हुआ था जिसमें मातृभाषाओं के प्रयोग सहित कई ऐसे बिंदुओं को उठाया गया था जो सही से क्रियान्वित नहीं होने के कारण सिर्फ सुझाव व दस्तावेज़ ही बनकर रह गए। ऐसे में आवश्यक है कि कि नई शिक्षा नीति को प्रभावी तरीके से लागू किया जाए। इससे न केवल हमारी भाषाएँ समृद्ध होगी बल्कि हमारी युवा पीढ़ी भी भाषाई बंधनों से आजाद होकर अपनी मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा व हिंदी के माध्यम से ज्ञान के नए रास्तों को तलाश सकेगी व राष्ट्र के विकास में अपना योगदान दे सकेगी।
कवि सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में-
मैं कुंजी कहता हिंदी को
खुलता जिससे सामूहिक मन
क्षेत्रवृति से उठकर ही हम
कर सकते जन राष्ट्र संगठन
Next Story