सम्पादकीय

पुण्‍यतिथि पर विशेष: दुष्‍यंत कुमार को कब पढ़ा जाना चाहिए...

Gulabi
30 Dec 2021 8:45 AM GMT
पुण्‍यतिथि पर विशेष: दुष्‍यंत कुमार को कब पढ़ा जाना चाहिए...
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जब यह सवाल उठा तो मैंने अपने ही स्तर पर एक सर्वे किया
आज दुष्यंत कुमार की पुण्यतिथि है. मैं जिस शहर में रहता हूं, उसकी एक पहचान दुष्यंत कुमार त्यागी से भी है. 'साये में धूप' वाले दुष्यंत, एक पत्थर तबीयत से उछालने की प्रेरणा देने वाले दुष्यंत, जिनकी रचनाओं को संसद से सड़क तक सबसे ज्यादा पढ़ा गया, वे दुष्यंत. वे दुष्यंत कुमार जिन्हें पढ़ कर धूप में गुलमोहर सी छांह मिल जाती है और जो आक्रोश के कोहरे से घिरे हों उन्हें अभिव्यक्ति की धूप मिल जाती है. दुष्यंत कुमार पर, उनकी रचनाओं पर खूब लिखा गया है. खूब कहा गया है. कई कई तरह से समझा गया है. दुष्यंत कुमार के बारे में लिखते समय एक प्रश्न उठा कि दुष्यंत कुमार को कब पढ़ा जाना चाहिए? किस उम्र में और किस समय में दुष्यंत को पढ़ा जाना जरूरी होता है?
जब यह सवाल उठा तो मैंने अपने ही स्तर पर एक सर्वे किया. यह एक तरह से सैंपल सर्वे है. इसके परिणाम सटिक भले न हो, मगर मन में उपजे प्रश्न का समाधान पाने में सहायता करते हैं. मैंने अपने आसपास के जाने अनजाने लोगों से पूछा कि दुष्यंत कुमार व उनकी रचनाओं से उनका परिचय कैसे हुआ? उन्होंने दुष्यंत कुमार को कब पढ़ा? कहना न होगा कि अपनी अन्य रचनाओं से अलग दुष्यंत कुमार 'साये में धूप' के कारण ही ज्यादा याद रखे जाते हैं. अधिकांश लोगों ने इसी संग्रह की रचनाओं के कारण दुष्यंत कुमार को जाना है. साहित्य के विद्यार्थियों से इतर स्कूल-कॉलेज हो या संसद का सत्र, अपनी बात में वजन लाने के लिए साये में धूप की ही पंक्तियां पढ़ी जाती हैं.
इस तरह एक शायर से परिचय होता है. विरोध प्रदर्शन के दौरान आक्रोश व्यक्त करती रचनाओं के लेखक की पड़ताल की जाती है तो दुष्यंत कुमार का नाम उभरता है. सत्ता के खिलाफ नाराजगी व्यक्त करती पंक्तियों को सुन तक मुट्ठियां तन जाती हैं तो उन पंक्तियों के लेखक को खोजते हुए नया पाठक 'साये में धूप' और दुष्यंत कुमार तक पहुंच जाता है.
सभी जानते हैं कि हिंदी गज़ल को शिखर तक पहुंचाने वाले रचनाकारों में दुष्यंत कुमार का नाम बेहद सम्मान से लिया जाता है. उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गांव में 1 सितंबर 1933 (कुछ लोगों के अनुसार 30 सितंबर) को हुआ था. दुष्यं‍त कुमार ने आरंभिक रचनाएं परदेसी के नाम से लिखी फिर उन्होंने अपने नाम से ही लिखना शुरू कर दिया. दुष्यंत कुमार ने उपन्यास लिखे. लघु कथाएं भी लिखीं. 'एक मसीहा मर गया' शीर्षक से नाटक लिखा तो काव्य नाटक 'एक कंठ विषपायी' भी लिखा. मगर जिस संग्रह के लिए उन्‍हें जाना जाता है वह है सबसे चर्चित गजल संग्रह 'साए में धूप'. आजादी के अंतिम संघर्ष के दौरान किशोर हुए दुष्‍यंत कुमार के इस संग्रह अंतिम संग्रह की रचनाओं ने विरोध और आक्रोश को वैसा स्‍वर दिया जैसा अपने समय की जरूरत थी.
इसके जरिए नागार्जुन, रघुवीर सहाय, गोरख पाण्डे, धूमिल, मुकुट बिहारी सरोज जैसे कवियों के साथ धुमार किए जाने लगे. ऐसे कवि जिन्‍होंने जनसंघर्षों को अपनी रचनाओं का आधार बनाया. सरकारी नौकरी में रह कर भी सत्‍ता के खिलाफ लिखने का साहस जिस प्रकृति से आता है वह दुष्‍यंत का परिचय थी. उनकी रचनाओं में नाराजगी भी, आक्रोश भी है और मनमानियों को अस्‍वीकार करने का भाव भी है. वे उठ खड़े होने में यकीन रखते हैं. जर्जर नाव के लहरों से टकराने के जज्‍बे में भरोसा करते हैं. उन्‍होंने सत्‍ता के चरित्र को पहचाना और राजनीतिक के स्‍याह पक्ष पर मुखर हो कर लिखा. ऐसा अनुभव जो आगे चल कर समाज का अनुभव बन गया. उनके लिखे में हम सभी के मन का समाहित हो गया. उनकी रचनाओं में विरोध की आग है, संघर्ष का लोहा है तो जीवन का कपास भी यहीं हैं. कहीं-कहीं निराशा के स्‍वर हैं तो एक पत्‍थर तबीयत से उछालने की चुनौती देता नारा भी है.
बानगी के तौर पर कुछ रचनाएं देखें –
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बस्ते हैं
ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा.
मत कहो आकाश में कुहरा घना है ,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा.
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू न समझेगा सियासत, तू अगर इंसान है.
ख़ास सड़कें बंद हैं, तब से मरम्मत के लिये,
ये हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है.
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं,
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार.
यह सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा,मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा.
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेहरे बहस यह मुद्दआ.
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है.
एक चिनगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है.
अगर आप खोजेंगे तो लेखक दुष्‍यंत कुमार की रचनाओं और उनके जीवन से जुड़े अनेक किस्‍से मिलेंगे जो बताएंगे कि साये में भी धूप महसूस करने वाला शायर किस तरह जिया. केवल 42 वर्ष की अवस्था में 30 दिसंबर 1975 को दुष्‍यंत कुमार का निधन हो गया था. उनके निधन को अब 46 बरस हो चुके हैं. यानि उनके जीवन से अधिक समय. सवाल यही था कि दुष्‍यंत को कब पढ़ा जाना चाहिए तो तमाम लोगों के साथ बातचीत से निष्‍कर्ष निकला कि दुष्‍यंत कुमार को अब पढ़ा जाना.
अब यानि वर्तमान में. अभी पढ़ा जाना चाहिए. स्‍कूल, कॉलेज में पढ़ा हो या किसी मोर्चें में पंक्तियों को गाया हो, एकांत में जब मन हार रहा हो या जोश परवान चढ़ रहा हो, या आगत डरा रहा हो, जब आज हमें परेशान कर रहा हो तब ही दुष्‍यंत कुमार को पढ़ा जाना चाहिए. चाहे देश की विकास यात्रा की बात हो या जीवन की यात्रा कि दुष्‍यंत कुमार को वर्तमान में ही पढ़ा जाना चाहिए क्‍योंकि उनकी रचनाओं में अपने काम की सार्थकता को जांचने के सूत्र भी मिलते हैं, लक्ष्‍य को पाने की तबीयत भी और आक्रोश घर कर रहा है तो चुनौतियों से निपटने की उम्‍मीद भी. जैसे, उनकी यह कविता :
तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,
छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,
मुझको सन्तोष हुआ
और लगा –-हर छोटे को
बड़ा करना धर्म है.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
पंकज शुक्‍ला पत्रकार, लेखक
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
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