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पिछड़ी और दलित जातियों का राजनीतिकरण हमारे लोकतंंत्र की एक विशिष्ट परिघटना है
अभय कुमार दुबे का कॉलम:
पिछड़ी और दलित जातियों का राजनीतिकरण हमारे लोकतंंत्र की एक विशिष्ट परिघटना है। इससे पता चलता है कि लोकतंत्र का आधार व्यापक हो रहा है, उसमें गहराई आ रही है और सबसे बड़ी बात यह है कि सत्ता के साथ नज़दीकी के कारण इन अपेक्षाकृत वंचित रहे समाजों में भी एक राजनीतिक अभिजन उभर रहा है। उत्तर प्रदेश के ताज़े राजनीतिक घटनाक्रम ने हमें इस प्रक्रिया का नए सिरे से आकलन करने का मौका दिया है।
गैर-यादव पिछड़ी जातियों (राजभर, मौर्य, कुशवाहा, सैनी, शाक्य, बिंद, नोनिया-चौहान, लोधी, मल्लाह, गड़रिया आदि) के जो नेतागण 2017 के चुनाव में सामाजिक न्याय की राजनीति का चुनावी दायरा छोड़कर भाजपा में गए थे, वे चुनाव के ऐन पहले इस पार्टी को छोड़कर बाहर निकल आए हैं। इस घटना को पढ़ने का प्रचलित तरीका यही है कि इससे भाजपा और सपा को वोटों के मामले में क्या नुकसान-फायदा होगा।
लेकिन, इस समझ से कुछ परे हट कर देखने पर यह घटनाक्रम कुछ और भी कहते हुए सुनाई दे सकता है। दलबदल से भाजपा में बेचैनियां हैं, और उसके रणनीतिकार अपने कील-कांटे दुरुस्त करने में लग गए हैं। निश्चित रूप से यह एक फौरी धक्का है। लेकिन, यह एक अवसर भी है। अब भाजपा के सामने मौका है कि वह इन गैर-यादव बिरादरियों में अपने उन राजनीतिक तत्वों की प्रभावकारिता की परीक्षा कर सकती है जिन्हें वह पिछले पांच सालों के दौरान योजनापूर्वक विकसित कर रही थी।
ये नए तत्व स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी जैसे नेताओं से अलग तरह की भाषा बोलते हैं। भाजपा छोड़ने वाले नेताओं की दीक्षा उस राजनीतिक पाठशाला में हुई थी, जिसकी बागडोर कांशीराम जैसे आंबेडकरवादी और बहुजन गोलबंदी करने वाले नेता, रणनीतिकार के हाथ में थी। ये लोग जाति-संघर्ष, जाति-तोड़ो और सामाजिक क्रांति की शब्दावली में राजनीति करने वाले रहे हैं। इसके उलट भाजपा द्वारा विकसित नेतृत्व अपने जातिभाइयों के साथ संवाद करने के लिए भिन्न शैली अपनाता है।
गैर-यादव जातियों के पुराने राजनीतिक प्रतिनिधियों का भाजपा ने चुनावी लाभ तो उठाया, लेकिन इन पर न तो भाजपा को भरोसा था, और न ही इन नेताओं को भाजपा पर। इन नेताओं की अनुभवी आंखें देख रही थीं कि भाजपा उनकी बिरादरियों में ही उन्हें चुनौती देने वाला नेतृत्व तैयार करने की कोशिश कर रही है। भाजपा ने जहां और जब भी मौका मिला, इन जातियों में हिंदुत्व की विचारधारा में दीक्षित लोगों को राज्यसभा की सदस्यता द्वारा, संगठन में पदाधिकारी बनाकर, केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह देकर प्रोत्साहित करने का एक सिलसिला चलाया।
लोग ओम प्रकाश राजभर का नाम जानते हैं, लेकिन उस राजभर का नाम नहीं जानते जिसे संघ की कतारों से निकल कर राज्यसभा पहुंचा दिया गया है। इसी तरह लोग उस गीता शाक्य को भी नहीं जानते जिन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया है। बेबी रानी मौर्य चूंकि राज्यपाल का पद छोड़कर चुनावी मैदान में कूदी थीं, इसलिए उनके नाम से लोग परिचित हैं। दरअसल, इस तरह के 'संघी पिछड़ों' की संख्या अभी धीरे-धीरे सामने आने वाली है।
भाजपा को भरोसा है कि वह कुछ न कुछ गैर-यादव पिछड़ों के वोट इन नए हिंदुत्ववादी तत्वों के जरिए प्राप्त करने में सफल हो जाएगी। दरअसल, उप्र का यह चुनाव हिंदुत्व की विचारधारा का असली इम्तिहान है। चुनाव परिणाम दिखाएंगे कि जिन नए तत्वों को संघ परिवार ने तैयार किया है, वे राजनीतिक दृष्टि से कितने काम के हैं। 2017 में भाजपा ने उप्र में 'सब जात बनाम तीन जात' जैसे नारे के आधार पर गोलबंदी की थी।
यह 1991 में भाजपा द्वारा की गई कल्याण सिंह शैली की सोशल इंजीनियरिंग का 2017 का नया व ज्यादा व्यापक संस्करण था। इसका नतीजा ये निकला कि अति-पिछड़ी जातियों, गैर-यादव ओबीसी जातियों और गैर-जाटव दलितों को भाजपा ने क्रमश: बसपा, सपा, कांग्रेस की तरफ झुके तीन समुदायों (जाटवों, यादवों व मुसलमानों) के खिलाफ खड़ा कर दिया। अपनी ब्राह्मण-बनिया-ठाकुर छवि से परे जाते हुए भाजपा ने गरीबों-पिछड़ों का व्यापक सामाजिक गठजोड़ बनाने में सफलता पाई।
उसने राजभरों, कुशवाहाओं, मौर्याओं जैसी गैर-यादव जातियों को 119 सीटें दीं। राजभरों की छोटी सी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठजोड़ करके उसे 8 सीटें दीं। भाजपा ने 69 टिकट गैर-जाटव दलितों को दिए। इसी के साथ भाजपा ने सोची-समझी योजना के तहत उप्र की ऊंची जातियों को एक सामरिक चुप्पी थमा दी (द्विजों के बीच संघ के स्वयंसेवकों का प्रचार यह था कि मन ही मन वोट दीजिए, संयम रखिए अपनी वाणी पर।
प्रदेश के तीन हिस्सों (निचले दोआब, अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश) में भाजपा ने यादवों को गुंडों और उत्पीड़कों के रूप में दिखाया ताकि उनके खिलाफ ऊंची जातियों और अति-पिछड़ों और आरक्षण के लाभों से वंचित दलितों के वोट पाए जा सकें। 2015 में भाजपा के आला कमान ने सोच-समझ कर फैसला लिया था कि उप्र के पार्टी संगठन को ब्राह्मण-राजपूत-बनिया जकड़ से बाहर निकलना होगा।
इसके लिए एक निर्णायक कदम यह उठाया गया कि पार्टी के जि़ला अध्यक्षों की नियुक्ति के लिए मतदान की प्रक्रिया खत्म कर दी गई, और ज़ोर आम सहमति पर दिया गया, ताकि जि़ला अध्यक्ष के पद पर कब्जा करने वाली ऊंची जातियों की नेटवर्किंग बेअसर की जा सके।
ध्यान से देखने पर हम अवलोकन कर सकते हैं कि उप्र के अति-पिछड़े इस चुनाव में दो हिस्सों में बंटने वाले हैं। एक हिस्सा सामाजिक न्याय की पुरानी राजनीति के तहत गोलबंद होगा, और दूसरा संघ परिवार द्वारा समरसता की राजनीति के तहत अपनी मतदान प्राथमिकताएं तय करेगा। भाजपा से हुए दलबदल का सौ फीसदी लाभ न समाजवादी पार्टी को मिलेगा, न ही सौ फीसदी नुकसान भाजपा को उठाना पड़ेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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