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मुकेश भारद्वाज: भारत के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। आम जनता से अपील की जा रही है कि वे मतदान जरूर करें, यानी अपना पक्ष जरूर रखें। दूसरी तरफ, दुनिया के मंच पर भी एक निर्वाचन की प्रक्रिया चल रही है, जिसमें स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाले सभी देशों को अपना पक्ष रखना है। व्लादिमीर पुतिन वो रूसी नेता हैं जिन्होंने सोवियत संघ के विघटन के तीन दशक बाद पहली बार इसे बड़ी भौगोलिक त्रासदी बताया है। एकध्रुवीय दुनिया को चुनौती दे पुतिन ने भारत जैसे देश के लिए अपना पक्ष रखने की मजबूरी रख ही दी है। वह दौर खत्म हो चुका, जब भारत रूस के करीब था और अमेरिका से भी दूर नहीं था। नई दुनिया में अमेरिका का साझीदार बन चुके भारत का अभी तक यही पक्ष है कि उसका कोई पक्ष नहीं है। मिटा दिए जा चुके सोवियत के फिर से व्यक्त होने व अपना पक्ष रखने की उलझन से पैदा हो रहे हालात पर बेबाक बोल।
'युद्ध सबसे हर तरह की गारंटी छीन लेता है। यह सब होने से कौन रोक सकता है? मुझे यकीन है ऐसे लोग हैं। जाने-माने लोग, पत्रकार, संगीतज्ञ, अभिनेता, खिलाड़ी, डाक्टर, ब्लागर्स, मंचीय कलाकार, टिकटाकर्स और दूसरे लोग। आम लोग। साधारण लोग, मर्द, औरतें, बुजुर्ग, जवान, पिता और सबसे अहम माताएं। क्या रूस के लोग युद्ध चाहते हैं?'
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की ने एक वीडियो में रूस के लोगों से यह अपील इस बात की आशंका जताते हुए की कि इसे रूसी मीडिया नहीं दिखाएगा। दो विश्वयुद्ध के दुष्परिणाम झेल चुके इस विश्व के लिए जेलेंस्की का वीडियो थोड़ी देर के लिए भावुक करने वाला हो सकता है। लेकिन हम यह जानते हैं कि इस दुनिया को माताएं (अभिभावक पढ़ें) नहीं, वो लोग और उनके सहयोगी चलाते हैं जो अपने देश के नागरिकों के लिए युद्ध-शिक्षा अनिवार्य करते हैं, सारी महिलाओं को देश से चले जाने का हुक्म सुनाने के बाद मर्दों का युद्ध में जाना अनिवार्य कर देते हैं। जिनकी उंगलियों को दुनिया तबाह करने के लिए परमाणु बम के बटन दबाने का अधिकार है।
कुछ समय बाद वह पिता भुला दिया जाएगा जो युद्ध में जाने के पहले बेटी के गले लग जार-जार रो रहा था, वो बेटा भुला दिया जाएगा जो युद्ध क्षेत्र से वीडियो काल कर अपनी मां को रोते हुए विभिषिका बता रहा था। अपनी बेटी-मां के लिए ये रोते हुए मर्द इतिहास के पन्नों से बेदखल होंगे और याद किए जाएंगे वो जिसने पहला वार किया, वे नागरिक जिन्होंने पलटवार में हथियार उठाया। मारने और मरने वालों के बीच गुम हो जाएंगे वो रोने वाले मर्द। इन रोते मर्दों पर कोई कविता लिखी जाएगी जो इतिहास की किताबों का हिस्सा नहीं होगी। युद्ध के बाजार को रोते मर्द नहीं हथियार उठाए तानाशाह और नागरिक अच्छे लगते हैं। रोती स्त्री और लड़ते मर्द का उलटफेर युद्धउन्मादी होने नहीं देंगे।
भारत का एक युवा भावी डाक्टर मारा गया जो कल कई लोगों का जीवन बचा सकता था। दुनिया का इतिहास गवाह है कि युद्ध तो देश की सीमाओं के लिए शुरू होता है लेकिन एक बार शुरू होने के बाद वह किसी खास भूगोल तक सीमित नहीं रहता है। इसलिए जरूरी है कि युद्धरत समय में आप बिना अगर-मगर के मजबूत तरीके से अपना पक्ष रखें। कूटनीतिक पराक्रम और पाखंड के बीच महीन सी लकीर होती है। तय करना होगा कि जिम्मेदारियों के दस्तावेजीकरण के वक्त हम पाखंड के पाले में नहीं पकड़े जाएं।
से दो तरह की चीजें हो रही थीं। पहला नाटो संग अमेरिका यूक्रेन को युद्ध के लिए उकसा रहा था। दूसरा एक खेमा था जो खुद को दर्शक-दीर्घा में खड़े होकर देखना चाहता है। लेकिन किसी भी तरह के युद्ध में आप सिर्फ दर्शक नहीं हो सकते हैं। बर्बरीक महाभारत के युद्ध में सिर्फ दर्शक था, तब भी उसे अपना सिर कटवाना पड़ा था।
सोवियत संघ के विघटन के बाद आज के हालात आते हुए तीन दशक का एक पूरा चक्र घूम गया। सोवियत संघ के विघटन के बाद पुतिन पहले रूसी नेता हैं जिन्होंने साफगोई से उसे बड़ी भौगोलिक त्रासदी का नाम दिया। तीन दशक के चक्र में पहली बार दुनिया की एकध्रुवीयता को रूस की तरफ से चुनौती मिली है। इसलिए भारत जैसे देश के लिए भी अब यह बड़ी चुनौती है। दो ध्रुवीय दुनिया के हिसाब से भारत ने गुटनिरपेक्षता की जो नीति अपनाई थी, उस कारण उसे दोनों गुटों से फायदा मिला। सोवियत संघ उसका सबसे करीबी रहा और अमेरिका भी सहयोगी के रूप में दूर नहीं था। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जरिए दो ध्रुवीय दुनिया में भारत ने एक सम्मानित जगह बना ली थी।
सोवियत संघ के विघटन के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन अपने-आप में ही बेमकसद हो गया था। वैसे ही जैसे, नाटो का अस्तित्व भी बेमानी हो गया। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने नाटो की स्थापना ही साम्यवादी विचारधारा के विस्तार को रोकने के लिए की थी। उसके बाद जो एकध्रुवीय दुनिया बनी उसमें अमेरिका जैसे देश ने नवउदारवादी नीति को लेकर पूरी दुनिया के साथ हाथ मिलाया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन से जुड़े देशों को भी इसी के पीछे भागने के लिए मजबूर किया। दूसरी तरफ सोवियत संघ के विघटन से निकले हुए देशों को अपने साथ गोलबंद कर नाटो को मजबूत किया।
पिछले तीन दशक में अमेरिका ने अपनी स्थिति को काफी मजबूत किया। लेकिन इसी दौर में एक विरोधाभास देखने को मिलता है कि साम्राज्यवादी, पूंजीवादी ताकतों के बीच भी प्रतियोगिता बढ़ती है। खास कर चीन जो उसी के माडल के तहत एक बड़ी ताकत के रूप में उभरता है और रूस फिर से अपना दमखम दिखाता है। अभी इन दोनों की घेरेबंदी करने की अमेरिका फिर से पूरी कोशिश कर रहा है। एक बार फिर से अमेरिका नाटो के जरिए अपने एकध्रुवीय नियंत्रण को बनाने की पूरी कोशिश कर रहा है। लेकिन रूस और चीन प्रतिरोध की पूरी जमीन तैयार कर चुके हैं।
एकध्रुवीय साम्राज्य का चक्र यूक्रेन पर हमले के साथ पूरी तरह घूम चुका है। बात भारत जैसे देश के संकट की है। अमेरिका तो 'नई दुनिया' का दोस्त है ही लेकिन भारत को उन्नत हथियार रूस से ही मिलते हैं। अभी वह रूस के खिलाफ जाकर अपना नुकसान नहीं कर सकता है और न पूरी तरह अमेरिका के साथ खड़ा हो पा रहा है। इसका खमियाजा यूक्रेन में भारतीय विद्यार्थियों को भुगतना पड़ा। इतना ही नहीं इस 'किंकर्तव्यविमूढ़ता' वाली स्थिति के कारण भारतीय मीडिया भी अंतरराष्ट्रीय मैदान पर कोई पक्ष नहीं ले पा रहा है और उसमें भी वैचारिक भगदड़ सी स्थिति है।
यह तो सच है कि युद्ध की पीड़ित अंतत: जनता ही होगी, किसी का अभिमान नहीं। किसी की स्वाभाविक प्रतिक्रिया किसी के लिए घमंड का कारण बन सकती है। पुतिन का आरोप है कि अमेरिका को हमारे सिर पर बैठा दोगे तो हम कदम उठाएंगे ही। यही समस्या ताइवान और चीन के बीच की है। आज जरूरत इस बात की है कि पूरी दुनिया खुद को संयुक्त परिवार की तरह देखे और अपने-अपने हिस्से में रहे। एक-दूसरे की शक्तियों के अतिक्रमण का यह चक्र एक और विनाशकारी युद्ध की ओर घूम चुका है।
ताजा हालात ने एक बार फिर सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाओं की प्रासंगिकता पर सवाल उठा दिए हैं। इनका काम युद्ध को रोकना था। युद्ध को छिड़े दस दिन हो चुके हैं और ये मूकदर्शक के अलावा कुछ नहीं हैं। पिछले कई महीनों से युद्ध की जमीन तैयार की जा रही है। जेलेंस्की नागरिकों को हथियार पकड़ा कर पूरी दुनिया की सहानुभूति हासिल कर ही चुके हैं।
इक्कीसवीं सदी में उभरे अतिराष्ट्रवादी चाहे डोनाल्ड ट्रंप या बेंजामिन नेतन्याहू इन्होंने बहुविविधता वाली भावना को कुचला ही है। 1931 में जेम्स ट्रूस्लो एडम्स ने लोकतंत्र, अधिकार, स्वाधीनता और समानता का समुच्चय बना अमेरिकी सपने का नारा दिया था। 'अमेरिकन ड्रीम्स' सिर्फ अमेरिका का नहीं था बल्कि वहां से सैकड़ों मील दूर बैठे आदमी की आंखों में भी सजा हुआ था, जो धीरे-धीरे अमेरिका की एकध्रुवीय शक्ति के दुनिया के दादा बनने के मान के साथ खत्म हुआ।
पुतिन धमकी दे चुके हैं कि जो भी देश बीच में आएगा, वह खुद जिम्मेदार होगा। प्रतिबंध रूस पर लगे हैं लेकिन रूबल के साथ रुपया भी रूदन करेगा। केंद्र सरकार याद दिला चुकी है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी बाहरी देशों में अशांति के समय महंगाई को जायज ठहराया था।