- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- वंचित दुनिया का दुख
सोनम लववंशी: कुछ समय पहले एक सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी की पत्नी और एक पार्टी की राजनीति में सक्रिय महिला द्वारा अपनी घरेलू सहायिका पर आठ साल तक जुल्म ढाने की बात सामने आई। किसी तरह जब घटना सामने आई तो पुलिस ने उस घरेलू सहायिका को मुक्त कराया। देश भर में ऐसे कितने ही लोग हैं, जिन पर अत्याचार होता है, पर वे बोल नहीं पाते, क्योंकि उनके हक में कोई बोलने वाला खड़ा नहीं होता!
ऐसे में भले हम विकास की नई गौरवगाथा लिख रहे हों, एक सशक्त राष्ट्र बनने का दावा कर रहे हों, लेकिन अफसोसनाक है कि घरेलू कामगारों की दशा और दिशा आजादी के दशकों बाद भी नहीं बदली है। निचले तबके के लोगों के प्रति लोगों की सोच बहुत छोटी होती जा रही है, मानवीय मूल्यों में लगातार छीजन देखा जा रहा है।
झारखंड की चर्चा में आई घटना ने घरेलू कामगारों के बुनियादी अधिकारों पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सवाल उस पढ़े-लिखे समाज से भी है, जो अपने को सभ्य कहलाने में तो विश्वास रखता है, मगर उसका असली चेहरा कई बार इस हद तक क्रूर हो जाता है।
आखिर यह कैसी सभ्यता है कि एक दलित-पिछड़े तबके के व्यक्ति को परेशान करने में उच्च वर्ग के लोगों को संतोष मिलता है! हमें यह याद रखने की जरूरत है कि घरेलू कामकाज के लिए कोई व्यक्ति हंसी-खुशी तैयार नहीं होता।
मजबूरी में उन्हें अपना पेट भरने के लिए ऐसा काम चुनना पड़ता है। लेकिन अगर काम के बदले उचित मेहनताना नहीं मिलता और ऊपर से अत्याचार बर्दाश्त करना पड़ता है, तो यह एक त्रासदी तो है ही, उनके खिलाफ अपराध भी है।
हम अपने आसपास नजर दौड़ा कर देख सकते हैं कि समाज में आभिजात्य माने जाने वाले तबके का सार्वजनिक बर्ताव भी कमजोर वर्गों के लोगों के साथ कैसा होता है।
हाल ही की एक खबर के मुताबिक नोएडा में एक पढ़ी-लिखी महिला वकील ने सुरक्षा गार्ड की सिर्फ इसलिए पिटाई कर दी कि गार्ड ने दरवाजा खोलने में थोड़ा समय लगा दिया था।
एक अन्य घटना में महिला ने गार्ड को थप्पड़ मार दिया। ऐसी घटनाएं लगातार हमारे कथित सभ्य समाज पर प्रश्नचिह्न खड़े करती हैं। हमें यह सोचने की जरूरत है कि क्या एक गरीब व्यक्ति का मान-सम्मान नहीं होता!
काम के एवज में चंद पैसे देने वाले बड़े घरों के लोग कमजोर लोगों को नीचा दिखाने और उनके साथ बदसलूकी करने में तनिक देर नहीं लगाते। जबकि उन्हें पता होता है कि घर की सुरक्षा से लेकर साफ-सफाई तक सब यही कामगार करते हैं।
क्या यह एक आभिजात्य अहं की वजह से होता है? क्या इस तरह कुंठाओं के रहते कोई खुद के सभ्य होने का दावा कर सकता है?
देखा जाए तो यह सामंती मानसिकता का परिचायक है। आजकल बहुत सारे घरों में नौकर रखने का चलन तो बढ़ रहा है, लेकिन बिना किसी सुविधा के कम वेतन पर काम कराया जाता है। यहां तक कि कई बार बंधुआ मजदूर बना कर लोगों को रखा जाता है। घरेलू कामकाज को आज भी अन्य कामों की तरह नहीं समझा जाता।
यहां तक कि समाज में भी इस काम को कोई इज्जत नहीं दी जाती और इस काम की आड़ में सबसे ज्यादा किसी का शोषण होता है तो वे महिला कामगार हैं।
उनका आर्थिक और कई बार शारीरिक दोनों तरह से शोषण किया जाता है। ऐसे में भले सरकार ने घरेलू कामगार महिलाओं के अधिकारों के लिए 1959 में ही कानून बना दिया था, पर इसे व्यवहार में आज तक लागू नहीं किया गया।
आज भी समाज में घरेलू कामगारों की दयनीय स्थिति बनी हुई है। जबकि अगर ये कामगार घरों में काम करना बंद कर दें, तो बड़े-बड़े घरों और कोठियों में रहने वालों की सहज जिंदगी में आफत आ जाए। इन बड़े घरों के बच्चे समय से न स्कूल पहुंचेंगे और न नौकरी-पेशा वाले लोग काम पर।
जिस काम से तकरीबन छह करोड़ महिलाएं जुड़ी हुई हों और वे दलित-वंचित तबके से आती हों, उनके साथ उच्च-कुलीन वर्ग के लोग ऐसा व्यवहार करते हैं। यह सब उस संवैधानिक ढांचे वाले देश की स्थिति है, जहां बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने समानता और बराबरी की बात कही थी।
चलिए, एक दफा बराबरी के सपने अलग देखते हैं, लेकिन किसी का हक मारना और उससे कम करवाने के बाद उसे ही प्रताड़ित करना कहां का न्याय है और ऐसे बर्ताव का स्रोत क्या है?
कहते हैं कि मानव सेवा ही माधव सेवा है। ऐसे में सेवा करते नहीं बनता, तो कोई बात नहीं, लेकिन जो दूसरों के घर का सहारा बनते हैं, उनकी इज्जत और मान-सम्मान से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए और उनके काम के एवज में सम्मान और मेहनताना मिलना चाहिए। इसे सुनिश्चित करने का काम सरकार और सभ्य समाज दोनों का है।