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- अकाम कुछ तो आ काम
अंकल शेक्सपियर ने बिलकुल ठीक कहा था कि नाम में क्या धरा है। अगर हम गुलाब को कुछ और कहें तो भी उसकी सुगंध उतनी ही मधुर होगी। इसका अर्थ हुआ कि अकाम, अकाम ही रहेगा अर्थात् कामहीन या उदासीन। चाहे सरकार उसे आज़ादी का अमृत महोत्सव (अकाम) नाम ही क्यों न दे दे। बुज़ुर्ग कहते हैं कि कोई भी पर्व या महोत्सव तब कामहीन या उदासीन हो जाता है जब इसके ऊपर सरकारी ठप्पा लग जाए। पर जब सरकार ही अकाम का दूसरा रूप हो अर्थात् उदासीन हो और सत्ता या वोट प्राप्ति के अलावा समेकित और समावेशी विकास जैसी सभी प्रकार की लौकिक कामनाओं या वासनाओं से ऊपर उठ चुकी हो एवं वोट प्राप्ति के अलावा सभी कार्य निष्काम भाव से काम करती हो, जैन दर्शन के बरअक्स निर्जरा भाव से पूर्वकृत कर्मों को लोक कल्याण की आत्मा से अलग कर चुकी हो अथवा आवश्यकतानुसार अपने पुरुषार्थ से उन्हें लोकतंत्र की आत्मा से अलग करने में सक्षम हो तो उसके सारे कर्म, आम लोगों द्वारा सामूहिक रूप में भोगने के परिणामस्वरूप उसकी आत्मा से अपने आप झड़ जाते हैं। ऐसी सरकार हर पाँच साल बाद अपने कर्मों को अपनी आत्मा से झाड़ कर चुनाव के लिए ऐसे तैयार हो जाती है जैसे पानी में भीगने के बाद श्वान अपने बालों से पानी को झाड़ता है। लेकिन अकाम निर्जरा से कभी कर्मों का अंत नहीं किया जा सकता, इसीलिए सरकार हमेशा कर्म करती हुई प्रतीत होती है। कर्म आवश्यक हैं।