सम्पादकीय

अकाम कुछ तो आ काम

Rani Sahu
2 May 2022 7:14 PM GMT
अकाम कुछ तो आ काम
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अंकल शेक्सपियर ने बिलकुल ठीक कहा था कि नाम में क्या धरा है

अंकल शेक्सपियर ने बिलकुल ठीक कहा था कि नाम में क्या धरा है। अगर हम गुलाब को कुछ और कहें तो भी उसकी सुगंध उतनी ही मधुर होगी। इसका अर्थ हुआ कि अकाम, अकाम ही रहेगा अर्थात् कामहीन या उदासीन। चाहे सरकार उसे आज़ादी का अमृत महोत्सव (अकाम) नाम ही क्यों न दे दे। बुज़ुर्ग कहते हैं कि कोई भी पर्व या महोत्सव तब कामहीन या उदासीन हो जाता है जब इसके ऊपर सरकारी ठप्पा लग जाए। पर जब सरकार ही अकाम का दूसरा रूप हो अर्थात् उदासीन हो और सत्ता या वोट प्राप्ति के अलावा समेकित और समावेशी विकास जैसी सभी प्रकार की लौकिक कामनाओं या वासनाओं से ऊपर उठ चुकी हो एवं वोट प्राप्ति के अलावा सभी कार्य निष्काम भाव से काम करती हो, जैन दर्शन के बरअक्स निर्जरा भाव से पूर्वकृत कर्मों को लोक कल्याण की आत्मा से अलग कर चुकी हो अथवा आवश्यकतानुसार अपने पुरुषार्थ से उन्हें लोकतंत्र की आत्मा से अलग करने में सक्षम हो तो उसके सारे कर्म, आम लोगों द्वारा सामूहिक रूप में भोगने के परिणामस्वरूप उसकी आत्मा से अपने आप झड़ जाते हैं। ऐसी सरकार हर पाँच साल बाद अपने कर्मों को अपनी आत्मा से झाड़ कर चुनाव के लिए ऐसे तैयार हो जाती है जैसे पानी में भीगने के बाद श्वान अपने बालों से पानी को झाड़ता है। लेकिन अकाम निर्जरा से कभी कर्मों का अंत नहीं किया जा सकता, इसीलिए सरकार हमेशा कर्म करती हुई प्रतीत होती है। कर्म आवश्यक हैं।

इसलिए हर कल्याणकारी अकाम सरकार का यह प्रथम दायित्व है कि वह कर्म करती हुई प्रतीत हो तथा लोगों को धर्म, भाषा, जाति, रोजग़ार, सब्सिडी, सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद जैसे उच्च दर्शन के विषयों में हमेशा उलझाए रखे। यूँ तो स्वतंत्रता प्राप्ति के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर मनाए जा रहे आज़ादी का अमृत महोत्सव अर्थात् अकाम के नाम पर एक उलझाव तो भाषा के इस्तेमाल पर ही किया जा सकता था। हिंदी के शब्द स्वतंत्रता को छोड़ उर्दू के शब्द आज़ादी को महोत्सव साथ जोडऩे पर कम के कम एक माह तक सत्ता, विपक्ष और मीडिया के दलालों को आराम से काम मिल सकता था। जगह-जगह प्रदर्शन और रैलियां हो सकती थीं, टीवी पर डिबेट के अलावा अख़बारों में लेख छप सकते थे। जब फैज़़ जैसे दार्शनिक कवि की अमर रचनाओं को देश की पाठ्य पुस्तकों से हटाया जा सकता है तो ऐसे में आज़ादी शब्द का इस्तेमाल राष्ट्रवाद के 'खिलाफ क्षमा करें, विरुद्ध माना जाना चाहिए। सरकारी अधिसूचना में जिस किसी छोटे या बड़े बाबू ने इस शब्द का इस्तेमाल किया हो, उसके विरुद्ध राष्ट्रद्रोह का मुक़द्दमा तो बनता ही है। नहीं तो कम से कम उसे पाकिस्तान जाने की सलाह तो दी ही जा सकती है। ख़ैर! काम तो अकाम सभी को दे ही रहा है। सारा साल अकाम रहने वाले भारत सरकार के सभी मंत्रालय आज़ादी के पचहत्तरवें साल में आज़ादी का महोत्सव मनाने के लिए दिन-रात काम में डटे हुए हैं। करोड़ों ख़र्च कर, हर मंत्रालय अपने-अपने हिस्से के एक सप्ताह में देश भर में कहीं दौड़़-दौड़ कर तो कहीं उड़-उड़ कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है।
सरकारी मेहमान बने मंत्री से लेकर बाबू तक देश के सभी प्रांतों में बड़े उत्साह के साथ फाईव स्टार में आज़ादी का महोत्सव मना रहे हैं। कहीं भाषण हैं तो कहीं परिचर्चाएं, कहीं खेल प्रतियोगिताएं हैं तो कहीं सम्मान समारोह। देश में जगह-जगह घूमते मंत्रियों और बाबुओं को पहले ही पीठ सीधी करने का मौक़ा नहीं मिल पा रहा, ऊपर से बेचारे सम्मान समारोह में प्राप्त होने वाले उपहारों के बोझ से दबे जा रहे हैं। ऐसा नहीं कि इसमें आम आदमी शामिल नहीं हो रहे हैं और उन्हें आज़ादी का अमृत नहीं मिल रहा है। जिस आम आदमी को आज़ादी के अमृत महोत्सव में शामिल होने का अवसर मिल रहा है, उसे चाहे अल्फांसो नहीं तो टपका तो चूसने को मिल ही रहा है, चाहे गला हुआ ही सही।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं


Rani Sahu

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