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आज मैं मुंबई में हूं। 10 दिन का गणेशोत्सव आज संपन्न हो रहा है
एन. रघुरामन। आज मैं मुंबई में हूं। 10 दिन का गणेशोत्सव आज संपन्न हो रहा है और ये गीत 'गणपति बप्पा मोरया पुढच्या वर्षी लवकर या' (अगले बरस तू जल्दी आना) न सिर्फ मुंबई, बल्कि देश के कई हिस्सों में गूंज रहा होगा। पर हम सब जानते हैं कि भगवान कहीं नहीं जाते। वह घर के हर कोने में फ्रेम, मूर्तियों और कलाकृतियों के रूप में भी मौजूद हैं और जब भी हमारी उनसे नजरें मिलती हैं, सम्मान में हम सिर झुका लेते हैं।
अप्रत्यक्ष रूप से उनकी मौजूदगी हमारी चेतना को सदाचारी, ईमानदार और मेहनती बनने की राह दिखाती है। चूंकि युवा पीढ़ी जीते-जागते उदाहरण चाहती है या कम से कम ऐसे लोग जो हाल-फिलहाल रहे हों व नैतिकता के बावजूद असाधारण जीवन जिया हो। ऐसे में मुझे इंदौर के रमेश चंद्र दुबे याद आ रहे हैं। जब उनका पांचवां बेटा 9 साल का था, तब उन्होंने अपनी पत्नी को खो दिया। फिर मां की जिम्मेदारी निभाते हुए सबके लिए तब तक खाना पकाया, जब तक उनकी बहुओं ने रसोई नहीं संभाल ली।
सरकारी स्कूल में हेडमास्टर के तौर पर उन्होंने अपनी पेशेवर यात्रा शुरू की, बाद में वन विभाग में रेंजर चुने जाने पर ये नौकरी छोड़ दी। पर उसी जंगल को वह आसमान से देखना चाहते थे इसलिए इंदौर फ्लाइंग क्लब में ट्रेनी पायलट के तौर पर पुष्पक विमान उड़ाने का प्रशिक्षण लिया।
ऊंचाई से शायद उन्होंने कुछ गैरकानूनी हरकतें देखी होंगी, जिसके चलते पुलिस विभाग में स्टेशन ऑफिसर की नौकरी शुरू कर दी। हो सकता है कि वर्दी में अपने प्रदर्शन से वह नाखुश रहे हों, जिसके कारण उन्होंने बच्चों को पढ़ाने और उन्हें ईमानदारी व सत्यनिष्ठा का पाठ सिखाने के लिए कोचिंग शुरू कर दी। और ये सब करते हुए वह खुद को अपग्रेड भी करते रहे। अंग्रेजी में एमए किया, लॉ में ग्रैजुएशन और आयुर्वेद में डिग्री ली।
उन्होंने न सिर्फ हिंदी पट्टी के छात्रों को अंग्रेजी सिखाई बल्कि विदेशी छात्रों को हिंदी भी सिखाई। वह बहुत अधिकार से शैली, विलियम वर्ड्सवर्थ और कीट्स की कविताएं सुना सकते थे। वह चुपचाप काम करने वाले समाजसेवी थे, जिन्होंने बिना शोर-शराबे के कई छात्रों की फीस भरी। कुलमिलाकर उन्होंने दूसरों के लिए जीवन जिया, जिसमें उन्हें आनंद मिलता था।
उन्होंने जो सीखा उसे व्यर्थ नहीं गंवाया और जिला व सत्र अदालतों में 15 साल वकालत की। इतना ही नहीं, वह महान गणितज्ञ और हिंदी/अंग्रेजी हस्तलेखन में विशेषज्ञ थे। हमारे फिल्मी नायकों की तरह जो रूपहले परदे पर गिटार बजाकर गाते हैं, वह गायक/संगीतकार, कवि व लेखक होने के अलावा, 'दिलरुबा, सारंगी और जलतरंग' जैसे 20 से ज्यादा वाद्ययंत्र बजाते थे। बिल्कुल हीरो की तरह वह 7.5 एचपी की ट्रायंफ बाइक, कार और स्कूटर चलाते थे।
धर्म के मार्ग पर चलने वाले वह रुद्रपाठ के साथ-साथ घंटों संस्कृत बोल सकते थे। जब वो बूढ़े होने लगे, तो जैसे हम सब भी आत्मबोध चाहते हैं, उन्हें अपने ईश्वर को खुश करने में सुख मिला और गणेशजी का मंदिर बनाने के साथ पंजीकृत पुजारी बन गए। यहां तक कि कई 80 पार बुजुर्ग भी उन्हें पितातुल्य मानते थे क्योंकि वह खुद 90 पार कर चुके थे। एक कुशल प्रशासक दुबे ने कोरोना के दिनों में जरूरतमंदों को सामान बांटा, यहां तक कि इंदौर में 1 सितंबर 2021 को आखिरी सांस लेने से दो दिन पहले तक 93 साल की उम्र में वह दोपहिया चला रहे थे।
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