सम्पादकीय

वाद-विवाद में समाधान पीछे छूट जाते हैं, मानव समाज में संवाद शांति स्थापना और समृद्धि की पहली सीढ़ी है

Gulabi
14 Dec 2020 12:15 PM GMT
वाद-विवाद में समाधान पीछे छूट जाते हैं, मानव समाज में संवाद शांति स्थापना और समृद्धि की पहली सीढ़ी है
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हाल में नए संसद भवन की आधारशिला रखने के बाद मोदी ने कहा कि कुछ कहना और कुछ सुनना हमारे लोकतंत्र का प्राण है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। हाल में नए संसद भवन की आधारशिला रखने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि कुछ कहना और कुछ सुनना हमारे लोकतंत्र का प्राण है। वास्तव में किसी भी परिस्थिति में दूसरे पक्ष से संवाद बनाए रखने की हमारी यह परंपरा हर समस्या के समाधान का अचूक हथियार रही है। देखा जाए तो समस्या समाधान की कुशलता किसी भी व्यक्ति, समूह या राष्ट्र की प्रगति का सबसे महत्वपूर्ण संबल बनती है। जिन जीवन कौशलों को सिखाने का प्रयास परिवार, समाज और शिक्षा करते हैं, उसमें इसके महत्व को सदा स्वीकारा जाता रहा है। स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा संस्थान समस्या समाधान की कुशलता को बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के आयोजन करते रहते हैं। इसमें देश-विदेश के इतिहास पुरुषों के विचारों और योगदान का अध्ययन करना, उसकी विवेचना करना और उनकी समसामयिक संदर्भिता का अध्ययन आवश्यक माना जाता है। दरअसल विभिन्न विचारधाराओं के श्रेष्ठ व्यक्तियों को आमंत्रित करना, उनके विचारों को सुनना, प्रश्न पूछना और तदुपरांत स्वाध्याय तथा मनन-चिंतन से उन्हेंं गहराई तक समझने का प्रयास करना व्यक्तित्व विकास का आवश्यक अंग बन जाता है। ऐसे सारे प्रयासों से सहमति के स्वर प्रस्फुटित होते हैं, विरोधी विचारों का सम्मान करना सीखा जाता है। यही आगे चलकर जीवन को सार्थक बनाने में सहायक होते हैं।





शीर्ष शिक्षा संस्थान हर प्रकार की वैचारिकता-विकास के प्रखर केंद्र होने चाहिए

हालांकि कई अवसरों पर पूर्वाग्रहों के कुहासे में यह प्रक्रिया बाधित भी हो जाती है। परिणामस्वरूप अविश्वास, अतार्किकता तथा वैमनस्य हावी हो जाते हैं। इससे मिलकर रहना, सीखना और आगे बढ़ने की संभावनाएं आहत हो जाती हैं। इसमें दो मत नहीं कि देश के शीर्ष शिक्षा संस्थान हर प्रकार की वैचारिकता-विकास के प्रखर केंद्र होने चाहिए। जब भी यह संभावना अंतर्कलह तथा अपरिपक्व निर्णय क्षमता से ग्रसित हो जाती है, तब इसके दीर्घकालीन नकारात्मक परिणाम निकलते हैं जो देश की प्रगति और बौद्धिक संपदा के विकास की गति को शिथिल करते हैं।


विवाद और वैमनस्य की कुसंस्कृति किसी भी देश के लिए न तो कभी हितकारी हुई है, न हो सकेगी

पिछले दिनों जेएनयू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया। कुछ लोगों को यह रुचिकर नहीं लगा। क्या विवेकानंद को बिना पढ़े, समझे भारत को समझा जा सकता है? उन्होंने जो कार्य देश की प्रतिष्ठा बढ़ाने और युवाओं को बिना किसी भेदभाव के सेवा कार्य में जीवन लगाने की प्रेरणा दी, उसे तो वैश्विक स्तर पर सराहा जाता है। हमें याद रखना चाहिए कि विवाद और वैमनस्य की कुसंस्कृति किसी भी देश के लिए न तो कभी हितकारी हुई है, न हो सकेगी। देश और अंतिम पंक्ति में खड़े कोटि-कोटि लोगों की अपेक्षाओं की र्पूित की संभावना तो संवाद की संस्कृति से ही संभव होगी। गांधी जी जीवनपर्यंत हर विरोधी विचार वाले से संवाद स्थापित करने को उत्सुक रहे। वह 'मोहम्मद अली जिन्ना के अपवाद के अतिरिक्त' सभी के साथ सफल भी रहे। आज शिक्षा केंद्रों को वाद, विवाद और संवाद पर गहराई से विचार कर संभावना और सहमति की संस्कृति की ओर बढ़ने की महती आवश्यकता है। इसके लिए सबसे उपयुक्त देश तो भारत ही है।

समृद्ध ज्ञान परंपरा के विकास के कारण ही प्राचीन भारत ज्ञान का वैश्विक केंद्र बना था

एक समृद्ध ज्ञान परंपरा के विकास के कारण ही प्राचीन भारत ज्ञान का वैश्विक केंद्र बना था। यहां ज्ञान प्राप्ति के लिए देश-विदेश से आने वाला प्रत्येक व्यक्ति सबसे पहले यह सीखता था कि ज्ञान सागर में आगे बढ़ने के पथ पर 'प्रश्न-प्रतिप्रश्न-परिप्रश्न' में भागीदारी ही उसकी नैर्सिगक प्रतिभा को पूर्णरूपेण प्रस्फुटित करेगी। सभाओं, गोष्ठियों में वह इनके उच्च स्तरीय स्वरूप का अवलोकन करता और उचित समय पर उसमें भागीदारी भी करता था। संवाद परंपरा का सबसे चर्चित उदाहरण गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर और शंका समाधान माना जाता है। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ भी अपने में अद्भुत प्रसंग है।

संवाद में असफलता तभी हो सकती है जब एक पक्ष पूरी तरह पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो

महाभारत में श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के पास पांडवों का दूत बनकर जाना और श्रीराम का अंगद को रावण के दरबार में भेजना शांति के लिए किए गए दो ऐसे प्रकरण हैं जो संवाद में गहरी निष्ठा रखने के कारण ही घटित हुए। ये दोनों असफल रहे, मगर यह संदेश दे गए कि दो विरोधी पक्षों के बीच शांति स्थापना के प्रयास करने चाहिए। इसका सबसे सशक्त मार्ग संवाद ही है। संवाद में असफलता तभी हो सकती है जब एक पक्ष पूरी तरह पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो और संवाद में भागीदारी मजबूरी या बिना इच्छा से कर रहा हो। श्रीकृष्ण-अर्जुन और शंकराचार्य-मंडन मिश्र में संवाद पूर्वाग्रहों से आच्छादित नहीं था, अत: सफल रहा। मगर श्रीकृष्ण-धृतराष्ट्र/दुर्योधन और अंगद-रावण में यह एकतरफा था, अत: असफल रहा।

आधुनिक अवधारणा से जो व्यवस्था देश की मिट्टी में जड़ें जमाकर विकसित हुई थी, वह मुरझा गई

वैशाली और लिच्छवी के गणराज्यों से लेकर आज की ग्राम सभाओं, पंचायतों तक संवाद की परंपरा कायम रही है। हालांकि जैसे-जैसे मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का ह्रास जीवन के हर पक्ष में बढ़ा है, उसका प्रभाव संवाद की इन परंपरागत संस्थाओं पर भी दिखाई दे रहा है। यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संवाद के द्वारा समस्या समाधान, नीति निर्धारण, व्यवस्था संशोधन जैसे कार्यों के निष्पादन को बच्चे और युवा भी देखते थे, सीखते थे और अपने सामाजिक उत्तरदायित्व निर्वहन के लिए तैयार होते थे। इस बीच प्रगति और विकास की आधुनिक अवधारणा पश्चिम से भारत में आई। परिणामस्वरूप जो व्यवस्था यहां की मिट्टी में अपनी जड़ें जमाकर पुष्पित, पल्लवित और विकसित हुई थी, वह मुरझा गई। उसी का परिणाम आज पंचायत, जिला परिषद, नगरपालिका, नगर-निकाय, विधानसभा तथा संसद के क्रियाकलापों तक में देखा जा सकता है। इनमें लंबी-लंबी बहसें होती हैं। विषय कुछ होता है, परंतु भाषण किसी और संदर्भ में होता है। अत: किसी सकारात्मक परिणाम निकालने की तो अपेक्षा ही व्यर्थ हो जाती है। यहां तक कि वैश्विक स्तर पर भी कितनी ही बैठकें पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, नि:शस्त्रीकरण, ओजोन परत, प्रदूषण, पेयजल-संकट जैसे विषयों पर होती रहती हैं, मगर हर बार अगली बैठक की तिथि सुनिश्चित कर दी जाती है।

वाद-विवाद में उलझने पर संभावनाएं, सहमति और समाधान पीछे छूट जाते हैं

वाद-विवाद में उलझने पर संभावनाएं, सहमति और समाधान पीछे छूट जाते हैं। मानव समाज में संवाद शांति स्थापना की पहली सीढ़ी है। इसे बढ़ाने के प्रयासों को अविश्वास, हिंसा और युद्ध से मुक्ति पाने की ओर पहला कदम माना जाना चाहिए।


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