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वर्ष 1909 में ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक में गांधी ने लिखा था कि सही स्वराज केवल तब ही संभव होगा
ज्यादातर महिलाएं इन समस्याओं को चुपचाप सहती रहती हैं क्योंकि इनके इलाज के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में कोई सुविधाएं नहीं हैं और निजी चिकित्सक पहुंच से बाहर हैं…
वर्ष 1909 में 'हिंद स्वराज' पुस्तक में गांधी ने लिखा था कि सही स्वराज केवल तब ही संभव होगा जब देश का विकास स्थानीय तकनीक पर आधारित ग्राम स्वराज पर टिका होगा। इसके लिए गांधी ने 'नई तालीम' नामक एक नई शिक्षा व्यवस्था की बात की थी जिसमें शिक्षा ग्राम स्वराज से ओतप्रोत थी। बाद में इन विचारों को और विस्तार देते हुए अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा ने एक ग्राम आधारित शाश्वत अर्थ व्यवस्था की कल्पना की थी। दुर्भाग्यवश वर्ष 1947 में स्वराज प्राप्ति के बाद गांधी के इन विचारों को दरकिनार कर दिया गया एवं शहर केन्द्रित औद्योगिक विकास आधारित अर्थव्यवस्था लागू कर दी गई। कहा गया कि शहरी केन्द्रों और उद्योगों में किया गया पूंजी निवेश अपने आप नीचे रिसते हुए गांव तक पहुंचकर कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधार देगा।
भारत में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रमुख रूप से अंग्रेजी कुशासन के कारण पिछड़ गए थे। अंग्रेजों ने न केवल कृषि से वसूले जाने वाले कर को बहुत अधिक कर दिया, बल्कि इसको वसूलने की जिम्मेदारी जमींदारों और व्यापारियों को दे दी। इसका फायदा उठाकर जमींदार और व्यापारी अत्यधिक कर तो वसूलते ही थे, ऊपर से भारी ब्याज पर किसानों को कर्ज भी देते थे। इस प्रकार कृषि और कृषक दोनों बदहाल हो गए। इस बात की पुष्टि एक अंग्रेज कृषि-विशेषज्ञ वॉलकर ने भी अपने शोध प्रतिवेदन में की थी। उनका कहना था कि हजारों वर्षों से भारत के किसान जो कृषि पद्धति अपनाए हुए हैं, वह उत्तम कोटी की है और समस्या केवल अत्यधिक कर वसूली और उधारी की ही है। हस्तकरघा और अन्य हस्तशिल्प भी इसी प्रकार तकनीक में अव्वल थे, पर अंग्रेजी शासन की विपरीत नीतियों के कारण सही विकास नहीं कर पा रहे थे। स्वतंत्रता के बाद हमें गांधी की सलाह पर गांव को विकास का केन्द्र मानकर पारंपरिक कृषि, हस्तकरघा एवं अन्य हस्तशिल्पों को प्रोत्साहित करना चाहिए था एवं इसे क्रियान्वित करने के लिए व्यापक पैमाने पर नई तालीम की व्यवस्था करनी चाहिए थी। इसके प्रबंधन का अधिकार ग्रामसभाओं को दिया जाना चाहिए था एवं गांधी के अनुसार केवल ग्रामसभाओं द्वारा अनुमति दिए गए क्षेत्रों में ही राज्य और केन्द्र की सरकारों को कार्य करना था। यानी ऊपर से नीचे रिसने वाली अर्थव्यवस्था की बजाय एक ग्राम केन्द्रित नीचे से ऊपर की व्यवस्था होनी चाहिए थी। परंतु न तो इस पंचायती राज को मूलभूत अधिकारों में शामिल किया गया और न ही ग्रामीण रोजगार और नई तालीम को।
नतीजे में आज भारत अस्वस्थ, बेरोजगार एवं तालीम-रहित 135 करोड़ लोगों का देश है जहां अपार गरीबी और भुखमरी फैली हुई है। देश के सही विकास और स्वराज के लिए यह आवश्यक है कि हम गांधी की विरासत को याद कर उनके द्वारा सुझाए गए ग्राम स्वराज के कार्यक्रम को वर्तमान संदर्भों में लागू करें। इसके लिए निम्न पारिस्थितिक रूप से स्थायी और समाजार्थिक दृष्टि से न्यायपूर्ण विकास प्रणाली लागू करनी होगी। वनीकरण : जंगल कार्बन को सोखने में सर्वश्रेष्ठ परिणाम देते हैं और ऑक्सीजन के भी सबसे बड़े उत्पादक हैं। वे कृषि के लिए पोषक तत्व भी प्रदान करते हैं क्योंकि पेड़ों के पत्ते झड़कर बहुत अच्छी खाद बन जाते हैं। इसके अलावा वे मिट्टी को संरक्षित करते हैं और उसका क्षरण होने से रोकते हैं। वन न केवल वर्षा को आकर्षित करते हैं, बल्कि पानी के बहाव को रोककर जमीन में पुनर्भरण करते हैं। नतीजे में वर्षा न होने पर वर्ष भर नदियों में जल-प्रवाह सुनिश्चित रहता है। वनीकरण एक बहुत ही महत्वपूर्ण गतिविधि है। भारत में बंजर भूमि पर बरसात के मौसम में लगाए जाने वाले पौधे ग्रीष्मकाल की शुष्क गर्मी का सामना नहीं कर सकते। इसलिए ऐसी बंजर जमीनों की पशुओं की चराई से रक्षा करना आसान है, ताकि इनमें बचे हुए पेड़ों की जड़ से फिर से जंगल बन सकें। मृदा और जल-संरक्षण ः वनों की कटाई और मिट्टी के कटाव की अधिकता को देखते हुए सिर्फ वनीकरण ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए मिट्टी और जल-संरक्षण का काम भी किया जाना चाहिए। आदर्श रूप से यह 'सूक्ष्म जलक्षेत्रों' में किया जाना चाहिए ताकि कुल मिलाकर नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों को सूखा और बाढ़ से मुक्त किया जा सके। जलक्षेत्र की सबसे ऊंची जगह से यह कार्य शुरू होना चाहिए और इसे नीचे जल निकासी के नाले तक ले जाना चाहिए। इसमें मिट्टी रोकने के ढलानों पर पत्थरों के मेड, छोटे नालों में पत्थरों के छोटे बांध और मुख्य नाले में पानी रोकने के चेक डैम बनाए जा सकते हैं। नवीकरणीय ऊर्जा ः केन्द्रीकृत ऊर्जा उत्पादन और फिर इसका वितरण, आर्थिक और पारिस्थिकीय, दोनों दृष्टि से एक महंगा मामला है और भारत में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत कम होने का एक बड़ा कारण है।
इसलिए विकेन्द्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा का विकास बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इसमें सौर, पवन, जैव-मिथेनेशन, बायोमास के गैसीकरण से उत्पादित ऊर्जा शामिल हैं। जल संरक्षण ः वर्तमान में एक बड़ी समस्या पीने योग्य पानी की भारी कमी और अपशिष्ट जल के अशोधित निपटान की है। इसलिए जल-आपूर्ति को जल-पुनर्भरण और संचयन के माध्यम से बढ़ाने का अत्यधिक महत्व है। इसके साथ ही अपशिष्ट जल और मल का उपचार और पुनः उपयोग भी आवश्यक है। साथ ही जैविक रसोई कचरे से खाद और ऊर्जा का उत्पादन स्वच्छता और ऊर्जा की मांग को पूरा कर सकता है। स्थायी कृषि ः रासायनिक कृषि अपनी उत्पादक और पारिस्थितिक सीमा तक पहुंच गई है और उससे आमदनी में कमी आ रही है, जबकि लागत बढ़ रही है। इस पद्धति की कृषि में पानी की मांग में भारी वृद्धि हुई है जिसके परिणामस्वरूप पानी का संकट बढ़ गया है। एक या दो संकरित नस्ल की किस्मों पर आधारित यह कृषि जैव-विविधता में भारी गिरावट का कारण बन गई है और इन पर कीटों के हमलों में वृद्धि आई है। इसलिए आज जैविक संसाधनों, जैसे कि गीली घास, खाद और स्वदेशी बीजों की किस्मों और जल-संचयन पर आधारित कृषि की आवश्यकता है। इससे खाद्यान्नों में पोषक तत्व बढ़ेंगे और हानिकारक रसायन कम होंगे। सामुदायिक सहयोग ः उक्त विकेन्द्रीकृत प्रौद्योगिकियों को ठीक से लागू करने के लिए सक्रिय सामूहिक कार्रवाई की ज़रूरत है जिसे निम्न पद्धतियों से सुनिश्चित किया जा सकता है। समस्या विश्लेषण की कार्यशालाएं, जिसमें लोग समस्याओं को रेखांकित कर उन समस्याओं का समाधान सामूहिक रूप से ढूंढें। कानून और अधिकार प्रशिक्षण कार्यशालाएं, जिसमें लोगों को भारत की आधुनिक पूंजीवादी उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था के बारे में बताया जाए।
सार्वजनिक प्रदर्शनों और धरनों के द्वारा अधिकारों के लिए सामूहिक कार्रवाई। श्रम और संसाधन को एकत्रित करने वाले पारंपरिक रीति-रिवाजों को पुनर्जीवित करना। महिलाओं की बैठकें आयोजित करना, उन्हें संसाधन संरक्षण कार्य और सार्वजनिक प्रदर्शनों में शामिल होने एवं पितृसत्ता का मुकाबला कर समाज और परिवार में अपनी स्थिति में सुधार करने के लिए आगे आना। शिक्षा, स्वास्थ्य, बाल संरक्षण, सांस्कृतिक पुनरुत्थान, जैविक कृषि और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में व्यापक स्तर पर सामूहिक कार्रवाई करना। कानून और नियमों को लोगों के पक्ष में बदलने के लिए कार्यवाही करना। महिलाओं की भागीदारी ः पितृसत्ता महिलाओं और लड़कियों की रचनात्मकता और स्वतंत्रता को रोकती है और इसलिए महिलाओं की भागीदारी के बिना इसका मुकाबला नहीं हो सकता है। महिलाओं के लिए एक बड़ी समस्या श्रम के प्रतिकूल लिंग विभाजन और बार-बार होने वाले प्रसव तथा बच्चों की देखभाल का बोझ है। यह महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। ज्यादातर महिलाएं इन समस्याओं को चुपचाप सहती रहती हैं क्योंकि इनके इलाज के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में कोई सुविधाएं नहीं हैं और निजी स्त्री-रोग चिकित्सक इन महिलाओं की पहुंच के बाहर हैं। इसलिए महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए पितृसत्ता पर प्रहार आवश्यक है। नई तालीम ः सभी मुद्दों को शामिल कर एक नई तालीम का आकल्पन कर सभी को प्रशिक्षित करना। -(सप्रेस)
राहुल बनर्जी,
स्वतंत्र लेखक
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