सम्पादकीय

छोटी-बड़ी राहतों में छिपा समाधान

Rani Sahu
26 Nov 2021 4:11 PM GMT
छोटी-बड़ी राहतों में छिपा समाधान
x
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के प्रदर्शन को एक साल हो गए

सोमपाल शास्त्रीराष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के प्रदर्शन को एक साल हो गए। इस एक वर्ष में किसान आंदोलन ने काफी कुछ देखा। सुखद है कि तमाम दुश्वारियों के बावजूद यह अब एक सफल आंदोलन में शुमार हो गया है। आजादी के बाद भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में सभवत: यह एकमात्र ऐसा आंदोलन है, जो इतना लंबा चला और जिसने सफलता हासिल की। निस्संदेह, इसमें मूलत: पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की ही प्रत्यक्ष भागीदारी रही, लेकिन अपने देश का इतिहास भी यही है कि किसानों के आंदोलन प्राय: इन्हीं इलाकों तक सीमित रहे हैं। अरसा पहले सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में गुजरात में और शरद जोशी के नेतृत्व में महाराष्ट्र में कुछ सकारात्मक काम जरूर हुआ था, लेकिन स्वतंत्रता के बाद किसान आंदोलन हमेशा उत्तर भारत के इन्हीं क्षेत्रों तक सीमित रहे हैं। दक्षिण के किसानों से इसकी भौतिक दूरी रही, लेकिन मानसिक रूप से देश भर के किसान इसके साथ थे, और सभी इसमें अपना हित देख रहे हैं।

अब जब सरकार ने तीनों कृषि कानूनों की वापसी का एलान कर दिया है, तब न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी की मांग तेज है। हालांकि, मैं हमेशा आंदोलनकारी संगठनों और किसानों की इस बारे में आलोचना करता रहा कि उन्हें कानून वापसी पर इतना जोर नहीं देना चाहिए था, जितना एमएसपी की कानूनी गारंटी पर। अगर एमएसपी की गारंटी मिल जाती है, तो ये कानून रहें अथवा न रहें, ये बेमतलब ही साबित होते। इसीलिए एमएसपी की कानूनी गारंटी ही मुख्य मांग होनी चाहिए थी। इसके साथ-साथ कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को सांविधानिक दर्जा भी दिया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि कई बार सरकारें कानून की अवहेलना करती हैं, जिसका एक बड़ा उदाहरण 1950 के दशक का गन्ना क्रय अधिनियम है। इस कानून के मुताबिक, गन्ना खरीद पर 14 दिनों के अंदर भुगतान अनिवार्य है और अगर किसानों को इस अवधि में पैसे नहीं मिलते, तो उनको बकाया रकम पर 12 प्रतिशत का ब्याज दिया जाएगा। इस कानून की सांविधानिकता को कुछ चीनी मिलों ने चुनौती दी थी, लेकिन 23 अप्रैल, 2020 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अंतिम निर्णय में राज्य परामर्शित मूल्य, जो प्राय: केंद्र परामर्शित मूल्य से अधिक होता है, की वैधानिकता सुनिश्चित की और 12 प्रतिशत ब्याज के प्रावधान को सांविधानिक माना। फिर भी, गन्ना किसानों को समय पर भुगतान नहीं किया जा रहा है।
साफ है, महज कानून से बात नहीं बनेगी। उसकी निगरानी के लिए एक तंत्र बनाना होगा। जब कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को सांविधानिक दर्जा मिल जाएगा, तो एमएसपी की कानूनी गारंटी की खुद-ब-खुद निगरानी हो सकेगी। यह करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि देश में छोटे किसानों की संख्या 86 प्रतिशत है। हालांकि, 10 हेक्टेयर, यानी 25 एकड़ से कम रकबे वाले किसानों की सख्या तो 99.6 प्रतिशत है। यानी, सिर्फ 0.4 प्रतिशत किसान 10 हेक्टेयर या इससे अधिक की मिल्कियत रखते हैं। स्वाभाविक है कि इन छोटे व सीमांत किसानों के पास इतने साधन नहीं हैं कि वे सरकार के खिलाफ अदालतों में जाएं। लिहाजा, न्यायिक प्राधिकरण ही इसका एकमात्र उपाय है, जहां महज एक आवेदन से किसानों का काम बन सके।
इसी तरह, एमएसपी की विसंगति को दूर करना भी अनिवार्य है। अभी सिर्फ 23 फसलों के लिए सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है। इसका नुकसान यह होता है कि किसान उन फसलों के ही हिमायती होते हैं, जिन पर उनको सुरक्षा मिलती है। यह सुरक्षा केवल धान और गेहूं, और कुछ हद तक गन्ना व कपास पर ही हासिल है। यदि बाकी तमाम फसलों पर भी सुरक्षा मिले, तो किसान उनको भी खुशी-खुशी पैदा करेगा। इससे फसलों का स्वरूप भी बदल जाएगा, और दालें व खाद्य तेल, जो हमें आयात करने पड़ते हैं, देश में ही बहुतायत में उगाए जा सकेंगे।
हालांकि, बातें एमएसपी से आगे की भी होनी चाहिए। आलोचक तर्क देते हैं कि धान, गेहूं, गन्ना जैसी फसलें अपने देश में ज्यादा उगाई जाती हैं, इनमें पानी की खपत ज्यादा होती है, और पर्यावरण पर इनका प्रतिकूल असर भी पड़ता है। इन सब सवालों का जवाब फसलों का विविधिकरण है। फल, सब्जियां भी भरपूर उगाई जानी चाहिए। मगर अभी होता यह है कि जब इनका भाव गिरता है, तब किसान इनको फेंकने के लिए मजबूर होते हैं। इसीलिए, कभी टमाटर, कभी गोभी, तो कभी आलू आदि सड़कों पर फेंकने की खबरें सुर्खियां बनती रहती हैं। इससे बचने का एक रास्ता यह हैकि सरकार बेशक इन्हें न खरीदे, मगर इन फसलों की लागत का आकलन करके मंडियों में इनकी न्यूनतम बोली जरूर तय करे। अभी पैदावार ज्यादा होने पर औने-पौने दाम पर मिल मालिक या खाद्य प्रसंस्करण वाली कंपनियां किसानों से ये फसलें खरीदती हैं। मगर जब इनकी बोली सरकार तय करने लगेगी, तब इन किसानों को अपनी फसलों की न्यूनतम कीमत जरूर मिलेगी।
रही बात संग्रहणीय, यानी गेहूं, सरसों, दाल जैसे भंडारण किए जाने वाले उत्पादों की, तो ये अनिवार्य वस्तुएं हैं, इसलिए इनकी निजी खरीद तो होगी ही। सरकार लागत के मुताबिक इनकी बोली लगाए और अपने सूचना तंत्र द्वारा उनका प्रचार करे। हां, जब मिल मालिकों की खरीद के बाद उपज बच जाएं, तो सरकार उन्हें खरीद सकती है, जिससे उस पर अधिक से अधिक एक लाख करोड़ रुपये का बोझ पड़ सकता है। हालांकि, यह बोझ भी नगण्य हो सकता है। सरकार ऐसा कोई प्रावधान बना सकती है, जिसके तहत फसल एक बार सरकारी गोदाम में आ गई, तो मिल मालिक या कंपनियां तभी उनको खरीद सकेंगी, जब हर बीतते महीने के साथ वे दो प्रतिशत की अतिरिक्त कीमत चुकाएंगी।
इस गुणा-भाग की अच्छी बात यह है कि इससे उपभोक्ताओं पर नाममात्र का भी बोझ नहीं पड़ेगा। जब खेत में फसल के दाम काफी कम रहते हैं, तब भी उपभोक्ता तय कीमत पर ही बाजार में उनकी खरीदारी करते हैं। उनके लिए दाम कम नहीं होते। मगर जब सरकार एमएसपी की कानूनी गारंटी के साथ कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को सांविधानिक दर्जा दे देगी और मंडियों में तमाम फसलों की बोली लगाई जाने लगेगी, तब किसानों को जरूर आर्थिक फायदा होगा। सब्जी और फल के विषय में केरल सरकार रिजर्व बोली के प्रावधान लागू कर ही चुकी है।


Next Story