सम्पादकीय

आभासी दुनिया में समाज

Subhi
31 Aug 2022 4:39 AM GMT
आभासी दुनिया में समाज
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आज की आभासी दुनिया क्या वास्तव में समाज और परिवार के अंत की तैयारी है? क्या लोग परिवार, विवाह, रिश्तेदारी जैसी अनौपचारिक संस्थाओं से इतना त्रस्त हो चुके हैं

ज्योति सिडाना: आज की आभासी दुनिया क्या वास्तव में समाज और परिवार के अंत की तैयारी है? क्या लोग परिवार, विवाह, रिश्तेदारी जैसी अनौपचारिक संस्थाओं से इतना त्रस्त हो चुके हैं कि उनका इन संस्थाओं पर से विश्वास उठ गया है, या फिर ये सामाजिक संस्थाएं जिन भूमिकाओं का निर्वहन करने के लिए निर्मित की गई थीं, उनका सही से निर्वहन कर पाने में असमर्थ हो गई हैं?

सूचना क्रांति और तकनीकी विकास ने एक कृत्रिम दुनिया खड़ी कर दी है। एक ऐसी दुनिया जहां कुछ भी वास्तविक नहीं है, सब कुछ आभासी। कृत्रिम समाज, कृत्रिम मनुष्य, कृत्रिम रिश्ते, कृत्रिम भावनाएं, कृत्रिम बुद्धि, कृत्रिम सुंदरता और यहां तक कि कृत्रिम जीवन, कृत्रिम सांसें और ऐसी ही हंसी भी। इसका ही नतीजा है कि आभासी वस्तुओं के साथ रहते हुए मनुष्य वास्तविक जीवन से दूर होता जा रहा है। आभासी दुनिया में हर चीज अस्थायी है, यहां तक कि सामाजिक और निकट संबंध भी अस्थायी और बनावटी होते जा रहे हैं। जब तक उपयोगी हैं इन संबंधों का इस्तेमाल करो, जब जरूरत न रह जाए, इन्हें खत्म कर दो।

दरअसल आज जीवन कंप्यूटर के एक क्लिक की तरह आसान हो गया है। एक क्लिक पर मनचाही चीजें आपके पास पहुंच जाती हैं। कह सकते हैं कि नई से नई प्रौद्योगिकी यानी कंप्यूटर, स्मार्टफोन आदि आधुनिक दुनिया के ऐसे जिन हैं जो इच्छा जाहिर करते ही अपने आका का हुक्म पूरा करने को तैयार रहते हैं। अंतर केवल इतना है कि पहले का जिन सिर्फ दादी-नानी की कहानियों में ही होता था, जबकि आज का आधुनिक जिन वास्तविक दुनिया का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। समाज विज्ञानी हेबरमास ने कहा भी है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुई अप्रत्याशित प्रगति के कारण तार्किकता का महत्त्व दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है।

अब मनुष्य की तार्किकता उसे लक्ष्यों की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित नहीं करती, अपितु केवल साधनों को एकत्र करने में सहायता करती है। इसी का परिणाम है कि मनुष्य द्वारा निर्मित आधुनिक तकनीक ने स्वयं मनुष्य को ही अपना गुलाम बना लिया है। दुर्भाग्य तो यह है कि आधुनिक मनुष्य स्वयं को पूर्व की तुलना में अधिक स्वतंत्र मानने लगा है, जबकि हकीकत यह है कि वह पहले से भी कहीं अधिक पराधीन होता जा रहा है।

यहां कुछ समय पहले की एक घटना का जिक्र करना प्रासंगिक ही होगा। असम के एक नवविवाहित दंपति ने अपने विवाह समारोह के बाद एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस अनुबंध में दोनों ने कुछ शर्तें निर्धारित कीं, जैसे महीने में केवल एक पिज्जा खाना, हमेशा घर के खाने को हां कहना, प्रतिदिन साड़ी पहनना, देर रात पार्टी करने की सहमति परंतु केवल एक दूसरे के साथ, प्रतिदिन जिम जाना, रविवार की सुबह का नाश्ता पति द्वारा बनाया जाना, हर पंद्रह दिन में खरीदारी आदि।

हैरत की बात है कि संबंधों में इतनी कृत्रिमता और अविश्वास कि लिखित में समझौता करने की आवश्यकता अनुभव होने लगे! कुछ समय पहले भी एक महानगर में इसी तरह की घटना हुई थी जिसमे विवाह समारोह में फेरे लेते समय वर-वधु ने ऐसे अनुबंध की बात की जिसके अनुसार वे छह महीने तक साथ रहेंगे और अगर उनमें नहीं बनी तो वे बिना किसी कानूनी कार्यवाही के पारस्परिक सहमति से अलग हो जाएंगे। एक समय था जब विवाह को संस्कार और पवित्र बंधन माना जाता था, आज वही विवाह नाम की संस्था आधुनिक समाज में हाशिए पर आ गई है। यह आभासी दुनिया की ही देन है।

दो-तीन वर्ष पूर्व चीन के एक वैज्ञानिक ने जीनोम-संशोधन तकनीक से जुड़वां बच्चियों को बनाने का दावा कर चिकित्सा और अनुसंधान की दुनिया में हड़कंप मचा दिया था। इस वैज्ञानिक का दावा था कि इस तरह की डिजाइनर बेबी संक्रमणों और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से सुरक्षित रहेंगी। बेबीक्लोन कृत्रिम मेधा तकनीक (एआइ) के क्षेत्र में एक नई क्रांति है।

प्राकृतिक गतिविधियों के साथ छेड़छाड़ करना मानव जीवन के सामने किस तरह की चुनौतियां पैदा कर सकता है या आनुवंशिक परिवर्तनों वाले शिशु आने वाली पीढ़ियों को किस तरह प्रभावित कर सकते हैं, यह कहना कठिन है। इसलिए यह सवाल आखिरकार यह सोचने को विवश तो करता ही है कि यह कैसी दुनिया उभर कर आ रही है जहां विवाह के लिए एक पुतला, यौन इच्छाओं के लिए रोबोट और सिलिकान बच्चा लोगों की पसंद बनते जा रहे हैं। यानी एक ऐसी आभासी दुनिया जहां कुछ भी असली नहीं है। विवाह, पति-पत्नी के रिश्ते से लेकर बच्चे तक, सब कुछ नकली।

आभासी दुनिया का एक और हैरान वाला उदाहरण है। इस वर्ष के प्रारंभ में तमिलनाडु के एक युवक-युवती के विवाह के लिए आभासी विश्व का निर्माण किया गया। इसमें वर के मृत पिता का एक आभासी किरदार बनाया गया जो वर-वधु को आशीर्वाद भी दे सकते हैं। साथ ही वर-वधु, उनके दोस्तों और रिश्तेदारों के भी आभासी अवतार बनाए गए। इस विवाह में शामिल होने के लिए वास्तविक दुनिया से आभासी दुनिया में जाना पड़ेगा। कितना हस्यास्पद है कि जीवित होते हुए भी मृत समाज (काल्पनिक विश्व) में सम्मिलित होने का विकल्प चुनना भ्रम में जीना नहीं है, तो क्या है? इस तकनीकी दुनिया में मृत्यु को झुठलाने वाली तकनीक भी उभार ले चुकी है। कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि मनुष्य वास्तविक संबंधों की उपेक्षा करने और आभासी संबंधों की तलाश में वास्तविक जीवन जीना ही छोड़ने को आतुर है।

सवाल है कि ऐसे में विवाह, परिवार, नातेदारी और समाज की परिभाषा क्या हो? समाजशास्त्रियों को इन परिभाषाओं को नए सिरे से गढ़ना होगा। आज की आभासी दुनिया क्या वास्तव में समाज और परिवार के अंत की तैयारी है? क्या लोग अनौपचारिक संस्थाओं (परिवार, विवाह, रिश्तेदारी) से इतना त्रस्त हो चुके हैं कि उनका इन संस्थाओं पर से विश्वास उठ गया है, या फिर ये सामाजिक संस्थाएं जिन भूमिकाओं का निर्वहन करने के लिए निर्मित की गई थीं, उनका सही से निर्वहन कर पाने में असमर्थ हो गई हैं? समाज विज्ञान के शोधार्थियों को इन मुद्दों पर शोध करने की आवशयकता है, ताकि इनके पीछे छिपे कारण-परिणाम संबंधों को ज्ञात करके उनके समाधान के प्रयास किए जा सकें।

यहां एक बड़ा सवाल यह उठता है कि अगर कोई किसी कमी को पूरा करने के लिए इस तरह की प्रौद्योगिकी का प्रयोग करता है तो एक सीमा तक स्वीकारा भी जा सकता है जैसे कृत्रिम ह्रदय, कृत्रिम आंख, कृत्रिम हाथ-पैर इत्यादि। लेकिन वास्तविक समाज और वास्तविक संबंधों के होते हुए भी अगर व्यक्ति आभासी समाज और रिश्तों की ओर अग्रसर हो रहे हैं तो यह मानसिक दिवालियापन का ही संकेत है।

परिणामस्वरूप मनुष्य में एक नए प्रकार का मनोरोग देखने को मिल रहा है। साइबर स्पेस ने आनलाइन व्यक्तित्व और आफलाइन व्यक्तित्व के नए वर्गीकरण को सामने रख दिया है जो स्किजोफ्रेनिया के नए स्वरुप को उत्पन्न करता है। यहां आनलाइन व्यक्तित्व का अर्थ उस व्यक्ति से है जो वास्तविकता से बहुत दूर होता है। वह असीमित समय तक आनलाइन रह कर अपने बहुमूल्य समय को खर्च करता है और सामाजिक जीवन या कहें कि वास्तविक जीवन से पृथक होता चला जाता है और वह आभासी दुनिया में ही अपना साथी और खुशियां तलाशने लगता है।

सवाल यह है कि वर्तमान समाज और जीवन की समस्याओं से बचने के लिए क्या आभासी दुनिया एक बेहतर विकल्प हो सकती है? जवाब होगा, संभवत: नहीं। तो फिर जरुरी है कि वास्तविक समाज को ही रहने लायक बनाया जाए और उसमें उत्पन्न चुनौतियों से निपटने के उपाय खोजे जाएं। किसी समस्या या चुनौती से भागना समस्या का हल नहीं होता, अपितु उनका सामूहिक रूप से समाधान करने का प्रयास करना ही एकमात्र स्थायी समाधान हो सकता है।

अभी भी समय है इस प्रौद्योगिकी निर्देशित विश्व का हिस्सा बनने से खुद को रोका जा सकता है। कहते हैं कि मनुष्य प्रौद्योगिकी को नियंत्रित करे तो अच्छा है, पर जब प्रौद्योगिकी मनुष्य को नियंत्रित करने लगे तो उसके अस्तित्व को चुनौती मिलने लगती है। इसलिए आभासी संबंधों को वास्तविक विश्व व वास्तविक रिश्तों से विस्थापित करने की जरुरत है ताकि यह समाज फिर से रहने और जीने लायक बन सके।


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