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मैं एक कॉलेज में बैठा चाय पी रहा था। तभी कुछ युवा फटे कपड़े पहनकर आए
मैं एक कॉलेज में बैठा चाय पी रहा था। तभी कुछ युवा फटे कपड़े पहनकर आए। मैंने सोचा कुछ पैसे देकर सहायता करता हू, गरीब परिवार से होंगे, लेकिन पता चला कि यह तो फैशन बन गया है। फटे कपड़े पहनना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। हमें बचपन से ही सादगी व सरलता तथा सहजता से जीवनयापन करना सिखाया जाता रहा है, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में केवल एक घंटे के लिए तीस हजार से लेकर एक लाख तक के लहंगे पहने जाते हैं। क्या यह आधुनिकता की अंधी दौड़ नहीं, तो और क्या है? कहा जाता है कि कोई भी पेड़ तब तक ही आगे बढ़ पाता है जब तक वह अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है। जब वह जड़ों से विमुख हो जाता है तो उसका पतन तय हो जाता है।
समाज में व्यक्ति की वह जड़ें संस्कृति है, जिससे जुड़ा रहना व्यक्ति के लिए आवश्यक होता है। संस्कृति से कटा हुआ व्यक्ति कटी डोर की पतंग की भांति होता है जो उड़ तो रहा होता है लेकिन मंजिल व रास्ता तय नहीं होता, न ही पता होता है कि वह कटा हुआ पतंग कहां जाएगा। वैसा ही हाल समाज में जब कोई व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कट जाता है तो अपना आधार खो देता है। वर्तमान परिदृश्य में समाज को देखें तो देखने को मिल जाता है कि युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति को दिन-प्रतिदिन पीछे छोड़कर आधुनिकता की अंधी दौड़ में दौड़ी जा रही है। संस्कृति-संस्कार समाज के ऐसे अभिन्न अंग हैं जिनसे समाज तय होता है। कहा जाता है कि जिस प्रकार की संस्कृति व संस्कार किसी समाज में प्रचलित होंगे, उसी तरह का समाज निर्माण होगा। हमारे देश-प्रदेश की संस्कृति व संस्कार पूरे वैश्विक मंच पर आदर्श स्थान पर रहे हैं। भारतीय जीवन शैली को पूरे विश्व में सबसे श्रेष्ठ व सभ्य शैली माना जाता रहा है। लेकिन समय के चक्र व पाश्चात्य प्रभाव ने कई संस्कृतियों के संस्कारों को उधेड़ कर रख दिया। वर्तमान परिदृश्य में बात अगर व्यक्ति की सामान्य जीवन शैली की करें तो आज अधिकांश लोग संस्कृति व संस्कारों के साथ जीने को पिछड़ापन मानते हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि कहीं यह इस सोच को मानने वाले लोगों का ही वैचारिक पिछड़ापन तो नहीं जो उन्हें अपनी संस्कृति के साथ जीने में पिछड़ा हुआ महसूस होता है। पिछड़े हुए तो उन्हें कहा जा सकता है जो अपनी संस्कृति व संस्कारों से पिछड़कर पाश्चात्यकरण कर चुके हैं।
भारत की संस्कृति व सभ्यता में प्राचीन समय से ही प्रत्येक कार्य के पीछे तर्क व वैज्ञानिक आधार रहा है। हमारी संस्कृति पूरे विश्व को जीवन मार्ग पर चलना सिखाती थी, तभी भारत को विश्व गुरु जैसी उपमाओं से अलंकृत किया जाता रहा है। लेकिन देश-प्रदेश के वर्तमान परिदृश्य का आकलन करें तो आज समाज का अधिकांश वर्ग आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी संस्कृति व संस्कारों को भुला चुका है। लोग माता-पिता को सम्मान देने की बजाय आज उन्हें वृद्धाश्रमों में जीवन काटने के लिए भेज रहे हैं। जिन माता-पिता ने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपना जीवन कष्टों में काटा, आज उन्हें घरों से ही निकाला जा रहा है। जहां विवाह-शादियों में बेटियों को डोलियों में विदा किया जाता था, आज वहां स्टेज पर सारी औपचारिकताएं निभा दी जाती हैं। युवा खेलों को छोड़कर नशे को ही खेल समझ बैठे हैं। अपनी ताकत गलत कार्यों में लगाकर युवा पीढ़ी संस्कृति की जड़ों से कट चुकी है। आज के युवा गुरुओं को सम्मान देने की बजाय कई बार तो सामने आने से रास्ते बदल लिया करते हैं। पहले गुरु-शिष्य के संबंधों की महिमा लोगों की जुबां पर होती थी। जहां त्यौहारों व रीति-रिवाजों को सामूहिकता व अपनेपन की भावना तथा संस्कृति के एक हिस्से के रूप में मनाया जाता था, समाज में हर्षोल्लास व भातृभाव का समन्वय स्थापित रहता था, आज उन्हीं त्यौहारों पर सोशल मीडिया में बधाई के फोटो डालकर व इन अवसरों पर नशा करने का प्रचलन समाज में बढ़ गया है। मानो आज के युवाओं को नशे करने के लिए अवसर चाहिए। साथ में ही त्यौहारों के अवसर पर जहां लोकसंगीत व लोक संस्कृति का परिचय देखने को मिलता था वहां आज खुली आवाज में डीजे लगाकर इन त्यौहारों की औपचारिकताएं पूरी होती नजर आती हंै।
मानो समाज संस्कृति व संस्कारों से कट कर केवल बिना डोरी की पतंग की तरह औपचारिकतावादी बन कर रह गया है। हमारी संस्कृति में सहयोग का बड़ा महत्व था। सभी एक-दूसरे व्यक्ति को सहयोग दिया करते थे। हर सुख-दुख में साथ खड़े रहने की भावना देखने को मिलती थी, लेकिन आज समाज व लोग व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं। केवल अपने में ही समाज को समझते हैं। भारत में आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति की जड़ से ही कट गए हंै। अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त किए लोग समाज में अमानवीय कृत्यों में संलिप्त पाए जाते हैं जिससे स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा कितनी भी हासिल कर ली जाए, वो शिक्षा अगर आपके व्यवहार में न उतरे, तो उस शिक्षा का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। कई दफा लोग साक्षर होने के दावा करते हैं, मगर बात करने के ढंग से वो अक्सर अपना वास्तविक परिचय दे दिया करते हैं, जिससे ऐसी शिक्षा का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। इससे अच्छा तो गांवों के अशिक्षित लोग अच्छी तहजीब व व्यवहार में सादगी तथा विषयों पर प्रखर पकड़ रखने वाले हमारे बुजुर्ग बेहतर हैं जिन्होंने भले ही स्कूलों में जाकर कभी किताबे नहीं पढ़ी हो, लेकिन समाज व लोगों को पढ़कर एक आदर्श जीवन शैली को अपनाए हुए हैं, अपनी संस्कृति को संजोए हुए हंै। आधुनिक होने का दावा करने वाले महामनुष्य न जाने किन बातों में आधुनिक हैं, अगर उन्हें मानवीय व्यवहार व सम्मान न करना आए। ऐसी आधुनिकता की अंधी दौड़ में लडख़ड़ाने से बेहतर है सामान्य जीवन व्यतीत करना।
आधुनिक होने की बातें की जाती हैं, मगर ये आधुनिक और स्मार्ट व्यक्ति नहीं बल्कि इनके महंगे-महंगे स्मार्टफोन हैं जिनसे लोगों को लगता है कि वे भी इन मोबाइलों की तरह स्मार्ट हैं, लेकिन यह सबसे बड़ा भ्रम है। आज का मनुष्य इतना निर्भर प्रवृत्ति में लीन हो गया है कि केवल सब कुछ आर्टिफिशियल चाहिए, स्वयं कुछ भी नहीं करना है। वो कहा जाता है न कि आज के मनुष्य सोशल मीडिया में तो सोशल होना चाहते हैं, मगर सामाजिक नहीं बनना चाहते। केवल नाम से आधुनिकतावादी कहलाना चाहते हैं। यह आधुनिकतावादी होने का भ्रम लोगों को अपने मस्तिष्क से निकालकर व्यावहारिक जीवन में चिंतन करके अपनी जड़ों से जुड़कर अपनी संस्कृति व सभ्यता को जानना चाहिए, तभी आधुनिकतावादी कहलाने का कोई औचित्य रह पाता है, अन्यथा मानव इतना अधिक व्यक्तिवादी हो रहा है कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि साथ वाले घर में रह रहे व्यक्ति को क्या समस्या है?
प्रो. मनोज डोगरा
लेखक हमीरपुर से हैं
Rani Sahu
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