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बहुत दिनों बाद आधी आबादी ने वहां पहुंचने में सफलता पाई जहां पहुंचना बहुत मायने रखता है
बहुत दिनों बाद आधी आबादी ने वहां पहुंचने में सफलता पाई जहां पहुंचना बहुत मायने रखता है। कुछ समय पहले सम्पन्न नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के पहले चरण के अनुसार देश में पहली बार लड़कियों का अनुपात 1000 लड़कों पर 1020 हुआ है। यानी लड़कियां यहां भी अब उन्नीस नहीं 'बीस' हो गई हैं। तो, मतलब अब शादी करने के लिए लड़कों को लड़कियों की कमी नहीं होगी। फिर भी बलात्कार और छेड़खानी की घटनाएं रुकेंगी, इसमें शक है, क्योंकि वो तो 'मर्दानगी' की निशानी ठहरी? खैर...।
चलिए, मतलब संख्या में कहीं तो औरतें वाकई आदमी से आगे हुई हैं। अफसोस यह है कि यह बराबरी तो अब भी आंकड़ों तक ही सीमित है। इसके पीछे भी काफी सारी स्थितियां हैं। जिसमें से सबसे महत्वपूर्ण है लोगों के मन का बदलना। भले ही प्रतिशत कम हो, धीरे-धीरे बढ़ रहा हो, लेकिन सच यही है कि अब परिवार में यदि एक बेटी भी है तो लोग उसको कम से कम पढ़ने, मनपसंद कपड़े पहनने और नौकरी करने की छूट तो दे रहे हैं। जिन लोगों के घर में सिर्फ एकमात्र संतान या दो बच्चे भी लड़कियां ही हैं वे भी उन्हें लक्ष्मी आ गई, म्हारी लड़कियां छोरों से कम हैं के, हमारी तो साहब बेटी ही बेटे जैसी ही है, जैसे डायलॉग के साथ वेलकम कर रहे हैं।
लड़कियों को अब दहेज में उनके लिए एक्टिवा देने और पति का सरनेम न रखने जैसी सुविधाएं भी दी जा रही हैं। लड़कियां लड़कों वाले स्पोर्ट्स भी खेल रही हैं और अकेले विदेश भी जा रही हैं। लेकिन ये सारी कवायदें तब मिट्टी में मिल जाती हैं जब वही लड़की कहती है- पति का हाथ उठाना जायज है। इसमें गलत क्या है भला! ये तो होना ही चाहिए। आखिर बिना मारे भी औरत लाइन पर आती है क्या भला!
समाज से आ रही ऐसी भी आवाजें
जी हां, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के अनुसार देश के 14 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश की 30 प्रतिशत औरतों ने पति या पार्टनर की मार को जायज ठहराया है। इन औरतों से सर्वे में पूछा गया था कि, 'आपकी राय में क्या पति का अपनी पत्नियों को पीटना जायज है?' जवाब में इन औरतों ने कहा, 'जी हां, बिल्कुल।'
इन औरतों का मानना है कि बच्चों की सही तरीके से देखभाल न कर पाने, घर को ठीक से संभाल पाने, सास-ससुर से तमीज से पेश न आने, पति को सेक्स के लिए मना करने, पति से बहस करने, पति को बिना बताए घर से बाहर जाने, अच्छा खाना न पकाने, पति द्वारा उनके चीटिंग करने का संदेह होने जैसी बातों के लिए पति द्वारा पत्नी को मारा जाना पीटा जाना वाजिब है।
खास बात यह है कि यह सोच किसी एक तबके की नहीं है। असल में कई पढ़ी-लिखी महिलाएं भी इसी तरह की सोच रखती हैं। उससे भी खास बात यह कि यह सोच केवल पढ़ाई में पिछड़े राज्यों की महिलाओं की ही नहीं है। दक्षिण भारत जैसे तकनीकी रूप से समृद्ध राज्यों की महिलाएं भी यही सोचती हैं। सर्वे में इस बात का समर्थन तेलंगाना व आंध्रप्रदेश की 84% तथा कर्नाटक 77% महिलाओं ने किया है।
इसके अलावा साक्षरता के क्षेत्र में धूम मचाने वाले केरल (52%), मणिपुर (66%), जम्मू कश्मीर (49%), महाराष्ट्र (44%) व पश्चिम बंगाल (42%) की महिलाएं भी इस बात का समर्थन करती हैं। खास बात यह भी है कि इनमें से कुछ राज्य तो मातृसत्तात्मक विचारधारा रखते हैं। जहां महिलाओं को बकायदा समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मतलब साफ है, आपकी डिग्री, आपकी सामाजिक स्थिति आदि से ज्यादा महत्व आपके औरत होने का है। यानी कितनी भी पढ़ लो, आगे बढ़ लो, घर में तो पति से जूते ही खाओगी।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के अनुसार देश के 14 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश की 30 प्रतिशत औरतों ने पति या पार्टनर की मार को जायज ठहराया है।
घरेलू हिंसा और सुप्रीम कोर्ट
अभी थोड़े ही समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा था। इस याचिका में कहा गया था कि डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट 2005 होने के बावजूद घरेलू हिंसा अब भी महिलाओ के खिलाफ सबसे आम (और आसान भी) अपराध बना हुआ है। इस याचिका में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे का हवाला देते हुए यह भी कहा गया था कि घरेलू हिंसा की शिकार करीब 86 प्रतिशत महिलाएं कभी मदद मांगने आगे आती ही नहीं। अब जब महिलाएं खुद यह मान रही हैं कि उनपर हाथ उठाना जायज है तो वे शिकायत क्यों करेंगी भला?
कुछ साल पहले की एक घटना मेरे जेहन में आज भी ताजा है। एक परिचित ने नए घर के गृह प्रवेश पर आमंत्रित किया था। खा-पीकर हम सब हाथों में कॉफी के मग लेकर लॉन में आ गए और गप्पें मारने लगे। पुरुष मण्डली अंदर ड्राइंग रूम में बैठी थी। हंसी-मजाक के बीच हमें अपनी एक सहेली के पति द्वारा अंदर से लगाई गई आवाज नहीं आई। एक और दो आवाजों के बाद तीसरी बार में पति महोदय तैश में उठते हुए से बाहर आए और अपनी पत्नी को पीठ पर जोर से धौल जमाते हुए बोले- 'सुन भी लो जरा। अंदर बच्चा गिर गया है।' वो महिला एकदम सकपका गई और कॉफी छलक कर उनकी साड़ी पर गिर गई। वे महाशय इतने पर ही नहीं रुके, आगे हमारी ओर मुखातिब होते हुए बोले- 'अरे हमारी श्रीमतीजी का क्या है, गप्पों में खो जाती हैं। फिर ध्यान ही नहीं रहता घर, पति, बच्चों का।' इतना कहकर वो वहां से चले गए और उनकी पत्नी खिसियानी हंसी के साथ उठकर बिना कुछ बोले अंदर चली गईं।
जाहिर था कि हमें बुरा लगा था लेकिन हम कुछ बोलें उसके पहले ही होस्ट परिवार की बुजुर्ग महिला जो वहां बैठी थीं, बोलीं-'अरे तो क्या हुआ। ध्यान नहीं देगी तो मार खाएगी ही। पति ही तो है, इसका बुरा क्या मानना।' हम सन्न थे। समझ ही नहीं सके कि क्या प्रतिक्रिया दें। इसके बहुत दिनों बाद तक जब भी वो दम्पत्ति किसी कार्यक्रम में मिलते वो 'धौल' हमारे जेहन में ताजा हो जाता। लेकिन वो महिला सामान्य थी, जैसे कुछ हुआ ही न हो। उसपर सबसे बड़ी बात यह थी कि वो महिला स्वयं का व्यवसाय चला रही थी। अपने पैरों पर खड़ी थी और उनके पास बकायदा एक टेक्निकल डिग्री थी।
अपने आसपास कई लोगों को मैंने सालों से इसी धारणा के साथ जीते देखा है। झगड़े-बहस हर घर और हर परिवार में होते हैं लेकिन उस झगड़े में किसी एक को दूसरे पर हाथ उठाने का अधिकार मिल जाना सामान्य इंसान होने के नाते भी खटकता है। कई बार तो यह भी हुआ है कि एक दिन पहले फोन पर रो-रोकर अपने पति को हाथ उठाने पर कोस रही कोई परिचित दो दिन बाद गाल पर थप्पड़ का निशान और गले में पति का गिफ्ट किया हार दोनों गर्व से दिखा रही होती है।
औरतों पर हाथ उठा देना हमारे देश में पान या गुटखे की पीक थूकने जितना आसान है।
एक्सप्रेशन ऑफ लव और औरतें
ये कोई एक तबके, वर्ग, पढ़े-अपढ़ की बात भी नहीं, लगभग हर जगह औरतें इसी सोच के साथ बड़ी होती हैं। उसपर तुक्का यह कि ये पिटाई तो प्यार वाली ही है। पति प्यार करते हैं इसलिए हाथ उठा देते हैं। इस बात को सुनकर मुझे थप्पड़ फिल्म का वह सीन याद आ जाता है, जब वकील से बात करते हुए एक व्यक्ति कहता है- 'और सर थोड़ी बहुत मारपीट तो एक्सप्रेशन ऑफ लव ही है ना सर?'
हाथ उठा देना हमारे देश में पान या गुटखे की पीक थूकने जितना आसान है। जहां जगह मिली रंग छोड़ दिया और अधिकांशतः इसका प्रयोग औरतों और बच्चों पर किया जाता है क्योंकि ज्यादातर मामलों में दोनों ही न तो आत्मनिर्भर होते हैं न ही खुद के निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र। ऐसे लोगों के मौलिक अधिकारों के बारे में कभी सोचा भी नहीं जाता। समाज इस तरह की व्यवस्था करता है कि थप्पड़ मारना, मारने वाले को और थप्पड़ खाना, खाने वाले को जायज सा लगता है।
इस सोच में बदलाव आसान नहीं है। बचपन से ही यह बात लड़कियों को बताना जरूरी है कि उन पर कोई भी हाथ उठाए वो गलत ही है, चाहे वो घर का कोई अपना हो या बाहर का। लड़कियों को सुरक्षा के साथ आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा देने के साथ यह भी बताना जरूरी है कि बेवजह उनका हाथ उठाना भी जायज नहीं। साथ ही लड़कों को बचपन से यह बताना आवश्यक है कि यूंही हाथ उठा देना न तो उनका अधिकार है, न ही मर्दानगी।
बात यह नहीं है कि हर झगड़े या ऐसी किसी घटना की पुलिस में शिकायत कर दी जाए। लेकिन अगर पहली बार आपका पति या पार्टनर आप पर हाथ उठाता है तो उसे वहीं रोक देना जरूरी है। अगर ये उसकी आदत है तब तो कानून की मदद लेना भी जायज है। अगर अब भी लड़कियों को यह समझ विकसित करने में मदद नहीं की गई कि मार खाना गलत है तो यह थप्पड़ हर पीढ़ी में इसी तरह ट्रासंफर होता रहेगा।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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