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बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा जितना अधिक प्रचलित हुआ अभी तक धरातल पर उतना नहीं उतर सका
जयसिंह रावत
सोर्स- अमर उजाला
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा जितना अधिक प्रचलित हुआ अभी तक धरातल पर उतना नहीं उतर सका। यह नारा ही नहीं एक राष्ट्रीय संकल्प है, लेकिन वास्तविकता यह है कि योजना लागू होने के 7 साल बाद भी बेटियों के प्रति समाज के नजरिए में कोई खास बदलाव नहीं आया है।
अभियान चलने के बाद कुल 37 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में से 13 में बच्चियों का लिंगानुपात गिरता गया। अब भी महिलाओं, जो कि स्वयं भी बेटियां हैं की पहली पसन्द बेटा ही है। बेटियों की शिक्षा में अपेक्षित सुधार नहीं आ पाया है। महिलाओं के प्रति अपराधों में कमी नहीं आ रही है और कुपोषण के कारण उन्हें रक्त अल्पता जैसी बीमारियों से जूझना पड़ रहा है। कुपोषित माताओं के बच्चे ठिगने हो रहे हैं।
अधिकतर लोगों की कम से कम एक बेटे की चाह
सन् 2011 की जनगणना में कन्या लिंगानुपात में कमी को ध्यान में रखते हुए बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 22 जनवरी 2015 को की गई थी। केंद्र सरकार का उद्देश्य इस योजना द्वारा बेटियों के प्रति समाज में होने वाले नकारात्मक रवैये के प्रति जागरूकता फैलाना और विभिन्न योजनाओं के जरिए उनका कल्याण करना है।
लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के ताजा आंकड़े बताते हैं कि भारत में बेटों की परम्परागत चाह अब भी बनी हुई है। सर्वेक्षण में शामिल लगभग 80 प्रतिशत लोग कम से कम एक बेटा होने की इच्छा रखते हैं।
बेटियां भी मां बनने पर बेटा चाहती हैं
विचारणीय विषय तो यह है कि जो महिलाएं स्वयं बेटी होती हैं, उनका बहुमत भी बेटों के पक्ष में नजर आ रहा है। इसके अनुसार, 16 प्रतिशत पुरुष और 14 प्रतिशत महिला यानी 15 प्रतिशत लोग बेटियों की तुलना में बेटा पैदा होने की अभिलाषा रखते हैं। नतीजतन कभी-कभी बेटे की चाह में बेटियां पैदा होती जाती हैं।
सर्वेक्षण के दौरान विभिन्न आयु वर्ग की महिलाओं में कम से कम एक बेटे की चाह 59.82 प्रतिशत की तथा एक बेटी की चाह 58.19 प्रतिशत की थी।
सर्वेक्षकों को नगरीय क्षेत्र में 11.4 प्रतिशत महिलाओं ने ज्यादा बेटों और 3.8 प्रतिशत ने ज्यादा बेटियों की चाह बतायी। ग्रामीण क्षेत्र में ज्यादा बेटों की वरीयता 17.4 प्रतिशत की और ज्यादा बेटियों की चाह केवल 3.1 प्रतिशत महिलाओं की थी। कम पढ़ी-लिखी महिलाओं में तो बेटों की चाह 86 प्रतिशत तक दर्ज हुई। सबसे कम आयु वर्ग में 85.3 प्रतिशत की कम से कम एक बेटे की चाह और 81.3 की एक बेटी की चाह थी। इसी प्रकार उच्च आय वर्ग में भी बेटे की चाह अधिक थी।
सर्वेक्षण में सबसे उच्च आय वर्ग में 73.7 प्रतिशत को कम से कम एक बेटा और 69.1 प्रतिशत को एक बेटी चाहिये थी। भारत के पारंपरिक समाज की पुरानी मान्यता रही है कि खानदान का नाम बेटा ही आगे बढ़ाता है और वही बुढ़ापे में अपने मां-बाप की देखभाल करेगा। जबकि बेटियां शादी के बाद अपने घर ससुराल चली जाएंगीं। साथ ही उसकी शादी में खासा दहेज भी देना पड़ेगा। देश के 13 राज्यों में अभियान बेअसर
परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि बेटी बचाओ अभियान का देश के 37 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में से 13 प्रदेशों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, क्योंकि पिछले सर्वेक्षण की तुलना में नवीनतम् सर्वेक्षण में पांच सालों के अन्तराल में जिन राज्यों में लिंगानुपात घटा पाया गया उनमें गोवा, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, केरल, महाराष्ट्र, मेघालय, नागालैण्ड, ओडिसा और तमिलनाडू शामिल हैं।
बेटियों की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान नहीं
जहां तक बेटी पढावो का सवाल है तो अब समाज में जागरूकता अवश्य आ गयी है, मगर अपेक्षित लक्ष्य अभी काफी दूर है। भारत सरकार यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन रिपोर्ट 2020-21 में लड़कियों के ड्राप आउट में कमी बतायी गयी है। दूसरी ओर 2013-14 की रिपोर्ट को देखें तो उसमें देश में प्राथमिक स्तर पर 6 करोड़ से अधिक लड़कियों का नामांकन बताया गया था।
छह साल बाद, 2019-20 में, लगभग इतनी ही संख्या में उच्च प्राथमिक स्तर पर नामांकित होना चाहिए था लेकिन 2019-20 की रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल 35 लाख लड़कियां ही नामांकित हैं। गुजरात समेत 14 राज्यों में ड्राप आउट चिन्तनीय।
शिक्षा मंत्रालय की नवीनतम् रिपोर्ट के अनुसार प्राइमरी में भले ही लड़कियों का ड्राप आउट प्रतिशत ( 07 एवं 08 ) लड़कों से कम रहा लेकिन अपर प्राइमरी या मिडिल स्कूल तक लड़कियों का ड्राप आउट प्रतिशत 2.3 हो गया जबकि लड़कों का ड्राप आउट प्रतिशत 1.6 रह गया। जब बच्ची को पांचवीं से आगे पढ़ावोगे ही नहीं तो वह कैसे सेकेंडरी और फिर उच्च शिक्षण संस्थानों में जा पायेगी।
कुछ राज्यों में बहुत कम ड्रापआउट के कारण राष्ट्रीय स्तर पर लड़कियों का औसत ड्राप आउट कम नजर आ रहा है, लेकिन देश के 14 राज्यों पर नजर डाली जाए तो स्थिति चिन्ताजनक नजर आती है। इनमें 14 में से 12 राज्य पूर्वोत्तर और पश्चिमी भारत के हैं और दो अन्य राज्यों में गुजरात और मध्य प्रदेश शामिल हैं। जबकि दक्षिणी राज्यों में यह प्रतिशत नगण्य है।
इस स्तर पर लड़कियों का सर्वाधिक ड्रापआउट मणिपुर (8.7) मणिपुर में दर्ज किया गया है। उसके बाद मेघालय (7.7) का नम्बर है जहां स्त्री प्रधान समाज माना जाता है। मेघालय के बाद अरुणाचल में लड़कियों का ड्रापआउट 7 प्रतिशत और व्यवसायियों के प्रदेश गुजरात में 5.5 प्रतिशत दर्ज हुआ है।
महिलाओं के खिलाफ अपराध घट नहीं रहे
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्ष 2018 में महिलाओं के खिलाफ 3,78,236 वर्ष 2019 में 4,05,326 और वर्ष 2020 में कुल 3,71,503 मामले दर्ज हुए। इस तरह महिलाओं के खिलाफ अपराधों का प्रतिशत 2020 में 56.5 प्रतिशत था। महिलाओं के खिलाफ अपराधों में असम सबसे आगे रहा जहां यह प्रतिशत 154.3 दर्ज किया गया। दूसरे नम्बर पर उडीसा रहा जहां महिला अपराधों का प्रतिशत 112.0 दर्ज हुआ। तीसरे नम्बर पर 95.4 प्रतिशत के साथ तेलंगाना और चैथे पर 90.5 प्रतिशत के साथ राजस्थान रहा।
इससे भी अधिक चिन्ता का विषय यह है कि महिलाओं के खिलाफ 2020 में जितने भी अपराध देश में दर्ज हुए उनमें से केवल 78.7 प्रतिशत मामलों में ही चार्जशीट दर्ज हुई। इनमें 219 मामले बलात्कार (सामूहिक बलात्कार समेत) के बाद 226 महिलाओं की हत्या, दहेज हत्याओं के 6,966 मामलों में 7045 महिलाओं की हत्या एवं 5040 मामलों में 5135 महिलाओं को आत्महत्या के लिए मजबूर करना शामिल है। वर्ष 2020 में बलात्कार के बाद हत्या के सर्वाधिक (31) मामले उत्तर प्रदेश के दर्ज हुए हैं।
उसके बाद मध्य प्रदेश (27) दूसरे, असम (26) तीसरे, महाराष्ट्र (23) चौथे, उड़ीसा (20) पांचवें और तेलंगाना (14) स्थान पर रहे। दहेज हत्या मामलों में उत्तर प्रदेश सबसे आगे रहा जहां दहेज के लिए 2,302 महिलाओं को मारा गया। बिहार में आलोच्य अवधि में 1,046 और मध्य प्रदेश में 608 महिलाओं की जानें गईं।
मध्य प्रदेश (718) और महाराष्ट्र (844) में सर्वाधिक महिलाओं को आत्महत्या के लिए मजबूर किया गया। क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 के अन्त तक विभिन्न राज्यों में पुलिस के पास महिलाओं के खिलाफ अपराधों के कुल 1,71,130 मामले पेंडिंग पड़े थे।
बेटियों के स्वास्थ्य की समस्या भी गंभीर
देश में बेटों की तुलना में बेटियां कम पैदा होने के साथ ही उनके स्वास्थ्य की समस्या चिन्ता पैदा करने वाली है। यूनेस्कों की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार देश के 19 साल तक की 28 लाख लड़कियां शारीरिक विकलांग थी जिनमें से 20 लाख लड़कियां ग्रामीण क्षेत्रों की थीं। ये विकलांगताएं ऑटिज्म, बहरेपन, अन्धता और चलने-फिरने में असमर्थता की थीं जब कि कुपोषण और रक्त अल्पता तो लगभग 50 प्रतिशत लड़कियों की समस्या रहती ही है।

Rani Sahu
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