सम्पादकीय

सामाजिक आईने की दुरुस्ती

Rani Sahu
13 Dec 2021 6:55 PM GMT
सामाजिक आईने की दुरुस्ती
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सामाजिक आईने की दुरुस्ती में राज्य सरकार के सरोकार पुनः धर्मशाला में आकर खिलखिला उठे

सामाजिक आईने की दुरुस्ती में राज्य सरकार के सरोकार पुनः धर्मशाला में आकर खिलखिला उठे, तो बाहें फैलाए विभिन्न कल्याण बोर्डों की आरजू में तसदीक होता मकसद भी गुनगुना देता है। एक ही दिन में तीन बैठकों का आलम यह रहा कि कई सीढि़यां उभर आती हैं। पिछड़ा वर्ग हो या गद्दी-गुजर समुदाय की बेडि़यांे का मसला, वार्षिक बैठकों के आलम में कई आधारभूत जरूरतांे की आपूर्ति का यह मंजर खुशनुमा हो जाता है, लेकिन इस सफर की कहानी आखिर भेड़चाल क्यों चलती है। समाज के आर्थिक आईने में कई सुराख हो सकते हैं, लेकिन आरक्षित वर्ग की सामाजिक सुरक्षा में हिमाचल के आदर्श रंग ला रहे हैं। समाज के भीतर तरक्की के अक्स किसी जाति या वर्ग के भेद में विभक्त नहीं हैं, फिर भी राजनीतिक शक्ति में बेहतर प्रदर्शन की जरूरत है। आरक्षण अधिकार की ताजपोशी में बैठकों के दौर ऐसी कंदराओं को खोज पाते हैं, जहां खुशहाली की खबर के लिए नए इंतजाम चाहिएं। मसलन ओबीसी प्रमाण पत्र की कसरतों को सरल व सहज बनाने के साथ इसकी समयावधि को तीन साल करने की पेशकश अगर पूरी होती है, तो यह सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम होगा।

गद्दी समुदाय के आर्थिक अभिप्राय काफी मजबूती से सामने आते है और यह तारीफ करनी होगी कि यहां बोर्ड की कलगी से कहीं आगे निकल कर सदस्य शोधपरक फैसलों की दिशा तय करते हैं। बैठक को इवेंट से कहीं आगे वार्षिक पीड़ा, अनुभव तथा प्रगति को बांटने की बेहतरीन कोशिश इस बार भी हुई। खासतौर पर गद्दी समुदाय के लिए अलग बजट की मांग उठी है। त्रिलोक कपूर का यह सुझाव व्यावहारिक है कि जिन गैरजातीय क्षेत्रों में गद्दी आबादी की खासी तादाद है, वहां तीन प्रतिशत अलग से बजट दिया जाए। नूरपुर, शाहपुर, नगरोटा, जवाली, धर्मशाला व पालमपुर का जिक्र करते हुए वह एक सियासी साम्राज्य का चित्रण तो करते ही हैं, साथ में क्षेत्रीय विकास के साथ जनजातीय समृद्धि जोड़ देते हैं। यह अनुपम आइडिया है और इसकी आपूर्ति के तर्क सारी योजनाओं-परियोजनाओं का नक्शा बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए प्रदेश के दो नगर निगमों यानी धर्मशाला की दो व पालमपुर की एक सीट जनजातीय समुदाय के लिए आरक्षित हैं, तो इनकी वित्तीय पैरवी का पूरा इंतजाम होना चाहिए। अतीत से अब तक विभिन्न वर्गों और जातियों के साथ कई प्रोफेशन, आर्थिक विषय, सांस्कृतिक ऊर्जा तथा सामाजिक रिश्ते जुड़े रहे हैं, लेकिन आरक्षण की व्यक्तिगत सुविधा ने उस सारी परिपाटी का संरक्षण नहीं किया जो पीढ़ी दर पीढ़ी व्यावसायिक रोजगार बन रही है। मसलन गद्दी समुदाय के मार्फत व्यापार, दस्तकारी, गीत-संगीत, ट्राइबल वैल्यू और लोक जीवन की जो मिट्टी रही है, उसकी तरफदारी नहीं हुई। भरमौर क्षेत्र में विद्युत ऊर्जा उत्पादन ने बेशक स्थानीय समृद्धि को पंख लगा दिए, लेकिन उसके सामने लोक जीवनका उजड़ा पक्ष कौन देखेगा। भरमौर की आर्थिक गतिविधियों ने जनजातीय जीवन की महक ही उजाड़ दी, तो 'संरक्षण' किस तहजीब का नाम है।
इसी तरह ओबीसी दायरे की 52 जातियों का मूलस्वरूप अगर खेतीबाड़ी की उन्नत तस्वीर में नहीं रहता या खेत बेचकर आजीविका या समृद्धि का सौदा होता है, तो गुणात्मक परिवर्तन कैसे आएगा। हैरानी यह कि ग्रामीण आर्थिकी के संदर्भ निजी उपलब्धियों ने छीन लिए। लैंड सीलिंग एक्ट के जरिए सामाजिक पिछडे़पन को जो संबल दिया गया था, उसके संरक्षण का इंतजाम होता तो आज कृषि आर्थिकी सामने आती, लेकिन जिस भूमि की मिलकीयत से ओबीसी वर्ग की तरक्की सुनिश्चित होनी थी, उसकी बिक्री होकर एक बड़ी शून्यता पैदा हो गई। ऐसे में सवाल यही है कि मकसद का निजी दोहन पूरे वर्ग की खुशहाली नहीं हो सकता, लिहाजा समग्रता में देखते हुए इन आरक्षित वर्गों के आर्थिक आधार को भी संरक्षण की जरूरत है। गुज्जर समुदाय को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में आर्थिक आधार पर तोला जाए, तो दुग्ध क्रांति के उद्घोष और वैज्ञानिक तरक्की के कई संदर्भ जीवंत हो जाने चाहिएं, लेकिन हिमाचल की डेयरी तो फिसल कर वेरका, वीटा, मदर डेयरी या अमूल की शरण में चली गई। धर्मशाला में आयोजित गद्दी-गुज्जर व ओबीसी बैठकों ने बेशक कुछ समीक्षा की है, लेकिन इनके मूल सुधारों व बेहतरी के लिए कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर व बागबानी विश्वविद्यालय को नवाचार, शोध व प्रसार को समुदाय से जोड़ना होगा। बैठकों के आयोजन की परख तब होगी, अगर हर साल समाज के इन वर्गों के वास्तविक हालात व तरक्की पर आधारित सर्वेक्षण, शोध व अध्ययन भी सामने आएं।

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