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ये असुविधा के दिन हैं। जीवन में सबसे बड़े असुविधा के दिन वे होते हैं
हरजिंदर। ये असुविधा के दिन हैं। जीवन में सबसे बड़े असुविधा के दिन वे होते हैं, जब हमारी कोई सुविधा विवादों के घेरे में आ जाती है। फेसबुक, वाट्सएप, इंस्टाग्राम और इन जैसे अन्य सोशल मीडिया साइट ऐसी ही कुछ सुविधाएं हैं, जिन्हें आधुनिक तकनीक ने संभव बनाया है और बाजार ने हमारे सामने परोसा है। इनके पोषण का अभ्यस्त हो चुका समाज अब जन-स्वास्थ्य पर इनके दुष्प्रभावों की चिंता में दुबला होने लगा हैं। मानव सभ्यता की अनेक पुरानी व्याधियों को इसने हवा दी है और कुछ नई व्याधियां भी पैदा कर दी हैं। सरकारों पर दबाव है कि वे कुछ करें, लेकिन किसी को बहुत ठीक से नहीं पता कि क्या किया जाए? या हम जिस मोड़ पर पहंुच गए हैं, वहां कुछ हो भी सकता है या नहीं?
आधुनिक सोशल मीडिया से हम एक साथ दो स्तरों पर एकसार होते हैं। एक तो हमें यहां अपने दोस्तों, परिचितों, रिश्तेदारों और बचपन के बिछड़े साथियों से जुड़ने का मौका मिलता है। इसी से जुड़ी एक सुविधा यह भी है कि यहां हम कई जाने-माने और सत्ता संपन्न लोगों से सीधे जुड़ सकते हैं। आपकी भेजी हुई चिट्ठी उतनी आसानी से देश के प्रधानमंत्री तक नहीं पहंुच सकती, जितनी आसानी से आपका ट्वीट पहंुच सकता है। फिर यह कई तरह से अपने दायरे को फैलाने का मंच भी बन जाता है, यहां हम अपने समान विचारों वाले लोगों, या राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भाषा में कहें, तो अपने समान-धर्मी लोगों से भी जुड़ पाते हैं।
यहीं पर जुड़ाव का एक दूसरा स्तर या एक अलग प्रभाव देखने को मिलता है। समाजशास्त्री यह मानते रहे हैं कि जैसे-जैसे लोगों को सामाजिक दायरा बढ़ता है, उनके नजरिये में खुलापन आता है। वे दूसरों की भावनाओं और उनके सुख-दुख को समझना शुरू करते हैं। वे अपनी सोच और पूर्वाग्रहों के पुराने दड़बों से निकलकर व्यापक सामाजिक सरोकारों को समझना शुरू करते हैं। लेकिन सोशल मीडिया इस धारणा को झुठलाता दिखता है। पिछले कुछ समय में सोशल मीडिया ने न सिर्फ पूर्वाग्रहों को मजबूत किया, बल्कि इनके आस-पास चलने वाली नफरत की राजनीति को बढ़ावा ही नहीं दिया, एक नई तरह की उग्रता भी दी है। वास्तविक जीवन में हम भले ही सच के महत्व और इसकी जीत की बात करते हों, लेकिन सोशल मीडिया पर झूठ का ही बोलबाला दिखता है। यह भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है।
यह भी बहुत स्पष्ट है कि सोशल मीडिया को चलाने वाली कंपनियां इसी झूठ और नफरत को बढ़ावा देती हैं, क्योंकि इसी में उन्हें मुनाफा दिखाई देता है। यही प्रवृत्तियां उनके रेवेन्यू मॉडल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। पिछली तिमाही में अगर फेसबुक ने प्रति सब्सक्राइबर 53 डॉलर की कमाई की, तो इसमें झूठ और नफरत की सबसे बड़ी भूमिका है। राजनीतिक दल भी झूठ और नफरत के इस मंच का फायदा किस तरह सत्ता हासिल करने में उठाते हैं, इसे भी हम कैंब्रिज एनालिटिका के मामले में देख चुके हैं। इन्हीं सबको देखते हुए दुनिया भर में सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की आवाजें उठने लगी हैं, लेकिन ठीक यहीं पर एक दूसरी समस्या खड़ी हो जाती है।
भारत में अगर आप किसी वामपंथी से बात करें, तो वह आपको बहुत से कारण गिनाएगा और बहुत से उदाहरण बताएगा कि सोशल मीडिया पर लगाम लगाना क्यों जरूरी है। झूठ के सहारे नैरेटिव गढ़ने और नफरत फैलाने की राजनीति उसे पिछले कुछ समय से काफी परेशान कर रही है। दूसरी तरफ, अगर आप भाजपा और संघ परिवार के लोगों से बात करें, तो वे आपको बताएंगे कि किस तरह से किसान आंदोलन, नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया और विरोध व प्रदर्शनों के कई टूलकिट बनाए व फैलाए गए। इन दोनों ही ध्रुवों के बीच जो भी और जितने भी दल हैं, उनकी सोच भी ऐसी ही है। ये सब मानते हैं और अक्सर मांग भी करते हैं कि सरकार को आगे बढ़कर सोशल मीडिया पर लगाम लगानी चाहिए।
सरकार मीडिया पर लगाम लगाए, इसके लिए दूसरा शब्द है सेंसर। हैरत की बात है, यह मांग राजनीतिक दल कर रहे हैं। अभिव्यक्ति के मंचों की आजादी वह उपलब्धि है, जिसे मानव सभ्यता ने सदियों के संघर्ष के बाद हासिल किया है। क्या सोशल मीडिया की पिछले आधे दशक की गड़बड़ियों के कारण हम इसे गंवाने को तैयार हैं?
सेंसर का क्या अर्थ होता है, इसे हम अच्छी तरह जानते हैं। यह हमेशा ही सरकार के पूर्वाग्रहों से उपजता है और किसी भी तरह से सरकार व सत्ताधारी दल को खुश करने वाली नौकरशाही के जरिये जमीन पर उतरता है। अगर सचमुच यह सरकार सोशल मीडिया पर लगाम कस दे, तो शिकायत दर्ज कराने वालों में सबसे आगे वामपंथी ही होंगे। इसी तरह से अगर देश में कांग्रेस की सरकार हो, तो इस कतार में भाजपाई और वामपंथी एक साथ खड़े नजर आएंगे।
वैसे सोशल मीडिया के कुप्रभावों से हम ही नहीं, पूरी दुनिया परेशान है। इसे लेकर जो बेचैनी पश्चिम में दिखनी शुरू हुई है, वह हमसे कहीं ज्यादा है। तकरीबन हर देश में किसी न किसी तरह की कोशिश चल रही है। विभिन्न कमेटियों और अदालतों के सामने सोशल मीडिया कंपनियों के अधिकारियों की पेशी हो रही है। कई तरह के नियम-कायदे बनाए जा रहे हैं, जुर्माने भी लगाए जा रहे हैं। सभी यह भी जानते हैं कि यह सारा कारोबार जिस तरह से वैश्विक स्तर पर होता है, किसी एक देश में यह सब करने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए विश्व स्तर पर इसे प्रोटोकॉल बनाए जाने की मांग भी हो रही है।
पूरी दुनिया के स्तर पर बुराइयों से निपटने की कोशिशों के हमारे पास दो उदाहरण हैं। एक है ड्रग्स के खिलाफ चला अभियान, जो एक हद से ज्यादा कामयाब नहीं रहा। दूसरा है चाइल्ड पोर्नोग्राफी के खिलाफ हुई कोशिशें, जिनमें काफी कामयाबी मिली।
भारत के लिए भी अच्छा यही है कि वह सोशल मीडिया पर लगाम की वैश्विक कोशिशों का हिस्सा बने। तत्काल इसकी जितनी भी ज्यादा जरूरत हो, यह काम सिर्फ एक देश के स्तर पर होने वाला नहीं है। देश के स्तर पर हम एक ही काम कर सकते हैं कि समाज को ज्यादा से ज्यादा सहिष्णु बनाएं, ताकि नफरत फैलाने की कोशिशें कहीं भी कभी भी कारगर न हो सकें। क्या कोई यह करेगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Rani Sahu
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