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उत्तर प्रदेश सहित देश के पांच राज्यों के चुनाव जैसे-जैसे पास आते जा रहे हैं
शशि शेखर उत्तर प्रदेश सहित देश के पांच राज्यों के चुनाव जैसे-जैसे पास आते जा रहे हैं, भाषा की मर्यादा भी दांव पर लगती जा रही है। ऐसा लगता है, जैसे हम आपसी रिश्तों और सद्भाव के हिम-युग की ओर बढ़ रहे हैं। कहीं ये चुनाव भारत और भारतीयता के चेहरे पर कुछ नई खराशें छोड़कर तो नहीं विदा होंगे?
कीचड़ उछालने की इस प्रवृत्ति ने समाज के सभी तबकों को अपने रंग में रंग दिया है। भरोसा न हो, तो आप हर शाम होने वाली 'टीवी डिबेट्स' को देख लीजिए। चीखते-चिल्लाते-गुर्राते और मेज पर मुक्के मारते एंकर किस मुंह से खुद को पत्रकार कहते हैं? हमें पत्रकारिता के शुरुआती दौर में सिखाया जाता था कि कलम-नवीस न किसी का दोस्त होता है, न दुश्मन। तटस्थता उसके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। टेलीविजन आने के बाद से कलम की जगह भाव-भंगिमाओं ने ले ली है। इसके दुष्प्रभाव सामने हैं। पत्रकार टीआरपी मशीन में तब्दील हो गए हैं। पहले स्थिति जुदा थी।
सन 1997 में एक टीवी शो के प्रतापी संपादक की मृत्यु हो गई थी। उस दिन समूचे संपादकीय विभाग में मातम और क्रंदन का माहौल था। शाम का 'शो' करने के लिए 'एंकर्स' भी मन से खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे, पर कहते हैं न- 'शो मस्ट गो ऑन'। आज के एक नामचीन पत्रकार ने, जो उस समय युवा हुआ करते थे, इस दायित्व को पूरी गरिमा के साथ निभाया था। धीरता और गंभीरता हमारे व्यवसाय की पहचान हुआ करती थी। पत्रकारिता ही क्यों, हिन्दुस्तानी समाज से जुड़े हर क्षेत्र की अगुवाई करने वालों के लिए कुछ बरस पहले तक यह आवश्यक गुण होता था।
अतीत की गलियों में दूर तक भटके बिना आप भारतीय संसद की 20-25 साल पुरानी बहसें एक बार फिर से देखिए। 20-25 साल इसलिए, क्योंकि सदन की कार्यवाही का प्रसारण 1990 के दशक में शुरू हुआ था। तब भी 'वाक आउट' होते थे, सदन की कार्यवाही स्थगित होती थी और कभी-कदा बहस शालीनता की सीमा से आगे भी बढ़ जाती थी। सोमनाथ चटर्जी ने बहैसियत लोकसभा अध्यक्ष इस पर कड़ी टिप्पणी भी की थी। हम जैसे कुछ स्तंभकारों ने उस वक्त भी ऐसे सांसदों पर लगाम कसने की बात कही थी, परंतु आज जो हाल है, उसके सामने वह सब कुछ बेहद बौना है। यही वजह है कि पिछले एक दशक के दौरान संसद की कार्यवाही देखने वालों को कई बार हताशा का सामना करना पड़ा है। हम अपने माननीय सांसदों से इससे बहुत बेहतर की अपेक्षा करते हैं।
यह उम्मीद गलत इसलिए नहीं है, क्योंकि इन्हीं दरो-दीवार के साये में कभी बाल-विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, बाल मजदूरी, दहेज-प्रथा आदि पर रोक लगाकर सांसदों ने समाज का मार्गदर्शन किया था। ये विधान भारतीय समाज में कितना बड़ा बदलाव लाए, इसे बोलने-बताने से ज्यादा महसूस करने की जरूरत है। यह वही संसद है, जहां 'अस्पृश्यता (अपराध) कानून 1955' पास हुआ था और इसी संसद में स्त्री-पुरुष को समान अधिकार दिए गए। यहीं नवंबर, 1949 में संविधान की मूल प्रति प्रस्तुत की गई थी। जरा कल्पना करें, अगर यह सब कुछ न हुआ होता, तो आज का भारत कैसा होता? आज उसी संविधान की कसम खाकर माननीय सांसद और मंत्री अपना कार्यकाल शुरू करते हैं। यह कार्यकाल कितना प्रभावी साबित होता है? क्या वे अपने मतदाताओं से किए गए दावों-वायदों पर कायम रहते हैं?
उत्तर पाने के लिए कृपया इन आंकड़ों पर गौर फरमाएं। सदन का पिछला, यानी मानसून सत्र 19 जुलाई से 13 अगस्त तक चलना था, लेकिन 11 अगस्त को ही सत्रावसान कर दिया गया। इस सत्र में लोकसभा ने तय 96 घंटों में से सिर्फ 21 घंटे, 14 मिनट काम किया, यानी महज 22 फीसदी। वहीं राज्यसभा भी तय अवधि के महज 28 प्रतिशत समय का इस्तेमाल कर सकी। उस सत्र में लोकसभा ने 14 विधेयक पारित किए, जिन पर औसतन 10 मिनट या उससे भी कम वक्त चर्चा हुई। हालांकि, 127वें संविधान संशोधन विधेयक पर दोनों सदनों में पांच घंटे बहस हुई।
मौजूदा शीतकालीन सत्र के शुरुआती कई दिन भी प्रतिरोध की भेंट चढ़ चुके हैं। गजब यह है कि आज जिन पर व्यवधान डालने के आरोप लग रहे हैं, वे साढे़ सात साल पहले सरकार में थे। आज का सत्ता पक्ष तब विपक्षी दीर्घाओं में बैठता था और उसका रवैया भी यही था। ऐसे में, कौन सही, कौन गलत का निर्धारण कैसे होगा? हम शानदार परंपराओं की नींव पर यह कैसी रीति रच रहे हैं?
ध्यान रहे, पत्रकारिता और राजनीति अकेले प्रदूषित नहीं हैं। हमारे शिक्षण संस्थान तक इसकी भेंट चढ़ चुके हैं। तमाम कुलपतियों, शिक्षाविदों और प्राध्यापकों के बयान गवाह हैं कि सरस्वती के मंदिरों में वैचारिक विभाजन अब विस्फोटक स्वरूप लेता जा रहा है। यही हाल सरकारी मशीनरी का है। कुछ अरसा पहले का वाकया है। हिंदी पट्टी के एक कस्बे में प्रादेशिक पुलिस सेवा का एक अफसर खून के प्यासे दो गुटों को उलझने से रोकने में जुटा था। धक्का-मुक्की के उस दौर में उसने पाया कि पुलिसकर्मियों का एक धड़ा सिर्फ मुंह चला रहा है, वह अपेक्षित कोशिश नहीं कर रहा। बाद में जांच के दौरान पता लगा कि निष्क्रिय पुलिसकर्मी संघर्षरत समुदायों में से एक के थे। वे अपने लोगों पर सख्ती नहीं करना चाहते थे। हम कहां तक और कितना विभाजन कर चुके हैं?
नतीजा सामने है। विचारों की जगह अब गढ़े गए आख्यानों ने ले ली है। इस दौर में सच से ज्यादा तर्क और उसकी अदायगी कीमती हो गई है। इसके लिए कोई खास पार्टी या नेता समूह दोषी नहीं है। इस गुनाह में सब शामिल हैं। यह कारगुजारी रुकेगी कैसे?
मैं पूरे सम्मान से अपनी राजनीतिक बिरादरी को याद दिलाना चाहूंगा कि जम्हूरियत में जनता पर राज उन्हीं के मतों से चुनकर आए नुमाइंदे करते हैं। इन माननीयों पर ही देश या प्रदेश को दिशा देने की जिम्मेदारी होती है। हमने राजशाही को तो खत्म किया, पर राजत्व के बेहतरीन उदाहरणों से कुछ नहीं सीखा। एक दौर था, जब विदेहराज सार्थक संदेश देने के लिए हल तक चला देते थे। क्या इतिहास कथाओं की मनपसंद व्याख्या के जरिये अपना काम निकालने वाले कभी उनसे सबक लेंगे?
Rani Sahu
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