सम्पादकीय

सामाजिक चुनौती: आम आदमी को जल्द न्याय मिले, तभी अमृत महोत्सव की सार्थकता

Neha Dani
19 Nov 2022 2:43 AM GMT
सामाजिक चुनौती: आम आदमी को जल्द न्याय मिले, तभी अमृत महोत्सव की सार्थकता
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करोड़ों का कैश नेताओं और अधिकारियों के घरों से मिल रहा है।
चर्चित बॉलीवुड फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' में एक बुजुर्ग अपनी पेंशन के लिए सरकारी क्लर्क के आगे निर्वस्त्र होना शुरू कर देता है, क्योंकि वो फाइल आगे नहीं बढ़ने से निराश होकर सबका ध्यान खींचना चाहता है। बुजुर्ग को देखकर भीड़ इकट्ठा होती है और क्लर्क आनन-फानन में फाइल पर साइन कर देता है। यह किस्सा फिल्मी जरूर है, पर हमारे सिस्टम को गहरी चोट करता है।
देश में इन बुजुर्ग जैसे लाखों लोग हैं, जो सरकारी कार्यालयों की धूल फांक रहे हैं। ताजा उदाहरण राजस्थान के उदयपुर का है, जहां 12 नवंबर को अहमदाबाद रेल मार्ग पर ओड़ा ब्रिज पर ब्लास्ट कर पटरियों को उड़ा दिया गया। घटना के बाद जो खुलासा हुआ, वह कुछ-कुछ फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई से मिलता-जुलता है, फर्क केवल इतना है कि पीड़ितों ने रास्ता गलत चुना।
सरकार के प्रति बढ़ती हताशा
उदयपुर के ओड़ा ब्रिज पर हुए ब्लास्ट के खुलासे ने आमजन की सरकार के प्रति बढ़ती हताशा को दर्शाया है। इस ब्लास्ट के जो आरोपी पकड़े गए हैं, उन्होंने खुलासा किया कि उनकी भूमि रेलवे और हिंदुस्तान जिंक कंपनी ने अधिकृत की थी, लेकिन 45 साल बीत जाने के बावजूद ना तो उन्हें मुआवजा मिला और ना ही नौकरी। सरकारी कार्यालय के वर्षों तक चक्कर लगाने के बाद भी जब सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने ध्यानाकर्षण के लिए रेलवे ट्रैक पर विस्फोटक लगा दिया। पुलिस भी कह रही है कि इनका इरादा किसी की जान लेना नहीं था।
एक दिन पहले मुंबई में मंत्रालय की इमारत से एक व्यक्ति ने कूदकर आत्महत्या की कोशिश की, क्योंकि उसकी महिला मित्र के साथ घटी दुष्कर्म की घटना पर पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, जबकि वो चार पत्र तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे तक को लिख चुका था। शुक्र यह रहा कि मंत्रालय में सुरक्षा की दृष्टि से लगाए जाल में फंसकर उसकी जान बच गई।
यह तो चंद उदाहरण हैं। यदि देशभर की सूची बनाई जाए तो ऐसे लाखों मामले मिलेंगे, जहां आम आदमी सरकारी प्रक्रिया में उलझ कर हताश और निराश हो चुका है। न्याय के लिए गुहार लगाते-लगाते उसकी चप्पले घिस चुकी हैं।
हमारे नेता चुनाव के समय वादे तो लंबे-चौड़े करते हैं। घर-घर जाकर दस्तक देते हैं, पर चुनाव के बाद इन्हीं नेताओं को आम आदमी ढूंढता रह जाता है। आखिर क्या वजह है कि जनता के टैक्स के पैसों से वेतन पाने वाले सरकारी कर्मचारी-अधिकारी आम आदमी का काम करने से परहेज करते हैं।
काम के बदले रिश्वत का चलन आम हो गया है। रोजाना भ्रष्ट अधिकारियों के पकड़े जाने की खबरें आती हैं। करोड़ों का कैश नेताओं और अधिकारियों के घरों से मिल रहा है।

सोर्स: अमर उजाला

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