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नारकोटिक्स ब्यूरो द्वारा फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को ड्रग्स मामले में गिरफ्तार किए
नारकोटिक्स ब्यूरो द्वारा फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को ड्रग्स मामले में गिरफ्तार किए जाने को लेकर जम्मू कश्मीर में पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती ने पिछले दिनों एक ट्वीट किया. उन्होंने लिखा कि-'चार किसानों की हत्या के आरोपी केंद्रीय मंत्री के बेटे के मामले में देश के सामने उदाहरण प्रस्तुत करने के बजाय, केंद्रीय एजेंसियां 23 साल की उम्र के एक लड़के के पीछे सिर्फ इसलिए पड़ी हैं क्योंकि उसका सरनेम खान है. न्याय की विडंबना ये है कि भाजपा अपने कोर वोट बैंक की इच्छाओं को पूरा करने के लिए मुसलमानों को टारगेट कर रही है.'
महबूबा मुफ्ती अकसर अपने विवादास्पद बयानों के कारण सुर्खियों में रहती हैं. उनके ऐसे बयान कभी कश्मीर की अंदरूनी स्थिति को लेकर होते हैं, तो कभी भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर. उनकी राजनीतिक शैली से भी सभी वाकिफ हैं और जानते हैं कि इसी तरह के बयान देकर वे अपने आपको चर्चित बनाए रखती हैं. लेकिन आर्यन खान के मामले में महबूबा मुफ्ती का बयान कुछ बुनियादी सवालों पर गौर करने की मांग करता है.
आपको याद होगा कई साल पहले देश में एक जुमला उछाला गया था- 'हिन्दू आतंकवाद' का. उस समय सांप्रदायिक दृष्टि से इस पर जो प्रतिक्रिया हुई थी उसकी बात छोड़ भी दें, तो मुख्य मुद्दा यह उठा था कि आतंकवाद को सिर्फ आतंकवाद की दृष्टि से देखा जाए या उसके हिन्दू या मुस्लिम होने के लिहाज से. ज्यादातर लोगों की राय थी कि आतंकवादियों की न तो कोई जाति होती है और न कोई धर्म.
वे अपने हिसाब से किसी भी लक्ष्य के लिए काम कर रहे हों, लेकिन मूलत: वे मानवता के विरुद्ध काम कर रहे होते हैं. और व्यक्ति चाहे कोई भी हो, चाहे किसी भी धर्म या पंथ को मानने वाला हो, यदि वह आतंकवादी गतिविधियों में शामिल है तो उसकी पहचान या उसका बचाव उसकी जाति, धर्म या पंथ के आधार पर नहीं होना चाहिए.
ठीक यही मामला अपराधों पर भी लागू होता है. कानून के हिसाब से यदि कोई कृत्य अपराध की श्रेणी में आता है तो उसे करने वाले को हम जाति, धर्म या पंथ के आधार पर न तो प्रश्रय दे सकते हैं और न ही उसका बचाव कर सकते हैं. उसके बारे में कोई भी फैसला कानून के हिसाब से ही होना चाहिए. लेकिन ऐसा लगता है कि इन दिनों अपराध या अपराधियों के बचाव के लिए जाति, धर्म या पंथ से संलग्नता को आधार बनाया जाने लगा है और उसी हिसाब से घटना या कृत्य के समर्थन और विरोध में लोगों को जुटाया जाता है.
याद कीजिये कुछ समय पहले ऐसा ही एक मामला उत्तर प्रदेश में हुआ था, जहां पुलिस पार्टी पर हमला करके कई लोगों की जान लेने वाले विकास दुबे और उसके गिरोह के खिलाफ की गई कार्रवाई को राज्य में ब्राह्मणों के खिलाफ की गई कार्रवाई का रंग देने की कोशिश करते हुए अपराधियों के बचाव का उपक्रम किया गया था. उत्तर प्रदेश की राजनीति के स्वरूप को देखते हुए कई राजनीतिक दलों ने इस भावना को हवा देने की कोशिश की थी उत्तरप्रदेश की सरकार ब्राह्मण विरोधी है.
हाल ही में मध्यप्रदेश के सागर जिले में ऐसी ही एक घटना मीडिया की सुर्खी बनी थी. जिले के नरयावली में प्रेम संबंधों से नाराज एक परिवार ने एक युवक को पेट्रोल छिड़क कर जला दिया था. मृत्यु पूर्व बयान में युवक ने जिन लोगों के नाम लिए पुलिस ने सभी को गिरफ्तार कर लिया. पीडि़त परिवार के नाराज लोगों ने युवक के हत्यारों पर सख्त कार्रवाई की मांग की जिसमें उनकी संपत्ति को नष्ट किए जाने की मांग भी शामिल थी.
पुलिस कोई कार्रवाई करती उससे पहले माहौल को दूसरा ही रंग दे दिया गया. चूंकि आरोपी ब्राह्मण वर्ग से थे, इसलिए लोगों को इकट्ठा कर प्रदर्शन के जरिये यह कहते हुए शासन प्रशासन पर दबाव बनाने की कोशिश की यह कार्रवाई ब्राह्मण विरोधी है.
राजनीति में तो यह खेल बरसों से चला आ रहा है. वहां जाति, धर्म, पंथ आदि की आड़ लेकर लोगों को जुटाने से लेकर उन्हें भड़काने के सारे धतकरम किए जाते रहे हैं. पिछले दिनों संसद में जब विपक्ष ने किसान बिलों और कुछ अन्य मुद्दों को लेकर सदन की कार्यवाही ठप की तो सरकार की ओर से कहा गया कि विपक्ष दलित और ओबीसी विरोधी है, क्योंकि सरकार ने मंत्रिमंडल के ताजा फेरबदल में कई दलित और ओबीसी चेहरों को मौका दिया है और सदन में उनका परिचय देने की प्रक्रिया का पालन किया जा रहा तो विपक्ष हंगामा खड़ा कर रहा है.
12 अक्टूबर को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के स्थापना दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री ने मानवाधिकारों के मामले में भी 'सिलेक्टिव एप्रोच' पर तंज कसते हुए कहा था- 'हाल के वर्षों में मानवाधिकार की व्याख्या कुछ लोग अपने-अपने तरीके से, अपने-अपने हितों को देखकर करने लगे हैं. एक ही प्रकार की किसी घटना में कुछ लोगों को मानवाधिकार का हनन दिखता है और वैसी ही किसी दूसरी घटना में उन्हीं लोगों को मानवाधिकार का हनन नहीं दिखता. मानवाधिकार का बहुत ज्यादा हनन तब होता है, जब उसे राजनीतिक रंग से देखा जाता है, राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है, राजनीतिक नफा-नुकसान के तराजू से तौला जाता है. इस तरह का सलेक्टिव व्यवहार, लोकतंत्र के लिए भी उतना ही नुकसानदायक होता है.'
सबसे गंभीर बात ये है कि हम राजनीति और लोक व्यवहार में अपनाई जाने वाली इस 'सिलेक्टिव एप्रोच' को अपराध और अपराधी तक खींच लाए हैं. सवाल सिर्फ कानून व्यवस्था और शासन प्रशासन का ही नहीं है, एक लोकतंत्र के नाते भी हमें यह तय करना होगा कि क्या अब हम अपराध और अपराधियों के बारे में भी अपनी धारणा उनकी जाति, धर्म या पंथ को लेकर बनाएंगे या फिर किए गए अपराध की गंभीरता के आधार पर. निश्चित रूप से आर्यन खान वाला मामला एक युवक से जुड़ा है लेकिन जब तक कानूनी प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक किसी को भी यह फतवा जारी नहीं कर देना चाहिए कि ऐसा तो अमुक की जाति, पंथ या सरनेम के कारण हो रहा है.
किसी एक सरनेम या जाति वाले व्यक्ति के अपराध करने पर पूरी जाति या उस सरनेम वाले सभी लोग अपराधी नहीं हो जाते. एक व्यक्ति के गलत काम को उसके पूरे समुदाय पर आरोपित कर देना भी गलत है और उस समुदाय की राजनीतिक या सामाजिक हैसियत के हिसाब से उसे छूट देने की मांग करना भी गलत है. जरूरत इस बात की है कि ऐसे मामलों में हम कानून से जुड़ी एजेंसियों और अदालतों को अपना काम करने दें. क्योंकि तभी हम कह सकेंगे कि देश में कानून और संविधान का राज है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
गिरीश उपाध्याय, पत्रकार, लेखक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. नई दुनिया के संपादक रह चुके हैं.
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