सम्पादकीय

तो पीड़ित क्या करें?

Gulabi
4 Oct 2021 4:30 PM GMT
तो पीड़ित क्या करें?
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किसान आंदोलन के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने जो सवाल पूछे, वे अतार्किक नहीं हैं

क्या साक्ष्यों के आधार पर कोई यह कह सकता है कि तीन कृषि कानून पूर्ण लोकतांत्रिक भावना के साथ पारित कराए गए? सभी पक्षों के साथ आम सहमति तैयार करना तो दूर, राज्य सभा में कानूनों को पारित कराते समय आम संसदीय परंपरा का भी पालन नहीं किया गया। तो किसान आखिर क्या करें? Farmers Movement Supreme Court


किसान आंदोलन के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने जो सवाल पूछे, वे अतार्किक नहीं हैं। लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि वे संदर्भ से कटे हुए हैँ। संदर्भ से मतलब इस समय की देश की राजनीतिक स्थितियां हैँ। देश में सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया चल रही है, ये बात तो अब लोकतंत्र का अध्ययन करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी नहीं कहती हैँ। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ एक निश्चित अवधि के बाद चुनाव करा लेना ही नहीं होता है। बल्कि लोकतांत्रिक सहमति से शासन का नाम है। टकरा विभिन्न हितों और विचारों के बीच एक मोटी आम सहमति तैयार करना सरकार की जिम्मेदारी होती है, जिसे शासन चलाने के लिए जनादेश मिला होता है। सरकार की शक्ति पर रोक और अवरोध के लिए संस्थाएं भी इसी मकसद से बनाई जाती हैं कि सरकार जनादेश का मतलब मनमानी करना ना समझ ले। क्या साक्ष्यों के आधार पर कोई यह कह सकता है कि तीन कृषि कानून पूर्ण लोकतांत्रिक भावना के साथ पारित कराए गए? सभी पक्षों के साथ आम सहमति तैयार करना तो दूर, राज्य सभा में कानूनों को पारित कराते समय आम संसदीय परंपरा का भी पालन नहीं किया गया। तो जो किसान उन कानूनों से खुद को पीड़ित पा रहे हैं, वे क्या करें?

माननीय सुप्रीम कोर्ट की राय है कि तब उन्हें खुद को न्यायिक निर्णय के आगे समर्पित कर देना चाहिए। मगर कश्मीर में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं से लेकिन सीएए-विरोधी आंदोलन में लंबित मामलों और जन हित के ऐसे अनगिनत मुद्दों पर आखिर हाल के वर्षों में न्यायपालिका ने क्या पहल की है? इसलिए अगर किसान संगठन यह समझते हैं कि मामला उनके और सरकार के बीच है और उन्हीं के बीच हल होगा, तो ये समझ गलत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सड़कों को हमेशा के लिए अवरुद्ध नहीं किया जा सकता है। बात वाजिब है। लेकिन किसान संगठनों को क्या करना चाहिए? क्या वे कृषि कानूनों को अपनी किस्मत मान कर उसके परिणामों को भुगतने के लिए वापस अपने घर चले जाएं? बेशक राजमार्गों को जाम करने का बुरा असर आबादी के एक हिस्से पर पड़ता है। लेकिन किसान भी इसी देश की आबादी का हिस्सा हैँ। कहा जाता है कि अगर समृद्धि और शांति साझा ना हो, तो वह टिकाऊ नहीं होती है। किसान आंदोलन के सिलसिले में ये बात याद रखी जानी चाहिए।



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