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नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन कमोबेश खत्म हो गया है।
अर्थशास्त्री व पूर्व केंद्रीय मंत्री नीलेश सिंह: नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन कमोबेश खत्म हो गया है। इससे राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों की घर वापसी की राह तो सुनिश्चित हो गई है, मगर सवाल बना हुआ है कि इस आंदोलन से क्या देश भर के किसानों को लाभ पहुंचा? अच्छी बात है कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में अब न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदारी सुनिश्चित की जाएगी। लेकिन उन राज्यों का क्या, जहां एमएसपी तो दूर की कौड़ी है, बाजार तक सही ढंग से काम नहीं कर रहे? बिहार के किसान तो इसी वजह से अब सड़कों पर उतरने लगे हैं।
नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने एक फ्रेमवर्क तैयार किया था कि कृषि सुधारों को अखिल भारतीय स्तर पर किस तरह से लागू किया जाना चाहिए। चूंकि कोरोना-संक्रमण काल में माल ढुलाई और परिवहन कमोबेश बंद थे, इसलिए कृषि सुधारों की तरफ बढ़ना मुफीद नहीं था। रमेश चंद ने इसीलिए राज्य सरकारों को विश्वास में लेकर धीरे-धीरे सुधार की बात कही थी। रद्द किए गए कानून कृषि सुधारों की ही वकालत कर रहे थे, इसीलिए अब भी उनको लाया जा सकता है। आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्देनजर इनको वापस लिया गया है, पर जब चुनाव की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी, तो मुमकिन है कि अलग तरीके से इनको फिर से लागू करने के प्रयास हों।
कृषि सुधार बिहार और झारखंड के किसानों के लिए अहम है। आंदोलनरत किसानों ने एमएसपी की कानूनी गारंटी की बात तो की, लेकिन धान और गेहूं को छोड़ दें, तो बाकी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य मायने नहीं रखता है। कपास, तिलहन जैसी फसलों के लिए तो एमएसपी बेमानी ही है। इसीलिए महामारी के बाद जब आवागमन सुगम हो जाएगा और माल ढुलाई पुरानी रफ्तार पकड़ लेगी, तब एमएसपी की चर्चा शायद ही होगी। एमएसपी की कानूनी गारंटी महज संकेतक रह जाएगी। किसानों को बाजार के साथ-साथ आवागमन की सुविधा मिले, तो वे भला सरकारी मंडियों के भरोसे क्यों रहेंगे? वे अपनी फसलों को बाहर भेज सकेंगे, जहां से उनको अच्छी कीमत मिल सकेगी।
संयुक्त किसान मोर्चा के आंदोलन की सफलता ने अन्य किसानों को भी प्रोत्साहित किया है। देश के कुछ हिस्सों में किसान अपनी आवाज उठाने भी लगे हैं। मगर इसकी वजह सरकार की कार्यप्रणाली है। निस्संदेह, किसान हरेक मुद्दे पर तो सड़क पर नहीं बैठेंगे, लेकिन सरकार अगर जल्दबाजी करेगी और बिना चर्चा-विमर्श के कानून थोपने के प्रयास करेगी, तो उसका पुरजोर विरोध होगा ही। बिहार में ही बहुत से जिले हैं, जहां अच्छी खेती हो रही है। वे देश की कुल धान पैदावार में 20 फीसदी का योगदान दे रहे हैं। भुट्टे (मकई) की उपज भी बिहार में बहुत है। मकई आज उद्योगों की एक बड़ी जरूरत है। चूंकि बिहार उस दौर को देख चुका है, जब वहां के खेत सोना उगला करते थे, इसलिए वहां खेती के बुनियादी ढांचे पर काम करने की जरूरत है।
वहां भूमि सुधार पर आगे बढ़ना चाहिए। आज वहां ज्यादातर किसान बंटाई पर खेती करते हैं। खेत के असली मालिक तो शहरों में रहते हैं। उन किसानों के हित की बात हमें करनी चाहिए। बिचौलिए इन्हीं किसानों से सस्ते दामों में फसल खरीद लेते हैं और ऊंची कीमतों में शहरों में बेचते हैं। इस तरह, उपज का बड़ा फायदा बिचौलिये के खाते में चला जाता है। यहां अगर एमएसपी भी लागू की गई, तो बात नहीं बनेगी। या तो खेत मालिक या बिचौलिए उन लाभों को कूट खाएंगे।
देखा जाए, तो भूमि सुधार पूरे देश में विफल हो गया है। देश के कई हिस्सों में किसानों की हैसियत बस खेतिहर मजदूर की है। झारखंड भी इसका अपवाद नहीं है। यहां वनोपज पर उनकी निर्भरता काफी ज्यादा है, लेकिन वनोपज बढ़ानेको लेकर जो हमारी वन नीति है, उसका भी खूब उल्लंघन किया जाता है। आंकड़े भी यही बताते हैं कि वनों से लकड़ियां गैर-कानूनी तरीके से काटी जा रही हैं। ट्रांसपोर्ट सर्वे में गैर-कानूनी लकड़ियों के वक्त-बेवक्त पकड़े जाने की बात है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि वन बढ़ाने को लेकर अपने यहां काम नहीं हुआ है। वन नीति की बदौलत ही उनका क्षेत्रफल अक्षुण्ण बना हुआ है। हां, घने जंगल जरूर कम हुए हैं, लेकिन वृक्षारोपण में बढ़ोतरी से हालात काफी हद तक स्थिर हैं। वहां के किसानों को वनोत्पाद में साझेदारी दी जानी चाहिए। कुछ जगहों पर ऐसा होता है, लेकिन इसे व्यापक तौर पर लागू किए जाने की जरूरत है। मध्य प्रदेश में भी ऐसा किया जाना चाहिए। वनों की अवैध कटाई की भरपाई 'फार्म फॉरेस्ट्री' (व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए पेड़ उगाना) से होनी चाहिए।
कृषि सुधार की दरकार क्यों है, इसका एक बड़ा उदाहरण नर्मदा नदी के तट पर खेती करने वाले किसान हैं। नर्मदा से निकली नहरों को यदि कंप्यूटर कंट्रोल्ड कैनाल सिस्टम से जोड़ दिया जाता, तो वहां के किसान तंबाकू, दाल, तिलहन की खेती कर सकते, जिससे उत्पादन खासा बढ़ जाता। हमारी कोशिश यही थी, लेकिन वह प्रयास परवान नहीं चढ़ सका और इसका पानी बस डांगर (धान) की खेती के काम आ सका। कंप्यूटर कंट्रोल्ड सिस्टम की दिशा में पिछले 20 साल का हासिल बस यही है कि इस बाबत महज टेंडर जारी हुए हैं। नतीजतन, निचले इलाकों के किसानों को तो पानी मिल जाता है, लेकिन बाकी किसान खाली हाथ रहते हैं। अभी 30 फीसदी किसानों को नर्मदा का पानी नहीं मिलता। इसका अर्थ यह है कि तीन में से एक किसान को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है। बाढ़ से जो पानी आता है, उसी से वे अपनी सिंचाई संबंधी जरूरतें पूरी करते हैं। और, हम उन पर यह तोहमत लगाते हैं कि वे तिलहन की खेती नहीं करते।
लब्बोलुआब यही है कि चुनावों के बाद हमें फिर से सुधारों की तरफ बढ़ना चाहिए। मगर हां, इस बार बेवजह की सक्रियता नहीं दिखानी चाहिए। किसानों को उनके हित समझाने होंगे। महाराष्ट्र में ही आंदोलन के दौरान किसानों का एक मार्च नासिक से मंुबई आया था। जब वे मुंबई पहुंचे, तो उनको बताया गया कि बच्चों की परीक्षा के कारण उन्हें शहर में नहीं आना चाहिए। वे तुरंत मान गए और परीक्षा तक शहर की सीमा से बाहर रहे। जाहिर है, अगर तरीका सही हो, तो दिक्कत नहीं होगी। और अगर एकाध मुश्किलें खड़ी होती भी हैं, तो उनको किनारे किया जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Deepa Sahu
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