सम्पादकीय

ताकि न आए आलोचना की नौबत

Rani Sahu
4 July 2022 5:02 PM GMT
ताकि न आए आलोचना की नौबत
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सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायमूर्तियों द्वारा की गई अलिखित टिप्पणियां पूरे देश में चर्चा में हैं

हरबंश दीक्षित,

सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायमूर्तियों द्वारा की गई अलिखित टिप्पणियां पूरे देश में चर्चा में हैं। नूपुर शर्मा की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्तियों द्वारा की गई टिप्पणियों पर सोशल मीडिया में जिस तरह की अवांछित तथा अमर्यादित प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उन्हें किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। एक न्यायमूर्ति ने इस पर घोर आपत्ति की है। बचाव में कुछ लोग यह कह रहे हैं कि वह टिप्पणी अदालती निर्णय का हिस्सा नहीं थी और वे न्यायाधीश के व्यक्तिगत विचार थे। इसलिए लोगों का टिप्पणी करना उनकी अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा है। वजह तथा परिस्थितियां जो भी हों, लोकशाही में इस तरह का आचरण स्वीकार नहीं किया जा सकता। अन्य संस्थाओं की तरह न्यायपालिका भी लोकशाही का महत्वपूर्ण स्तंभ है और यह हम सभी की साझा जिम्मेदारी है कि अपनी बात कहते समय मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं हो। ध्यान रहे, अभिव्यक्ति की आजादी हमें कभी भी किसी सांविधानिक संस्था की प्रतिष्ठा पर आघात पहुंचाने की छूट नहीं देती है।
अदालती निर्णयों या टिप्पणियों के परिणामस्वरूप मानवता ने बहुत कठिन दौर देखे हैं। मसलन, अमेरिका में 'डेज्ड स्कॉट बनाम सेन्डफोर्ड' मामले में तो हालात यहां तक पहुंच गए थे कि अमेरिका में गृह युद्ध छिड़ गया था। बात तब की है, जब हम आजादी की पहली लड़ाई लड़ रहे थे। तब अमेरिका के कुछ राज्यों में दासप्रथा को कानूनी मान्यता हासिल थी और दास किसी दूसरी वस्तु की तरह खरीदे और बेचे जा सकते थे। कुछ राज्य ऐसे भी थे, जिनमें दासप्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया था। डेज्ड स्कॉट नामक दास मिसौरी में अपने मालिक के साथ रहता था, जहां दासप्रथा वैध थी। एक दिन उसके मालिक उसे लेकर इलिनॉय राज्य गए, जहां दासप्रथा गैर-कानूनी थी। वहां से मिसौरी लौटने पर स्कॉट ने अदालत में अर्जी दी कि उसे स्वतंत्र नागरिक का दर्जा और उससे जुड़े अधिकार दिए जाएं। उसकी दलील थी कि जब वह इलिनॉय राज्य गया, तब वहां दासप्रथा गैर-कानूनी होने के कारण वह आजाद हो गया है और एक बार स्वतंत्र हो जाने के बाद उसे पुन: दास नहीं बनाया जा सकता। मिसौरी की अदालत ने डेज्ड स्कॉट की दलील को अस्वीकार कर दिया। इससे निराश डेज्ड स्कॉट ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कोर्ट के सामने सवाल खड़ा हो गया कि यदि कोई दास एक बार आजाद नागरिक हो जाए, तो क्या वह पुन: दास हो सकता है? यह कानून के अर्थान्वयन का मामला था और अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट अपने को वहीं तक सीमित रख सकता था, पर अदालत ने कह दिया कि अफ्रीकी मूल के किसी व्यक्ति को, चाहे वह दास हो या नहीं, अमेरिकी नागरिकता नहीं दी जा सकती। यही नहीं, प्रधान न्यायाधीश रोजर टेनी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि अमेरिकी संविधान की कभी यह मंशा नहीं थी कि अफ्रीकी लोगों को अमेरिकी नागरिक माना जाए। कोर्ट यहीं नहीं रुका, उसने दासप्रथा को मजबूत करने की कोशिश की, कहा कि मिसौरी समझौते की कुछ बातें दासप्रथा के पालन में बाधा पहुंचाती हैं, इसलिए असांविधानिक हैं। इस तरह अदालत ने किसी दास के आजाद नागरिक बनने के रास्ते बंद कर दिए।
इस निर्णय के बाद की प्रतिक्रिया कल्पना से परे थी। अमेरिकी आबादी के एक हिस्से के मन में गहरा अन्याय-बोध पनपा, जिसकी परिणति अमेरिकी गृह युद्ध के रूप में हुई। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को इसकी कीमत अपनी आहूति देकर चुकानी पड़ी। अमेरिका ने इससे सबक सीखा, संविधान का 13वां और 14वां संविधान संशोधन लाया गया। 13वें संशोधन द्वारा दासप्रथा समाप्त कर दी गई तथा 14वेें संविधान संशोधन द्वारा अमेरिका में रहने वाले हरेक व्यक्ति को नागरिकता का अधिकार दिया गया।
बहुत से लोग अमेरिकी गृह युद्ध के लिए अदालत द्वारा डेज्ड स्कॉट के मामले में की गई गैर-जरूरी टिप्पणी को भी जिम्मेदार मानते हैं। वाकई समस्या तब खड़ी हो जाती है, जब न्यायाधीश के रूप में कार्य करते समय ऐसी गैर-जरूरी टिप्पणी की जाए, जो मीडिया के लिए तो बड़ी खबर बन जाए, किंतु न्यायालय के आदेश का हिस्सा न होने के कारण उसके परिष्करण का कोई रास्ता ही नहीं रहे।
अपने देश में न्यायपालिका के आदेश मंत्राक्षर जितने ताकतवर होते हैं। समाज उनके प्रति सम्मान का भाव रखता है, फैसलों में लिखे अर्द्ध-विराम और पूर्ण-विराम तक पर व्यापक चर्चा होती है। एक-एक हिस्से का क्रियान्वयन किया जाता है और उनके किसी भी हिस्से को हल्के में नहीं लिया जाता। न्यायाधीश के आसन से कही गई हर बात न्यायालय की औपचारिक टिप्पणी होती है। जनमानस उसे कानून और संविधान के बराबर की मान्यता देता है। सभी पक्षों को ध्यान रखना चाहिए कि अनेक लोग उसका उपयोग अपने को मजबूत करने या दूसरे को गिराने के लिए भी कर सकते हैं। कोई कुछ भी कहता रहे, अनेक लोग किसी अलिखित अदालती टिप्पणी को सामान्य टिप्पणी मानने को तैयार नहीं होते हैं। ज्यादातर लोग न्याय के घर से आई हर टिप्पणी को आदर्श मानते हैं।
अदालतों की टिप्पणी और अकादमिक विमर्शों में व्यक्त विचारों में अंतर होता है। अकादमिक विमर्श में की गई टिप्पणी को लोग गंभीरता से नहीं लेते हैं। किसी सिद्धांत की स्थापना करना, उसे नकारना, अपने मंतव्य व्यक्त करना इत्यादि उस विमर्श का हिस्सा होता है और उनकी ताकत भी होती है। इसके ठीक उलट अदालतों की टिप्पणियों को ब्रह्म वाक्य जैसा माना जाता है। अदालत की टिप्पणियों का हवाला देकर अपने पक्ष में या किसी के खिलाफ माहौल तैयार किया जा सकता है और यहां तक कि देश की दूसरी अदालतों की सोच को भी प्रभावित किया जा सकता है।
अदालतों की गैर-जरूरी टिप्पणी का एक नुकसान यह भी है कि उससे एक ऐसे अंतहीन बहस की शुरुआत होती है, जिसका कोई आधार और ओर-छोर नहीं होता है। न्यायालयों की अंतर्निहित सीमा यह है कि वे सार्वजनिक तौर पर अपना बचाव नहीं कर सकते। इसलिए इतिहास ने हमें सबक दिया है कि यह स्वयं न्यायपालिका के हित में है कि अदालतों को किसी के बारे में भी गैर-जरूरी टिप्पणी से बचना चाहिए।
सोर्स- Hindustan Opinion Column


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