सम्पादकीय

स्मृति: दिल्ली वाले भी नहीं जानते लाला हरदयाल को, आजादी के संघर्ष में बीता पूरा जीवन

Gulabi
3 Sep 2021 5:40 AM GMT
स्मृति: दिल्ली वाले भी नहीं जानते लाला हरदयाल को, आजादी के संघर्ष में बीता पूरा जीवन
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आजादी के संघर्ष में बीता पूरा जीवन

आज दिल्ली वाले लाला हरदयाल का नाम नहीं जानते। मकान उनका चांदनी चौक की तंग गलियों में था, जिसका अब नाम-ओ-निशान नहीं। दिल्ली में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग के नाम पर जो पुस्तकालय था, उसे अब लाला हरदयाल के नाम से जाना जाता है। हरदयाल के पिता गौरीदयाल दिल्ली कचहरी में पेशकार थे। हरदयाल में गजब की प्रतिभा थी। सेंट स्टीफेंस कॉलेज से उन्होंने बीए पास किया, तो प्रांत भर में दूसरे नंबर पर रहे। एमए में अंग्रेजी और इतिहास की परीक्षाओं में तो उन्होंने सार रिकॉर्ड तोड़ दिए। सभी परीक्षक अंग्रेज थे और उन्होंने हरदयाल को शत-प्रतिशत अंक दिए थे

दिल्ली में पढ़ाई के दौरान प्रसिद्ध क्रांतिकारी मास्टर अमीरचंद से उनका संपर्क हुआ और वह उनकी क्रांतिकारी संस्था के सदस्य बन गए। वर्ष 1905 में हरदयाल को भारत सरकार से छात्रवृत्ति मिली। उच्च शिक्षा के लिए वह ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज पहुंचे, पर एकाएक मन में आया कि विदेशी शिक्षा बकवास है, अब देश का काम किया जाए।
भाई परमानंद वहीं थे, उन्होंने उन्हें समझाया तो हरदयाल बोले, मैंने राजकीय छात्रवृत्ति के अलावा 130 पौंड की दो दूसरी छात्रवृत्तियों को भी लात मार दी है क्योंकि यह पाप का धन है। अंग्रेजों की शिक्षा और उपाधियां तो हम भारतीयों को राष्ट्रीयता से गिराने के लिए दी जाती है। श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ मिलकर उन्होंने 'पॉलिटिकल मिशनरी सोसायटी' बनाई। मई 1907 में श्यामजी के मासिक पत्र सोशियोलॉजिस्ट में उनकी एक मार्मिक अपील देश के स्वतंत्रता के लिए छपी। उन्होंने आजादी के लिए एक योजना तैयार है।
हरदयाल का ब्याह सोलह वर्ष की आयु में ही हो चुका था, पर उन्होंने आजादी के लिए एक योजना भी तैयार की थी। लड़की पैदा हुई, फिर भी वह क्रांति पथ से विमुख नहीं हुए। उसके बाद वह दिल्ली ठहरे भी नहीं और लाहौर होते हुए पेरिस निकल गए। सरदार सिंह राणा और श्यामजी कृष्ण से संपर्क होने के बाद तय हुआ कि जिनेवा से वंदे मातरम् प्रकाशित किया जाए। हरदयाल उसके संपादक बने। लेकिन वहां से वह अल्जीरिया चले गए, फिर वेस्ट इंडीज के टापू ला-मार्तनीक होते हुए अमेरिका में जा बसे और सेन फ्रांसिस्को में अध्यापन कार्य शुरू किया।
वर्ष 1912 में उन्हें स्टेनफोर्ड विश्विद्यालय में भारतीय दर्शन और संस्कृत के अध्यापक का पद मिल गया। वेतन था दो हजार रुपये। लेकिन कुछ समय के बाद उन्होंने त्यागपत्र देकर गरीबों के बीच व्यख्यान देना शुरू किया। इससे हरदयाल का प्रभाव बहुत बढ़ गया। वहां के राष्ट्रपति तक उनकी योग्यता और प्रतिभा की कद्र करने लगे। उसी समय उन्होंने नवीन गीता की रचना की। देश की घटनाओं पर वह गहरी नजर रखे हुए थे। 23 दिसंबर 1912 को दिल्ली के चांदनी चौक में जब वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंका गया, तो हरदयाल ने सेन फ्रांसिस्को की सभा में कहा- पगड़ी अपनी संभालिए मीर, और बस्ती नहीं ये दिल्ली है।
हरदयाल ने फिर युगांतर नाम से पर्चा छापा, जिससे वहां रह रहे भारतीयों में उत्तेजना फैल गई। उसके बाद उन्होंने सेन फ्रांसिस्को में एक बड़ी सभा बुलाई जिसमें प्रवासी भारतीयों से देश के स्वतंत्रता संघर्ष में सहयोग की अपील की। पैंतालीस हजार रुपये चंदा जमा हुआ। 'इंडिया लीग' बनी और 1857 के गदर की याद में 'गदर' पत्र छापने का निश्चय किया। बाद में यह संस्था भी गदर पार्टी के नाम से विख्यात हुई जिसके अध्यक्ष बाबा सोहन सिंह और मंत्री हरदयाल बने। गदर का प्रकाशन हिंदी, उर्दू, मराठी और गुरमुखी में हुआ। यह अखबार गुप्त रूप से भारत भी आता था। गदर पार्टी के माध्यम से हरदयाल ने विदेशों में चल रहे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था। इस संगठन ने अपने सदस्य भारत भेजकर छावनियों में एक बड़े विप्लव की तैयारी की थी, लेकिन 21 फरवरी 1916 को होने वाली क्रांति विफल हो गई। मुकदमा चला, जिसमें कई लोगों को काला पानी और फांसी की सजा हुई। लाला हरदयाल भी अपना काम चालू न रख सके। वह पकड़ लिए गए और पांच हजार की जमानत मिलते ही स्विट्जरलैंड चले गए।
उन्होंने वहां रह रहे भारतीय क्रांतिकारियों से संपर्क किया और देश को स्वतंत्र कराने के लिए एक सेना संगठित की। जर्मन अधिकारियों और वहां की सरकार से उनके संबंध हो गए थे। पर भारत पर आक्रमण करने की उनकी योजना वहां के सैन्य अधिकारियों के असहयोग के चलते कामयाब नहीं हो सकी। निराश हो वह स्वीडन पहुंचे, फिर वहां से 1927 में इंग्लैंड जाकर उन्होंने अध्ययन-मनन का काम शुरू किया। वर्ष 1938 में उन्हें भारत आने की अनुमति मिली, पर वह आए नहीं। वहीं 1939 में विष देकर उनकी हत्या कर दी गई।
विदेशों में ऋषि कहे जाने वाले लाला हरदयाल का पूरा जीवन संघर्ष में बीता। कई बार तो यूरोप की कड़ी सर्दी में उन्हें अपना कोट गिरवी रख रोटियां जुटानी पड़ती थीं। वह 18 भाषाओं के ज्ञाता बन चुके थे। उनकी स्मरण शक्ति गजब की थी और हिंदी से उन्हें अगाध प्रेम था। दिल्ली के क्रांतिकारी लाला हनुवंत सहाय उनके घनिष्ठ मित्र थे। साथी गोविंद बिहारी लाल ने उनकी जीवनी लिखी थी जो छपी नहीं। राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में लाला हरदयाल ने पूरे एक युग का प्रतिनिधित्व किया था। कौन सोचे कि दिल्ली के किसी गोल चौराहे पर हरदयाल का आदमकद बुत लगे!
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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