सम्पादकीय

पड़ोस में सुलगती आग, अफगानिस्तान में हिंसा का दौर

Gulabi
1 Dec 2020 8:10 AM GMT
पड़ोस में सुलगती आग, अफगानिस्तान में हिंसा का दौर
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पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान में हिंसक घटनाएं अचानक बढ़ गई हैं।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान में हिंसक घटनाएं अचानक बढ़ गई हैं। काबुल यूनिवर्सिटी पर हुए आतंकी हमले को महीना भी नहीं बीता था कि गुजरे रविवार एक सैन्य अड्डे पर हुए फिदायीन हमले में कम से कम 34 लोग मारे गए, जिनमें ज्यादातर सैनिक थे। इसके बाद सेना के साथ अलग-अलग हुई झड़पों में कम से कम 30 तालिबान लड़ाकों के मारे जाने की खबर है। 12 सितंबर से तालिबान के साथ दोहा में जारी सरकारी नुमाइंदों की शांति वार्ता के मद्देनजर ये घटनाएं खास अहमियत रखती हैं। इस अवधि के शुरुआती दौर में भी हिंसा की कई घटनाएं हुईं, लेकिन तालिबान इस बात को लेकर खासे सतर्क दिखते थे कि उनका नाम इन घटनाओं से न जुड़े।




रविवार को हुए हमले के बाद समाचार एजेंसियों की ओर से संपर्क किए जाने पर भी तालिबान प्रवक्ता ने इन घटनाओं में अपना हाथ होने से इनकार नहीं किया। सैन्य कार्रवाई में बड़ी संख्या में तालिबानों का मारा जाना बताता है कि सरकार और सेना में भी इस सवाल पर कोई दुविधा नहीं थी कि हमले के पीछे किसका हाथ है। यह स्थिति बताती है कि आने वाले दिनों में अफगानिस्तान में शांति बने रहने की उम्मीद कम है। हालांकि शांति वार्ता अभी भंग नहीं हुई है लेकिन इन वार्ताओं के पीछे मुख्य भूमिका अमेरिकी दबाव की ही थी। बातचीत शुरू होने के बाद कुछ मामलों में सहमति बनने की खबरें भी आईं, लेकिन अफगानिस्तान सरकार की ओर से उन सहमतियों की औपचारिक पुष्टि अबतक नहीं की गई है।

साफ है कि तालिबान के साथ समझौते में जाकर उनके साथ सत्ता साझा करने की बात अफगानिस्तान के मौजूदा सत्ताधीशों को खास पसंद नहीं आ रही। बात अगर तालिबानी प्रभाव की करें तो आईएसआईएस की गतिविधियां इस बात का प्रमाण हैं कि उसमें सेंध लग चुकी है। तालिबान के शांति वार्ता में आने के बावजूद अफगानिस्तान में हिंसा की घटनाएं होती रहीं और आईएसआईएस इनकी जिम्मेदारी भी लेता रहा। अब आईएसआईएस तो किसी शांति वार्ता का हिस्सा है नहीं। उसकी जो बनावट है और जो उसका लक्ष्य है, उसमें दुनिया की किसी सरकार से बातचीत या सुलह-समझौते की गुंजाइश भी नहीं बनती। ऐसे में इन गतिविधियों का सीधा नतीजा फिलहाल यही निकल रहा है कि तालिबान की अमेरिका और अफगान सरकार से सौदेबाजी की क्षमता कम हो रही है।

फिर यह सवाल भी है कि अमेरिका की नई सरकार इस शांति वार्ता को लेकर कैसा रुख अपनाती है। इस बात का जवाब मिलना भी बाकी है कि बाइडन प्रशासन का पाकिस्तान के प्रति नजरिया ट्रंप से कितना अलग रहता है। कुल मिलाकर यह समय अफगानिस्तान में दुविधा और संदेह का है। बहुत संभव है कि इस धुंध का फायदा उठाते हुए कुछ हिसाब-किताब बराबर किए जाएं। इससे हिंसा की घटनाएं जरूर बढ़ सकती हैं, लेकिन शांति स्थापना का काम अपनी जगह ठहरा रहेगा। बाइडन सरकार की अफगानिस्तान नीति आने के बाद ही इस दिशा में शायद कोई अग्रगति देखने को मिले।


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