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सरकारी काम की विधा, हर अवसर को पोस्टर बना देने की ऐसी कला बन चुकी है
By: divyahimachal
सरकारी काम की विधा, हर अवसर को पोस्टर बना देने की ऐसी कला बन चुकी है, जिसके तहत जनता को यह मालूूम नहीं होता कि उसका भविष्य आखिर होगा क्या। योजनाओं-परियोजनाओं के हिमाचली दस्तूर में कितनी खानापूर्ति और कितनी कमजोरियां उभर रही हैं, इसका अंदाजा लगा कर जनता अगर अपनी खामोशी में अपनी ही भलाई देख रही है, तो भविष्य की मनोकामना करना व्यर्थ है। समय पूर्व पद और सरकारी प्रतिष्ठा त्याग चुके आईएएस अधिकारी कैप्टन जेएम पठानिया ने धर्मशाला स्मार्ट सिटी परियोजना पर जो प्र्रश्र उठाए हैं, उनकी तासीर में हम कई विफलताएं देख सकते हैं। स्मार्ट सिटी परियोजना के लक्ष्य में उत्थान का एक सार्वजनिक नक्शा उभरना था, जिसे रौंद कर विकास का बजट जाया हो रहा है।
यानी करीब 2200 करोड़ की परियोजना को विभागीय योजनाओं में समाहित करके, एक ऐसी दौड़ शुरू हुई है जहां सारे दस्तावेज केवल आबंटित धन से छल कपट कर रहे हैं। जो परियोजनाएं नागरिक अपेक्षाओं से परिपूर्ण होनी थी, वे सरकारी फाइलों के मार्फत राजनीतिक चाकरी कर रही हैं। आश्चर्य यह कि शहर की मूल चिंताओं से परे स्मार्ट सिटी परियोजना एचआरटीसी की वर्कशाप पर 13 करोड़ खर्च कर रही है, तो यह फिजूलखर्ची व पुराने शहरी ढांचे पर नए हस्ताक्षर तैयार कर रही है। अगर स्मार्ट सिटी परियोजना का धन, तमाम विभागों के वार्षिक लक्ष्यों में खपाया जाता रहा, तो जनता के सामने नया क्या है। आश्चर्य यह कि स्मार्ट सिटी की मूल अवधारणा पर प्रहार करते हुए, केवल ठेकेदारी में उपलब्धियों की ऐसी योजनाएं जोड़ी जा रही हैं, जो नागरिक अभिलाषा को संपन्न नहीं करतीं। यह विडंबना है कि जिन हाथों ने स्मार्ट सिटी की मशाल थामी थी, उन्हें लगातार चलता करके एक ऐसी परिपाटी बना दी गई, जो अपने भीतर पीडब्ल्यूडी, जल शक्ति और हिमुडा के प्रारूप में काम कर रही है। जनता के विषय और मसलों से भिन्न स्मार्ट सिटी सिर्फ खुर्द-बुर्द इरादों की पटकथा है। ऐसे में हम मान सकते हैं कि सरकारी धन की किश्ती पर बैठने वाले सिर्फ सियासी धाराओं से प्रेरित हैं।
कैप्टन पठानिया की पीड़ा का सारांश निकले या न निकले, लेकिन यथार्थ यह है कि जनता अपने इर्द-गिर्द बिगड़ते सफर की मात्र गवाह बन चुकी है। धर्मशाला के साथ-साथ शिमला स्मार्ट सिटी के भी कई कार्यों ने ऐसी विधा पैदा की है, जिससे न इतिहास संभल रहा है और न ही भविष्य के प्रति चेतना दिखाई दे रही है। शहर में इलेक्ट्रिक बसें खरीद कर स्मार्ट सिटी एचआरटीसी की कार्य संस्कृति बदल देगी या यह परियोजना अब अपनी मिलकीयत की नीलामी कर रही है। जो भी हो, स्मार्ट सिटी का वर्तमान ढर्रा न रोका गया या इसके प्रति नागरिक संवेदना प्रबल न हुई, तो हम सारा धन गंवा कर भी गंवारों के टीले पर बैठे होंगे। तकनीकी व डिजाइन के प्रारूप में भी स्मार्ट सिटी के तहत बने बस स्टॉप अगर देखे जाएं, तो इससे शहरी ट्रैफिक की अव्यवस्था और बढ़ेगी, बल्कि अब तो हिमाचल की हर निर्माण एजेंसी से यह भय है कि न जाने उपलब्ध जमीन का दुरुपयोग करके कितने दाग लगा देगी। स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के प्रति राजनीतिक, सामाजिक व विभागीय असंवेदनशीलता भयावह है। यह एक अवसर खोने की महत्त्वाकांक्षा है और अगर समय रहते इसकी फिजूलखर्ची व वास्तविक रूपरेखा पर गौर न हुआ, तो नतीजे पश्चाताप ही करेंगे।
Rani Sahu
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