सम्पादकीय

शिमला चुनाव में स्मार्ट सिटी

Rani Sahu
28 April 2023 10:28 AM GMT
शिमला चुनाव में स्मार्ट सिटी
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By: divyahimachal
राजनीतिक घोषणाओं के लबादे में शिमला नगर निगम चुनाव अपनी रूह से जो सवाल पूछ रहा है, उसमें सबसे अहम स्मार्ट सिटी परियोजना की बर्बादी है। जून महीने में परियोजना की समाप्ति के साथ यह भी दर्ज होगा कि हिमाचल ने शिमला और धर्मशाला को शिमला चुनाव में स्मार्ट सिटी

स्मार्ट सिटी का पहनावा तो नहीं दिया, अलबत्ता यह साबित कर दिया कि राज्य किस तरह के वित्तीय कुप्रबंधन का शिकार है। जाहिर तौर पर स्मार्ट सिटी परियोजनाओं का लेखा-जोखा पिछली यानी भाजपा सरकार के डबल इंजन को फेल कर रहा है। एक ओर पिछले पांच साल में डबल इंजन सरकार की नारेबाजी हो रही थी और दूसरी ओर शहरी विकास के नाम पर नए नगर निगम बनाकर भी जयराम सरकार स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के साथ इंसाफ नहीं कर पाई। ऐसे में जेब में दो स्मार्ट सिटी डालकर भी हिमाचल कंगाल और बेसहारा न•ार आता है। शिमला की स्मार्ट सिटी परियोजना पर 2905 करोड़ व्यय होने थे, जबकि धर्मशाला के खाके में 2109 करोड़ के प्रोजेक्ट पूरे करने का लक्ष्य था। हिमाचल के लिए योजना बनाना और उसका कार्यान्वयन करना हमेशा से औकात के प्रश्न खड़े करता हैै, लिहाजा शिमला की स्मार्ट सिटी परियोजना को मात्र 706 करोड़ और धर्मशाला परियोजना को 631 करोड़ तक सीमित कर दिया गया है। इस तरह शिमला केवल 25 प्रतिशत और धर्मशाला लगभग 30 फीसदी परियोजनाओं को ही पूरा कर पाएंगे। ऐसे में कांग्रेस के लिए यह चुनावी मुद्दा बनता है, तो भाजपा के लिए जवाब देना इसलिए भी मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि 2015 से शुरू हुए स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट में आठ साल बाद भी शून्यता ही हासिल हो रही है। आश्चर्य यह कि जिस धन और लक्ष्य से इन शहरों ने पुनर्जन्म लेना था, वहीं सारा संकल्प कंक्रीट में धंस गया। नागरिकों को न तो जिंदगी में गुणवत्तापूर्ण सुविधाएं हासिल हो रही हैं और न ही व्यय की ऐसी परिपाटी बनी जिससे पर्यटन और युवा रोजगार के लिए अधोसंरचना मुकम्मल हो पाती।
बहरहाल कांग्रेस दोनों परियोजनाओं के करीब 6500 करोड़ की अनुमानित लागत पर हुई कतरब्यौंत तथा इस तरह सिमटी परियोजना दायरे पर भी अनियमितताओं को लेकर बड़े सवाल पूछ रही है। जाहिर है स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के कंकाल अब जनता को दिखाए जा रहे हैं। इस विषय में एक पूर्व आईएएस अधिकारी कैप्टन जितेंद्र मोहन पठानिया पहले ही धर्मशाला के संदर्भ में पूर्व सरकार के कार्यकाल में परियोजना कार्यान्वयन की काफी मिट्टी खोद चुके हैं। हैरानी यह है कि जिस योजना के तहत शिमला के धंसते रिज, ट्रैफिक जाम से बचते रैपिड ट्रांसपोर्ट नेटवर्क और पार्किंग जैसे सामान्य प्रश्नों का भी हल नहीं ढूंढा गया, उसने अपनी मुट्ठी में आई राशि का अन्यत्र भी सदुपयोग नहीं किया गया। न तो स्मार्ट सिटी परियोजनाएं राज्य सरकार से पोषित हुईं और न ही केंद्र से इनकी माकूल फंडिंग करवाई जा सकी। पचास-पचास फीसदी की भागीदारी में उलझी राज्य सरकार ने सीमित अंशदान करके इन परियोजनाओं को मृत्यु शैया पर डाला और अंतत: जून महीने में इनकी इतिश्री करते हुए प्रदेश सिर्फ कुछ कंक्रीट के पहाड़ और जोड़ लेगा। यह डबल इंजन सरकारों का मॉडल के रूप में याद किया जाए या चुनाव के घडिय़ाली आंसू ऐसे मुद्दों को नजरअंदाज होने से बचा लेंगे।
यह दीगर है कि शिमला चुनाव में भाजपा का दृष्टिपत्र स्मार्ट सिटी परियोजनाओं पर दमक नहीं रहा, अलबत्ता बताया यह जा रहा है कि शहर को कुत्तों और बंदरों की आवारगी से बचाया जाएगा। पीने के पानी को लेकर राजनीतिक घोषणाओं के पियाऊ से हम चाहें तो उम्र भर यूं ही पानी पीते रहेंगे, लेकिन जो शहर हिमाचल की राजधानी का ताज पहनता है, उसे अभी भी ऐसे लॉलीपाप दिखाए जा रहे हैं, जो शहरीकरण की व्याख्या में ककहरा पढ़ रहे हैं। ऐसे में शिमला नगर निगम चुनाव अगर शहरीकरण के प्रति सरकारों के उदासीन रवैये की खबर लेता है, तो भविष्य में हर शहरी निकाय को अपने चुनाव के ढर्रे में परिवर्तन करना पड़ सकता है। भले ही नगर निगमों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन शहरी निकायों के नजरिए से जनप्रतिनिधियों का चयन केवल सीमित व स्वार्थी सियासत के कलपुर्जों की तरह हो रहा है। आज शिमला जनसंख्या के हिसाब से एक अलग शिखर पर खड़ा है, लेकिन जिस शहरी व्यवस्था के शिखर पर यह शहर सौ साल पहले राज करता था, उससे क्षीण अवस्था में इसके वर्तमान अस्तित्व के नुकीले प्रश्नों पर नागरिक समाज को व्यवस्था परिवर्तन के लिए दबाव बनाना होगा।
Rani Sahu

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