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अगर समाज पूरी तरह से विभक्त हो, तो एक मिनट से कम का बयान भी किस तरह का भूकंप ला सकता है
विभूति नारायण राय। अगर समाज पूरी तरह से विभक्त हो, तो एक मिनट से कम का बयान भी किस तरह का भूकंप ला सकता है, इसका एक मजेदार अनुभव अभी हमें हुआ है। फिल्मों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले नसीरुद्दीन शाह वहां तो दूसरों का लिखा डायलॉग बोलते और तालियां वसूलते रहे हैं, मगर जैसे ही उन्होंने अपने मन की बात करने की कोशिश की कि आसमान फट पड़ा। कुछ महीने पहले भी उन्होंने अपनी जुबान खोली थी और इसी तरह कुछ लोग उन पर टूट पड़े थे, बल्कि कुछ ने तो उन्हें हाथोंहाथ लिया था। फर्क सिर्फ इतना हुआ है कि दोस्तों और दुश्मनों के रोल बदल गए हैं।
उस समय उनके बयान का आशय था कि एक मुसलमान की पहचान के साथ भारत में रहते हुए उन्हें डर लगता है। इस वक्तव्य के आते ही राष्ट्रवादी उन पर हमलावर हो गए और उन्हें किसी 'सुरक्षित' जगह जाकर बसने की सलाह दी जाने लगी थी। इस बार जब उन्होंने भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग द्वारा अफगानिस्तान में तालिबान की जीत पर जश्न मनाने की प्रवृत्ति की शदीद मजम्मत की, तो वह राष्ट्रवादियों के नायक बन गए। जिन उदारवादियों और धर्मनिरपेक्ष जमातों ने उस समय उन्हें एक महत्वपूर्ण आवाज के रूप में पेश किया था, वे समझ नहीं पा रहे हैं कि इस बयान पर क्या प्रतिक्रिया दें?
नसीर ने इस बार आखिर क्या कहा है? उनकी एक मिनट से भी छोटी क्लिपिंग में दो बातें महत्व की हैं। एक तो उन्हें इस बात पर आपत्ति है कि दुनिया भर के लिए खतरनाक तालिबान की विजय पर भारतीय मुसलमानों का एक बड़ा तबका खुशी जाहिर कर रहा है और दूसरी, वह चाहते हैं कि दुनिया भर से भिन्न भारतीय मुसलमान यह तय करें कि वे मध्ययुगीन बर्बरता के साथ हैं या इस्लाम का एक आधुनिक संस्करण चाहते हैं। वह जब बोल रहे थे, तब यह स्पष्ट था कि फिल्मों की तरह उनके पास कोई लिखित संवाद नहीं था। वह भावनाओं की बाढ़ से जूझते हुए अपने दिल की बात कह रहे थे, इसीलिए उनके मूल्यांकन के लिए व्याकरण की बारीकियों में नहीं जाना चाहिए। नसीर के वक्तव्य के खिलाफ उनके अपने समुदाय के अंदर से कई तरह की आवाजें उठीं। कुछ तो धार्मिक पहचान की राजनीति करने वाले लोग थे, जो मानते हैं, दुनिया में शरीयत आधारित राज्य व्यवस्था कायम करने की दिशा में तालिबान का जीतना एक बड़ा कदम है और इसलिए नसीर के बयान को एक कमजोर यकीन वाले मुसलमान के प्रलाप से अधिक और कुछ नहीं समझा जाना चाहिए। पर ऐसे लोगों की संख्या कम थी, ज्यादातर वे लोग हैं, जो उनके शब्दों के चयन से दुखी थे कि उन्होंने सारे मुसलमानों को तालिबान की जीत का स्वागत करने वालों की श्रेणी में रख दिया है। इनमें से कुछ ने तो यहां तक दावा किया कि भारतीय मुसलमानों के नगण्य प्रतिशत ने अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर खुशी जाहिर की है। सोशल मीडिया पर एक नजर दौड़ाने से स्पष्ट हो जाएगा कि यह बचाव सही नहीं है। मेरे लिए ये प्रतिक्रियाएं प्रत्याशित ही थीं, लगभग उसी तरह जैसे हिंदुत्ववादियों को वह अब नायक की तरह लगने लगे हैं। मैं यहां नसीर विरोधी उन प्रतिक्रियाओं की बात करने जा रहा हूं, जो उस सेकुलर लिबरल समाज की तरफ से आई है, जिसके वह तब नायक थे, जब उन्हें 'डर' लग रहा था।
बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की एक बहुत पुरानी बहस है, जो पूरी दुनिया की ही तरह भारत में भी चलती रहती है। मेरा मानना है कि बहुसंख्यक समाज की सांप्रदायिकता ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि उसमें राज्य पर कब्जा करने का सामथ्र्य होता है। भारत का अनुभव यही बताता है, पर इसका मतलब यह हरगिज नहीं है कि अल्पसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता किसी मायने में कम नुकसानदेह है। दोनों एक-दूसरे के लिए खाद का काम करती हैं। जहां पहली उदार संस्थाओं को नष्ट करती है, तो वहीं दूसरी अपने ही समाज के कमजोर तबकों पर आघात करती है।
यह एक बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारा वाम हिंदू कट्टरता पर तो जमकर हमला करता है, लेकिन राजनीतिक इस्लाम पर बातें करते समय कन्नी काटने लगता है। मेरी समझ है, ऐसा करके मुसलमानों के बीच के प्रगतिशील तबकों को वह अकेला छोड़ देता है। आजादी के फौरन बाद से ही कपड़े-लत्ते से लेकर भाषा तक में उनकी एक खास पहचान बनाई गई है और राजनीतिक दलों के लिए उनकी हैसियत एक वोट बैंक से अधिक नहीं रह गई है। जैसी प्रतिक्रिया कुछ सेकुलर तबकों से नसीर के बयान पर आई है, वह तो उन्हें कट्टरपंथियों के बीच और हाशिये पर पहुंचा देगी।
इस प्रसंग में मुझे अपना एक अनुभव याद आ रहा है, जो शायद मेरी बात ज्यादा बेहतर ढंग से समझा सके। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक सेमिनार में भाग लेते समय मैंने पाया कि हर वक्ता (ज्यादातर) मुस्लिम श्रोताओं के बीच हिंदुत्व के बढ़ते खतरों पर बोल और तालियां वसूल रहा था। अपने अध्यक्षीय भाषण में मैंने कहा कि आप सब हिंदुत्व का दंश अपने रोजमर्रा की जिंदगी में झेलते ही रहते हैं, इसलिए उसके खतरों के बारे में आपको बताने का बहुत फायदा नहीं है, मैं तो आपके सामने निवेदन करने के लिए खड़ा हुआ हूं कि इतिहास के जिस मुकाम पर हम हैं, उसमें अब अल्लाह की हुकूमत नहीं कायम की जा सकती और अगर कोई दुनिया के किसी भी कोने में शरिया नाफिज करने की बात करता है, तो वह मुसलमानों का दुश्मन है। भाषण के इस अंश पर कि धर्मनिरपेक्षता सिर्फ भारत के लिए नहीं, पाकिस्तान, सऊदी अरब और ईरान के लिए भी जरूरी है, मेरे हिस्से में भी तालियां आईं। नसीरुद्दीन शाह के छोटे से बयान के निहितार्थ बहुत बड़े हैं। मुझे बड़ी खुशी हुई कि मुसलमानों के एक बड़े तबके ने उसका स्वागत किया है। अगर कट्टरपंथी उनका विरोध कर रहे हैं, तब तो और भी जरूरी है कि देश भर का सेकुलर और लिबरल तबका मजबूती से उनके साथ खड़ा हो और वह उसी तरह से अलग-थलग न पड़ जाएं, जैसा पूर्व में उन जैसे बुद्धिजीवियों का अपने समाज में हश्र हुआ है।
Rani Sahu
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