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- मखमली गद्दों पर उनींदे...

सुरेश सेठ: तूफान और आंधी में कुछ सूझता नहीं, क्योंकि आंधी और तूफान झूलते नहीं, झूलते हैं केवल दावे और भाषण। झूलते हैं, बनते हुए पुल, जो अधूरे रह जाते हैं और स्मार्ट शहरों की वह नई घोषणा, जहां कूड़ों के ढेर उनका अभिषेक करते हैं। अब कूड़े के साथ जीते हुए हम उम्र भर इंतजार करते रहेंगे कि क्रांति का तूफान आएगा, बदलाव की आंधी झूलेगी। मर-मर कर जीते आदमी उठ बैठेंगे।
कभी जगजीत गाया करते थे- 'जो बेहोश है, होश में आएगा, गिरने वाला जो है वह संभल जाएगा'। लेकिन यहां तो उलटा हो गया साहब, होशमंदों पर बेहोशी तारी हो गई और संभले हुए बिना फिसले गिरते-पड़ते नजर आ रहे हैं। अब क्या बताएं साहब, सोचा कुछ, देखा कुछ, भाषण में सुना कुछ और अब पाया कुछ ऐसा कि पूरा अर्थतंत्र धड़नतख्ता होता नजर आ रहा है।
जिनके प्रासाद भव्य और अट््टालिकाएं ऊंची हैं, उन्हें तो राजसी पलंगों पर दस-दस गद्दे बिछा कर भी नींद नहीं आती। एक शहजादी की कहानी कभी हमने सुनी थी। ज्यों-ज्यों उसके पलंग के गद्दे बढ़ते जा रहे थे, उसकी नींद और काफूर हो रही थी। बड़े-बड़े वैद्य बुलाए गए कि हमारी बिटिया की नींद लाओ। सब विफल। फिर एक गरीब-सी बुढ़िया जो कभी इस राजकुमारी की आया थी, लाठी टेकती हुई आई। महाराज से गुजारिश की कि अलीजाह, अगर हुक्म हो तो हम कोशिश करके देखें।
महाराजा ने हिकारत से बुढ़िया की ओर देखा, मगर गनीमत थी कि पहचान लिया। नहीं तो आजकल बूढ़ों को कौन भाव देता है! इंतजार अच्छे दिनों का था, तोहफा मिल गया मंदी का। यहां तो काम के लिए जवान हो गए लोगों को काम नहीं मिलता। बरसों रोजगार दफ्तरों के बाहर एड़ियां रगड़ते हुए कभी न मिलने वाले नियुक्ति पत्रों का इंतजार करते रहते हैं। डाकिया उनकी गली का रास्ता भूल जाता है। सरकार के दरबार में काम के लिए गुहार लगाओ तो अपने पैरों पर खुद खड़े होने का परामर्श है और पकौड़े तलने का रास्ता दिखाया जाता है।
हर हाथ को काम मिलने का सपना भी ध्वस्त नहीं हुआ, मंदी में बाजारों से लेकर खेत-खलिहान तक कुछ ऐसी मंदी छाई कि चलते काम रुक गए, खेतीबाड़ी दम तोड़ते हुए परती परिकथा लिखने लगी। नगरी में रोजगार मेले लगते थे, वहां बेकारी दूर करने की जरूरत पर भाषण होने लगे, लेकिन सरकार अपनी दुकान बढ़ा कर निजी धनपतियों की बंधक बनती नजर आती रही। ऐसे में रोजगार तो क्या, उसका वादा भी कहीं नहीं मिलता। हां, काम देने की आस जैसी एक पुचकार अवश्य मिल जाती है।
अभी बूढ़ी नानी की पोटली में उनके नाती-नातिन यह पुचकार जमा करवा रहे हैं कि मंदी फिर जलवाफरोश हो गई। देशी-विदेशी आंकड़ा शास्त्री उसकी दयनीय हालत का बखान करने लगे, लेकिन ऐसे आंकड़ों को स्वीकार करके मंदी के मकड़जाल से निकलने की कोशिश करने वालों को देशद्रोही कह दिया जाता है। आंकड़ों की तश्तरी का जवाब रुपहले, लुभावने आंकड़ों का दस्तरखान होता है और इस दस्तरखान पर रात का खाना खाते हुए अकबर इलाहाबादी शायद कह देते कि हाकिम को हमारी बड़ी चिंता है, लेकिन अपना खाना खाने के बाद।
किसी को भुखमरी से मरने नहीं दिया जाएगा। रोजगार देने का वादा हम नहीं करते, लेकिन राहतों और रियायतों का बसंत हम तुम्हारे लिए सजा सकते हैं और उसी में फरमाया जाता है कि 'अजी कैसी मंदी, किसकी मंदी। अभी इस सप्ताह 'आरआर' जैसी ऐसी तीन-तीन फिल्मों ने रिलीज होने से पहले ही कमाई का सौ करोड़ पार कर लिया।
आप बताइए, लोग भूखे हैं तो फिल्में देख सकते हैं, उन्हें इतनी कमाई करवा सकते हैं?' लेकिन लोग भूखे ही नहीं, बेकार भी हैं। ये वे करोड़ों लोग हैं जो दिन भर हाड़ तोड़ने के बाद सड़कों के टूटे फुटपाथों पर भी सो जाते हैं, लेकिन उधर राजा के वंशजों को पलंग के मखमली गद्दों पर भी नींद नहीं आती। लेकिन चांद में चरखा कातती बुढ़िया को राजकुमारी सुलाने का इशारा मिल गया कि जैसे मंदीग्रस्त देश में मरते काम-धंधों में करोड़ों छंटनी में आ गए कामगार बेकारों के हजूम को बढ़ कर उसे समावेशी विकास की जगह समावेशी रसालत का नाम देने लगे।
उधर बुढ़िया ने राजकुमारी के उनींदेपन का इलाज बता दिया कि इसके पलंग से सब गद्दे हटा दो। आखिरी गद्दे पर पड़ा एक मटर का दाना राजकुमारी की नींद हराम कर रहा था, उससे भी निजात पा लो। राजकुमारी आराम की नींद सो जाएगी। राजकुमारी तो सो गई, लेकिन यह होश की जगह बेहोश होता देश कैसे जागेगा। सदियों से इसके कंधों पर लदे हैं पलंग पर पड़े गद्दों की तरह एक नहीं, कई बैताल। न जाने कितने गद्दे यहां चाटुकारों और सत्ता के दलालों ने बिछा रखे हैं, उन्हें भी उठा कर दूर फेंकना है। इन सबसे छुटकारा मिलेगा, तभी ताजादम हो हंसता-मुस्कराता देश बाहर आएगा। अभी तो मखमली घराने के राजसी गद्दों से इसे ढक दिया गया है।