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- गुलामी के समय की न्याय...
आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत की न्याय प्रणाली विश्व की सबसे पुरानी प्रणालियों में से एक है, जो अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान बनाई थी। देश में कई स्तर की अदालतें मिलकर न्यायपालिका बनती हैं। भारत के संविधान निर्माताओं ने शासन के तीन अंगों विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका को एक समान शक्तियां दी हैं। एक समान शक्तियां प्राप्त होने के बावजूद न्यायपालिका को ही संविधान का संरक्षक कहा गया है। न्याय व्यवस्था को लेकर एक फिल्मी संवाद काफी लोकप्रिय है- अदालतों में मिलती है सिर्फ तारीख पे तारीख, इंसाफ नहीं मिलता। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को छोड़ दें तो निचली अदालतों की हालत ज्यादा खराब है। दीवानी मामला हो या फौजदारी मुंसिफ कोर्ट में मुकदमें वर्षों लटकते रहते हैं। इसका मतलब यही है कि सिस्टम में काफी खामियां हैं।भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा है की भारत की कानून व्यवस्था को देश के मुताबिक बदलने की जरूरत है। एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि कानून व्यवस्था में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कायदे कानून लागू हैं। मौजूदा कानूनी व्यवस्था गुलामी के समय की है जो शायद आज के समय में देश के लिए ठीक नहीं है। भारत की समस्याओं पर अदालतों की वर्तमान कार्यशैली कहीं से भी फिट नहीं बैठती। उन्होंने न्याय व्यवस्था के भारतीयकरण की जरूरत पर बल दिया है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि ग्रामीण लोग अंग्रेजी में कार्यवाही नहीं समझते, वो उन तर्कों पर दलीलों को नहीं समझते जो ज्यादातर अंग्रेजी में होते हैं। ऐसे में वो न्याय पाने के लिए ज्यादा पैसा खर्च करते हैं। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि न्याय विज्ञान का सरलीकरण होना चाहिए।न्याय प्रणाली को और अधिक पारदर्शी, सुलभ और प्रभावी बनाना जरूरी है। न्याय प्रणाली ऐसी हो की जज और कोर्ट के सामने सच बोलने में आम आदमी को हिचकिचाहट न हो जस्टिस रमना ने जो कुछ कहा वह पूरी तरह वास्तविकता है। आज तक किसी भी राजनीतिक दल ने न्याय व्यवस्था के भारतीयकरण करने पर विचार नहीं किया और न ही कोई चर्चा छेड़ी। भारतीय राजनितिक के इतिहास में केवल एक बार एक राजनीतिक दल के चुनावी घोषणा पत्र में इसका उल्लेख जरूर किया गया था। 1969 में जब उत्तर प्रदेश समेत सात राज्यों में मध्यावधि चुनाव हुए थे तो तब पूर्व प्रधानमंत्री और किसान नेता चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल के चुनावी घोषणा पत्र में कहा गया था कि भारत की न्यायिक व्यवस्था विशेष रूप से निचली अदालतों में आधारभूत परिवर्तन की जरूरत है क्योंकि इनके लागू नियम और कायदे जनता के हित में न होकर सत्ता उन्मूलन बनाए गए हैं जो अंग्रेजों की देन है। जो उनकी सत्ता को मजबूत बनाने के लिए ही बनाए गए थे, जो जनता के हितों के खिलाफ हैं। लोकतंत्र में ऐसे कानूनों की जगह नहीं होनी चाहिए और उन्हें जनमूलक बनाया जाना चाहिए। इसके लिए पार्टी इसमें परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध है। स्वर्गीय चौधरी चरण सिंह भी ग्रामीणों की समस्याएं जानते थे तभी तो उन्होंने अपनी सोच व्यक्त की थी। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में यह जुमला लोकप्रिय है-"यहां कौन-सी कचहरी है, यहां तो सच बोल दे"।संपादकीय :बंगाल में तृणमूल और भाजपाजन्मदिन हो तो ऐसापंजाब में कैप्टन का इस्तीफा !कट्टरपंथ : खेमों में बंटी दुनियाचौकन्ने शिवराज सिंह चौहानडूबी सम्पत्तियों का बैड बैंकन्याय व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण स्थान मुकदमा दायर करनेे वाले व्यक्ति का होता है। कोर्ट की कार्यवाही जवाबदेही भरी होनी चाहिए। कोर्ट में मौजूद जज और वकीलों का कर्त्तव्य है कि वह कोर्ट परिसर में ऐसा माहौल तैयार करें जिससे किसी को भी न्यायालय में आने में डर न लगे। भारत की न्याय प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए कई कदम उठाए जाते रहे हैं लेकिन गुलामी के शासन की देन नियमों और कायदे बदलने पर किसी ने कोई ध्यान ही नहीं दिया। सभी राजनीतिक दलों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि न्याय व्यवस्था को आम आदमी के हितों के अनुकूल बनाया जा सके। हमारी न्याय प्रणाली काफी बोझिल और घिसी-पिटी है जो अवसर वक्त पर न्याय देने में असफल रहती है। आम आदमी को इंसाफ देने के लिए मजबूत न्यायपालिका की बहुत जरूरत है। न्यायिक सुधारों के लिए रोडमैप बनाने की जरूरत है। जस्टिस रमना ने लगातार कई व्यवस्थाओं पर सवाल उठाए हैं। उनकी किसी भी बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता। बेहतर होगा कि नीति निर्माता न्यायिक सुधारों के लिए तेजी से आगे बढ़ें।