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- सियारी बनाम सोए शेर

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सियारी शेर बरबस लाल को बीस साल की सरकारी नौकरी के दौरान अब वह परमानन्द प्राप्त होने लगा था, जो ऋषि-मुनियों को जगह-जगह भटकने और जन्मों की तपस्या के बाद मिलता है। उन्हें यह घोर परमानन्द राजधानी में बैठे-बिठाए मुख्यमंत्री के श्रीचरणों में प्राप्त हो चुका था। क़ीमत भी अधिक न थी। महज़ ज़मीर बेचना था। कलियुग में ज़मीर गिरवी रखने का रिवाज़ ख़त्म हो चुका है। अब बिकता है या नहीं बिकता। जो बेच देते हैं, उन्हें एक ही स्थान पर सर्व भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। जो नहीं बेचते, वे बंजारों की तरह डेरा-डंडा उठाए भटकते रहते हैं। पुनर्जन्म में विश्वास न रखने वाले चार्वाक के शिष्य बरबस ने ज़मीर के साथ आत्मा भी बेच डाली थी। ऐसी उच्च अवस्था में व्यक्ति अपनी हित सधाई के लिए अपने मालिक के तलवे सहलाने के स्थान पर चाटना शुरू कर देता है। बरबस के प्रदेश में विधानसभा के आम चुनाव सिर पर थे। खरमस्ती में जीने और अपनों को रेवडिय़ाँ बाँटने वाली सरकार पर विपक्ष ताबड़तोड़ हमले कर रहा था। सरकार विपक्ष पर हमलावर होने की पूरी कोशिश कर रही थी, पर सत्ता के टिमटिमाते दीए में जन समर्थन का तेल डलने के आसार कम नजऱ आ रहे थे।
ऐसे में बरबस को चंद बरदाई की तरह कागज़़ी स्वामीभक्ति की खुजलाहट होने लगी थी। पिछले चार सालों में अपने ऊल-जुलूल नेतृत्व, हरकतों और कारनामों से विभाग को रसातल में पहुँचा चुके बरबस 'चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण। ता उपर सुल्तान है, मत चूको चौहान' की तजऱ् पर मुख्यमंत्री को विपक्ष के हमलों से बचाने के लिए कुछ ऐसा नया करना चाह रहे थे जिससे प्रदेश में हर पाँच साल बाद सरकार बदलने का प्रपंच ख़त्म हो और नया रिवाज़ क़ायम हो सके। हालाँकि चुनावों को नज़दीक आता देख बरबस पहले ही विपक्षी खेमे में हाजिऱी लगाना शुरू कर चुके थे। हर पाँच साल बाद पलड़े का भार देखकर ज़मीर की तरह वह स्वामी भक्ति भी बेच देते थे। एक रात को मुख्यमंत्री को सुलाने पहुँचे बरबस ने उन्हें अकेला देख कर उनके सामने अपनी वह ख़ास कविता पेश की जिसे वह सरकारी ख़र्चे पर अख़बारों और ख़बरिया चैनलों में सत्ता दल के विज्ञापन के रूप में पेश करने का इरादा रखे हुए थे। कविता में मुख्यमंत्री की तुलना शेर से करते हुए उन्होंने अपनी तुकबंदी पेश की, 'सोए शेर हैं हम, तुम हमें जगाओ मत। जागे तो छोड़ेंगे नहीं, फाड़ कर रख देंगे।' बरबस की स्वामी भक्ति पर भरोसा करने वाले मुख्यमंत्री, जिन पर पाँच साल सोए रहने के आरोप लगते रहे थे, अभी सचमुच सोने जा रहे थे।
वह कज़ऱ् पर साँसें ले रहे राज्य के बजट को पहले ही पार्टी की सेवा में समर्पित कर चुके थे। उन्होंने जि़न्दगी में पहले प्रयास में ही इतनी सुन्दर कविता के लिए बरबस को मुस्कुराते हुए बधाई और अनुमति देते बिना देखे उस फाईल पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसमें कविता और विज्ञापन का प्रारूप था। उधर, मुख्यमंत्री को सोने से पहले दूध देने के लिए आया सेवादार बुद्धुआ, नाम से बुद्धू होने के बावजूद सोच रहा था कि शेर तो सोए होने पर भी शेर होता है, उसका जागना या सोना क्या। अगर ये सियारी शेर कभी सोए शेर को छेड़ कर देखें तो पता चले कि शेर क्या होता है। उसे किसी को बताने की ज़रूरत नहीं होती कि वह शेर है। 'घर में शेर, वन में बिल्ली' जैसे चरित्र वाले ये लोग पता नहीं क्यों हर बार जहाज़ डूबने के बाद ही शेर बनते हैं। बरबस लाल की लिखी कविता के सहारे तो पता नहीं कि प्रदेश में हर पाँच साल बाद सरकार बदलने का रिवाज़ बदले या नहीं, पर शायद सरकारी मशीनरी के सहारे…। पर, इस बात की पूरी सम्भावना है कि बरबस जैसे लोग दूसरी सरकार के आने के बावजूद कोट बदल कर इसी तरह किसी दूसरे मुख्यमंत्री को सुला रहे होंगे। बुद्धुआ कमरे की लाईट बुझा कर यह सोचता हुआ बाहर निकल आया कि विश्वगुरू के शेर जागे कब थे।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं

Gulabi Jagat
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