सम्पादकीय

स्थिति नियंत्रण में लेकिन तनावपूर्ण है

Rani Sahu
3 Jun 2022 9:03 AM GMT
स्थिति नियंत्रण में लेकिन तनावपूर्ण है
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पूरे देश की स्थिति नियंत्रण में लेकिन तनावपूर्ण है

पूरे देश की स्थिति नियंत्रण में लेकिन तनावपूर्ण है। पूरे देश में सेना गश्त लगा रही है तथा नित रोज अपना फ्लैग मार्च जारी रखे हुए है। हालात बिगड़े हुए और कर्फ्यू हाजिर है। गोया कर्फ्यू रामबाण हो, जो हालात बिगड़े और चला दिया। दंगाई आजकल कर्फ्यू को मानते ही नहीं। सेना फ्लैग मार्च करती रहती है, कर्फ्यू लगा रहता है और वे लोग आगजनी, हिंसा और लूटपाट का तांडव जारी रखते हैं। फिर अखबारों तथा मीडिया में यही आता रहता है-'हालात नियंत्रण में, लेकिन तनावपूर्ण हैं।' समझ में नहीं आता है कि यह तनाव कब तक चलेगा? कई बार यह भी लगता है कि अब तो तनाव ही चलेगा। चिंता इसलिए नहीं है कि हालात नियंत्रण में रहेंगे। फिर भी तनाव अपनी जगह बना हुआ है, इसलिए कर्फ्यू और निषेधाज्ञा भी जारी रहेगी। कर्फ्यू नहीं होता तो क्या हालात या स्थिति नियंत्रण में रहती? शायद नहीं, उस हालात में तो केवल तनाव होता। मैं और तनाव, डॉक्टरों की सलाह के मुताबिक स्वास्थ्य के लिए सदैव घातक माना गया है। स्वास्थ्य रक्षा के लिए कर्फ्यू इस दृष्टि से अपने आप रामबाण बन जाता है।

इसमें भले तनाव रहे, लेकिन हालात नियंत्रण में रहते हैं। कई बार यह भी लगता है कि यह देश है या पशुओं को रेवड़ है, जो नियंत्रित ही नहीं रह पाता। गोली चलाओ, कर्फ्यू लगाओ अथवा मार्शल लॉ का आदेश दो तो पकड़ में आवे अन्यथा वे तो पशुतुल्य आचरण करने पर तुले हैं। अब यह तो सरकार के पास सारे साजो-सामान हैं, कल मान लो यह नहीं हों तो मारे गए न सज्जन लोग तो। 'उत्पात ही हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' इस विचारधारा के मानने वालों का प्रतिशत बढ़ रहा है। आजादी दिलाने वाले जान देकर चले गए, लोग असली मजा अब ले रहे हैं। सरकार चुनो तो राज्य की शासन व्यवस्था में कल्याणकारी योजनाओं का प्रावधान तो गौण हो गया, बस केवल स्थिति को नियंत्रित करने में अपना समय गुजार देगी।
अब तो हालात और भी विकट हैं। पूरा टर्म नहीं कर पाती सरकार और गिर जाती है। मध्यावधि चुनाव का फैशन बढ़ रहा है। चाहे देश महंगाई की चक्की में पिस जाए, लेकिन मध्यावधि की मांग की जाने लगी है। सरकार और राजनीति अब दो अलग-अलग चीजें नहीं रही हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। चाहे राजनीति को देख लो या सरकार को। दोनों ही हालात को बिगाड़ने के लिए तत्पर हैं। राजनीतिक दलों का काम ही एक रह गया कि सत्तारूढ़ नहीं हो पाओ तो देश में हंगामे कराते रहो और सरकार को गिरा कर ही दम लो। सरकार के पास भी एक ही लक्ष्य है कि रचनात्मक कल्याणकारी कार्यक्रम तो है नहीं, हंगामे के लिए जनता को कोई न कोई झुनझुना थमा दो। चाहे आरक्षण हो, महंगाई हो, पैट्रोल की राशनिंग या फिर धार्मिक स्थलों के विवाद हों। नए से नए मामलों को हवा दो, नारे दो और मारकाट का वातावरण बनाए रखो, जिससे स्थिति नियंत्रण में लेकिन तनावपूर्ण बनी रहे। सरकार भी जोरदार है, चुनाव घोषणा-पत्र में जो बातें कहे, उन्हें करना या मानना चुनाव के बाद उसके लिए जरूरी नहीं है। राजनेताओं का आजकल यह कहना हो गया है कि राजनीति में तो ऐसे ही चलता है, कहें कुछ करें कुछ। पता नहीं राजनीति मानवीय जीवन मूल्यों से व हमारे समाज से कैसे अलग हो गई? अलग भी हो गई तथा सब कुछ करने को स्वतंत्र भी हो गई। राजनीति का ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक

सोर्स - divyahimachal


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