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- एनकाउंटर्स में पुलिस...

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पुलिस की आलोचना तो हर कोई करना जानता है तथा हर काम के लिए पुलिस को ही बलि का बकरा बनाया जाता है। न्याय दिलवाने के लिए पुलिस ही पहली चौखट होती है तथा अंतिम न्याय देने वाली संस्था तो माननीय न्यायपालिका ही होती है तथा न चाहते हुए भी लोग अन्ध भक्तों की तरह न्यायपालिका का गुणगान करते रहते हैं। पुलिस एक ऐसी संस्था है जिसकी हर व्यक्ति जैसे कि मीडिया, बुद्धिजीवी, कोर्ट व अन्य कोई भी संस्था इस तरह से आलोचना करती रहती है जैसे कि पुलिस वास्तव में ही बुराई का पर्याय हो। क्या किसी की हिम्मत है कि जो किसी न्यायाधीश की आलोचना कर सके। पुलिस ही एक लावारिस की तरह होती है जिसको कोई भी नहीं चाहता तथा अपने भी उसे ठोकरें मारते रहते हंंै। क्या कभी किसी ने सोचा कि उत्तर प्रदेश में कितने बाहुबलियों व खूंखार अपराधियों, जिन्हें राजनीतिक शरण प्राप्त थी, ने कितने असमर्थ, असहाय व अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों की हत्याएं की हैं। विकास दूबे जैसे बाहुबली ने तो मौके पर गई पुलिस के आठ जवानों की हत्या कर दी थी तथा इसी तरह दैनिक छुटपुट घटनाओं में न जाने और कितने जवानों व अन्य लोगों की हत्याएं होती रहती हैं। यदि हम उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो पिछले छह वर्षों में वहां एनकाउंटर्स में 183 मौतें हुई हैं तथा जिनमें कई जख्मी भी हुए हैं। अतीक अहमद व उसके भाई अशरफ की कुछ अन्य बदमाशों ने पुलिस संरक्षण में ही हत्या कर दी तो पुलिस कार्यप्रणाली पर न जाने कितने प्रश्न उठने लगे हंै।
अतीक अहमद के विरुद्ध सौ से भी अधिक आपराधिक मामले दर्ज हैं तथा उसने न जाने कितने लोगों की हत्या की है तथा कितने लोगों की जबरन जमीन हड़प कर ली थी। वर्ष 2004 में उसने राजूपाल नामक व्यक्ति जो बीएसपी का एमएलए था, की भी हत्या कर दी थी। कितनी विडंबना है कि उसकी अग्रिम जमानत का मामला हाईकोर्ट में सुनवाई के लिए आया तो एक नहीं दस जजों ने बारी-बारी अपने पांव पीछे खींच लिए तथा सुनवाई करने से इन्कार कर दिया था। कौन दोषी व कौन निर्दोष यह काम तो अदालतों का है। जब अदालतें दशकों तक न्याय नहीं देंगी तो गुंडे लोग राजनीतिज्ञों की शरण में जाकर आम लोगों का शोषण करते रहेंगे। राजू पाल की हत्या का मामला आज तक भी लम्बित है। वास्तव में आपराधिक तुष्टिकरण से हमारे नेता बाहर नहीं निकलना चाहते तथा वो बदमाशों के साथ हाथ मिलाकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। उत्तर प्रदेश में जो भी मुठभेड़ें हुई हैं, उनमें 67.5 प्रतिशत हिंदू तथा 24 फीसदी मुस्लिम लोग संलिप्त पाए गए हैं तथा ऐसा नहीं है कि किसी सम्प्रदाय विशेष को लक्षित किया गया है। जरा सोचिए कि पुलिस एनकाउंटर्स के लिए पुलिस वालों को कोई न ही विशेष वेतन और न ही नियमों के विरुद्ध किसी प्रकार की पदोन्नति दी जाती है। वो तो अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए अपना दायित्व निभाते हैं।
वो जो कुछ भी करते हैं, आपकी और हमारी सुरक्षा के लिए ही करते हैं। पुलिस पर छींटाकशी करने वालों के साथ जब कोई ऐसी घिनौनी घटना घटेगी तब इन्हें पुलिस के महत्त्व का एहसास जरूर होगा। याद रहे कि जब पुलिस वाले एनकाउंटर्स करते हैं तब उनके दिल और दिमाग पर कितना दबाव होता होगा। न केवल उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा बल्कि उनके परिवार के सदस्यों को भी हमेशा खौफ के साये में जीना पड़ता है। उच्चतम न्यायालय ने अपनी एक टिप्पणी में कहा है कि यदि मुठभेड़ फर्जी पाई जाती है तो सम्वन्धित पुलिस वालों को मौत की सजा होनी चाहिए। न्यायालय अपने गिरेबान में क्यों नहीं झांकते। वो खूंखार अपराधियों के विरुद्ध पुलिस द्वारा तैयार किए गए मुफद्दमों को बिना वजह से कई वर्षों तक लम्बित रखते हैं तथा पीडि़त व्यक्तियों को आहें भर-भर कर मरने के लिए मजबूर कर देते हैं। अब तो अपराध की सोशल इंजीनियरिंग भी होने लगी है। हाल ही में बिहार में एक खूंखार अपराधी आनंद मोहन को, जिसे आजीवन कारावास की सजा दी हुई थी, 14 वर्षों की सजा के बाद ही सजा मुक्त कर दिया गया। इस व्यक्ति ने वर्ष 1994 में एक आईएएस अधिकारी की हत्या कर दी थी। जैसे ही ऐसे अपराधी जेल से बाहर आते हैं तब उनका एक देशभक्त की तरह आदर सत्कार किया जाता है तथा उनकी दीर्घ आयु की कामना के नारे भी लगाए जाते हैं। हम सभी को यह भी याद होना चाहिए कि वर्ष 1984 से लेकर वर्ष 1990 तक पंजाब में उग्रवाद के फन इस कदर फैल चुके थे कि यदि गिल जैसे निर्भीक पुलिस अधिकारी न होते तो न जाने कितने ही निर्दोष हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया होता। इसी तरह वर्ष 1990 में कश्मीर में हजारों हिंदुओं का कत्लेआम किया गया तथा उनकी बहू-बेटियों के साथ बलात्कार किया गया। उन्हें अपने घरबार छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया गया।
पुलिस ने जो कुछेक मुकद्दमे दर्ज भी किए उन पर न्यायालयों ने आज 33 वर्ष बीत जाने तक भी कोई विशेष कार्रवाई नहीं की। इस सम्बन्ध में उन पीडि़त महिलाओं से पूछा जाए जिनकी सांसें शुष्क हो चुकी हैं तथा न्याय के इन्तजार में उनकी आंखें पथरा सी गई हैं। यदि इतने बर्षों के बाद उन्हें न्याय मिल भी जाए तो ऐसा न्याय उनके जख्मों पर मरहम नहीं लगा सकता क्योंकि अब तक उनके जख्म कैंसर का रूप धारण कर चुके होंगे। यह ठीक है कि पुलिस को केवल कानून के अनुसार ही कार्य करना चाहिए मगर बेदर्द जमाने को पुलिस वालों की व्यथा व लाचारी की तरफ भी सहानुभूति रखनी चाहिए तथा उन्हें मूकदर्शक न बन कर पुलिस की सहायता करनी चाहिए ताकि आतताई शक्तियों का पूर्ण रूप से मुकाबला किया जा सके। अतीक और अशरफ की हत्या पर राजनीतिज्ञों व मीडिया के लोगों ने काफी हो-हल्ला किया तथा पुलिस की नाकामी का चालीसा भी पढ़ते रहे। हमलावरों ने चंद सैकंडों में ही इन दोनों को मार दिया तथा पुलिस वालों ने तुरन्त उन हमलावरों को दबोच लिया क्योंकि उन्होंने उसी समय आत्म समर्पण कर दिया था तथा पुलिस को उन पर गोली चलाने का कोई औचित्य नहीं था। पुलिस कोई अग्रदूत या ऐसे फरिश्ते नहीं हैं जिन्हें पहले ही पता हो कि एक निश्चित समय पर कोई हमलावर किसी अपराधी पर गोलियां चला देगा ताकि उसे एक वीआईपी की तरह सुरक्षा देकर उसका सुरक्षा चक्र इतना मजबूत कर दिया जाए ताकि पंछी भी उस चक्र में अपना पर न खोल पाए। जनता को पुलिस की मजबूरियों को समझना चाहिए तथा उनके हर कार्य में एक सारथी व सहयोगी की तरह काम करना चाहिए। तभी आप और हम चैन की नींद सो पाएंगे।
राजेंद्र मोहन शर्मा
रिटायर्ड डीआईजी
By: divyahimachal

Rani Sahu
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