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जब अमेरिका और उसके सहयोगी अफगानिस्तान से निकलने की तैयारी में हैं, तब तालिबान और उसके समर्थक जीत की खुशियां मना रहे हैं
मारूफ रजा। जब अमेरिका और उसके सहयोगी अफगानिस्तान से निकलने की तैयारी में हैं, तब तालिबान और उसके समर्थक जीत की खुशियां मना रहे हैं, जल्दी ही तालिबान वहां अपनी सरकार बनाएगा। उनके लिए यह वर्ष 1989 जैसा अवसर है, जब सोवियत संघ अफगानिस्तान छोड़कर जा रहा था। लेकिन उसके बाद अफगानिस्तान शोषण और दमन के दुश्चक्र में फंस गया था। वह सिलसिला 2001 में तब टूटा, जब तालिबान को सत्ता से हटाकर अमेरिका वहां प्रभावी खिलाड़ी बना।
हालांकि तालिबान जानता था कि अमेरिका को एक दिन हारकर जाना पड़ेगा। दरअसल अफगान सरकार का पतन तो तभी स्पष्ट हो गया था, जब अमेरिका ने अपने 12,000 सैनिकों को वहां से चुपचाप निकालने का फैसला कर लिया था। यह साफ है कि बीस साल तक लड़ाई लड़ते हुए, जो कि दो साल में ही खत्म हो जानी चाहिए थी, अमेरिका की अफगानिस्तान में दिलचस्पी खत्म हो गई थी। यह भी स्पष्ट है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के फैसले के बाद अफगानिस्तान में व्याप्त बदहाली और हिंसा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के पूरे राष्ट्रपति काल को परेशान करती रहेगी।
अफगानिस्तान के विवाद को तीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों-जॉर्ज बुश, बराक ओबामा और जो बाइडन ने करीब से देखा है, लेकिन काबुल से अपने सैनिकों की हड़बड़ी में वापसी का अपयश बाइडन के हिस्से आएगा। किसी ने यकीन नहीं किया होगा कि जिन तालिबान को ध्वस्त करने के लिए अमेरिका ने करीब 10 लाख डॉलर खर्च किए, वे तालिबान इतनी सहजता से काबुल पर कब्जा जमा लेंगे। अफगानिस्तान के मौजूदा प्रसंग में सबसे आश्चर्यजनक यही है।
काबुल पर कब्जे के अलावा तालिबान के पास हथियारों का वह विशाल जखीरा भी आ गया है, जो अमेरिका ने पिछले दो दशक में तालिबान के खात्मे के लिए वहां इकट्ठा किया था। इनमें हथियारबंद वाहनों के अलावा एम 4 और एम 18 एसॉल्ट राइफल भी हैं, जो अमेरिका ने अफगान सैनिकों को दिए थे। अफगान सैनिकों की बदहाली की यह कहानी इराकी सैनिकों से मिलती-जुलती है। उन्हें भी अमेरिकी सैनिकों ने न केवल प्रशिक्षित किया था, बल्कि हथियारों से लैस भी किया था। लेकिन वर्ष 2014 में आईएस (इस्लामिक स्टेट) के सैनिकों ने जब उत्तरी इराक पर कब्जा जमाया और वे मोसुल की तरफ बढ़ते गए, तब प्रशिक्षित इराकी सैनिक भी उनका मुकाबला नहीं कर पाए थे। अफगानिस्तान से अमेरिका की विफल वापसी के बाद तालिबान अब दुनिया की सबसे शक्तिशाली असैन्य ताकत है। उसके पास अमेरिका निर्मित हजारों आर्टिलरी गन, ड्रोन, मशीनगन और सबसे महत्वपूर्ण-करीब 4,700 हथियाबंद गाड़ियां हैं, हालांकि इनमें से कुछ गाड़ियां इस्तेमाल करने लायक स्थिति में नहीं हैं।
जाहिर है कि अफगानिस्तान के किसी शहर में अगर गृहयुद्ध होता है, तो उसे दबाने के लिए तालिबान इन हथियारों का इस्तेमाल करेगा। अमेरिका जो हेलीकॉप्टर छोड़ गए हैं, वे भी इस्तेमाल करने की स्थिति में नहीं हैं। इसके बावजूद एक समय के बाद, अगर पाकिस्तान उनकी नापाक योजना को हरी झंडी दिखाता है, तब तालिबान अपने भीतर से उठने वाले विरोधों की अनदेखी कर मध्य एशिया में सिंधु नदी से आमु दरिया तक इस्लामी गणतंत्र की स्थापना के लिए अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा से निकल सकते हैं।
पिछले करीब तीन दशक से पाकिस्तान इसी योजना पर काम कर रहा है। जनरल जियाउल हक के बाद सेनाध्यक्ष बने जनरल मिर्जा असलम बेग ने पाकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान को मिलाकर एक इस्लामी गणतंत्र की स्थापना की जरूरत बताई थी। उनका मानना था कि तभी पाकिस्तान को अपने प्रतिद्वंद्वी भारत पर रणनीतिक बढ़त मिल सकती है। इस तरह पाकिस्तान न केवल अफगानिस्तान को अपने घर और अपने आतंकियों के प्रशिक्षण स्थल के रूप में इस्तेमाल कर सकता है, बल्कि उसकी मंशा अफगानिस्तान को नियंत्रित करना है, जिससे कि वह मध्य एशिया तक अपनी पहुंच बना सके। हालांकि इस कोशिश में पाकिस्तान को पंजशीर घाटी में ताजिक आदिवासियों के तीखे प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा, जैसा कि अभी तालिबान को करना पड़ा।
अमेरिकी हथियारों के भारी जखीरे का इस्तेमाल तालिबान के अलावा पाकिस्तान भी कर सकता है। बल्कि तालिबान की तुलना में पाकिस्तानी सेना इनका इस्तेमाल करने में ज्यादा सक्षम है, क्योंकि वह 1950 से ही अमेरिकी हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है। वह अमेरिका द्वारा छोड़े गए हथियारों का इस्तेमाल बलूचिस्तान में सरकार-विरोधियों के खिलाफ कर सकता है और भारत तथा ईरान से लगती सीमाओं पर भी कर सकता है। इस तरह काबुल से अमेरिका की हड़बड़ी में वापसी ने न केवल तालिबान को ताकतवर बनाया है, बल्कि छोड़े गए अमेरिकी हथियारों से पाक सेना भी और शक्तिशाली बनेगी।
अमेरिका अपनी इस खुफिया विफलता को आगामी कई दशकों तक नहीं भूल पाएगा कि अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी की घोषणा के बाद स्थानीय खिलाड़ियों की चाल को वह क्यों भांप नहीं पाया। फिर काबुल हवाई अड्डे पर आतंकी हमले की खुफिया सूचना उसने कैसे दी? यही नहीं, अपने नागरिकों की हत्या का बदला उसने जिस तत्परता से लिया, वह भी उसकी सैन्य और खुफिया क्षमता बताने के लिए काफी है। इससे यही प्रतीत होता है कि तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे के बारे में खुफिया सूचना होने के बावजूद उसने इसे दुनिया के सामने उजागर नहीं किया, क्योंकि तालिबान से उसकी सौदेबाजी हो चुकी थी। और अब काबुल हवाई अड्डे पर हिंसा और उथल-पुथल के लिए वह आईएस को जिम्मेदार ठहरा रहा है।
सवाल यह भी है कि अमेरिका ने इतने हथियार वहां क्यों छोड़े, जबकि उसे पता है कि उनमें से ज्यादातर का इस्तेमाल पाकिस्तान भारत के खिलाफ करेगा। आशंका यह भी है कि अफगानिस्तान के आतंकी अड्डों से पाकिस्तान आतंकियों को भारत भेजेगा। वह आतंकियों को पश्चिम एशिया के देशों में भी भेज सकता है। इसमें तो कोई शक ही नहीं कि पाकिस्तान को अफगानिस्तान में बड़ी सफलता मिली है और वहां वह अपनी मर्जी चला सकता है। लेकिन क्या वह इसे संभाल पाएगा? मानना मुश्किल है कि आतंकवाद की यह आग पाकिस्तान को नहीं जलाएगी। कुल मिलाकर, पड़ोस की यह स्थिति भारत के लिए बेहद चिंताजनक है।
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