सम्पादकीय

हालात: क्या हमने इसी बांग्लादेश का सपना देखा था

Neha Dani
29 Dec 2021 2:31 AM GMT
हालात: क्या हमने इसी बांग्लादेश का सपना देखा था
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मुझे आशंका है कि मेरा वह प्रिय देश कट्टरता में पाकिस्तान से भी आगे न निकल जाए।

वर्ष 1971 में पाकिस्तान से युद्ध कर बांग्लादेश विजयी हुआ था। यह हम जानते हैं। हारे हुए पाकिस्तानी सैनिक सिर झुकाकर बांग्लादेश से चले गए थे। इस बारे में भी हम सब जानते हैं। लेकिन जिस आदर्श के लिए बांग्लादेश ने युद्ध किया था, विजय के पचास साल बाद उसने उस आदर्श को कितना बचाकर रखा है? इस प्रश्न का जवाब कौन किस तरह देगा, यह मैं नहीं कह सकती। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि उस आदर्श का आज कुछ भी नहीं बचा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो मैं खुद ही हूं। मैं बांग्लादेश के मुक्तियुद्ध का सौ फीसदी समर्थन करती थी। आज भी उसी आदर्श के तहत मैं जी रही हूं, लिख-पढ़ रही हूं।

लेकिन उस देश में रहने का मेरा कोई अधिकार नहीं है। वर्ष 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री खालिदा जिया ने मुझे बांग्लादेश से निकाल बाहर किया था। मृत्युशय्या पर पड़ी मां को देखने के लिए मैं प्रधानमंत्री शेख हसीना के तेवर की परवाह किए बगैर बांग्लादेश चली गई थी, लेकिन तीन महीने बाद ही जनवरी, 1999 में शेख हसीना ने भी मुझे खालिदा जिया की तरह देश से बाहर निकाल दिया था। तब से मैं एकाकी जीवन बिता रही हूं।
मैं क्या मुक्तियुद्ध में शत्रु सेना के सहयोगी अल बदर, रजाकार या अल शम्स से जुड़ी हुई थी? नहीं, मैं मुक्तियुद्ध की समर्थक थी और मेरे परिवार के कई लोगों ने उस युद्ध में हिस्सेदारी की थी। मैंने कोई ऐसा काम भी नहीं किया था, जिस कारण मुझे इतनी सख्त सजा मिलती। मैं एक उदार और धर्मनिरपेक्ष परिवार में डॉक्टर पिता की संतान थी, और मेडिकल की पढ़ाई कर खुद डॉक्टर बनी थी। एक सरकारी डॉक्टर के रूप में वर्षों तक मैंने गांवों-कस्बों के स्वास्थ्य केंद्रों में अपनी सेवाएं दीं, यहां तक कि ढाका के सरकारी अस्पतालों में भी मैंने काम किया। डॉक्टरी के साथ-साथ साहित्य भी मेरा शौक था। जब मैं किशोरी थी, तभी से कविताएं लिखती थी। और अपनी कहानियों, उपन्यासों, लेखों में मैंने क्या लिखा? मैंने हमेशा ही धर्मनिरपेक्षता, गणतंत्र, समाजवाद, नारी-पुरुष का समानाधिकार और मानवता पर लिखा है। अपने लेखन में मैंने कट्टरता, नारी-विद्वेष, आतंकवाद और सांप्रदायिकता का घनघोर विरोध किया। नतीजतन स्वतंत्र बांग्लादेश में जड़ जमाए पाकिस्तान परस्त वह ताकत मेरे खिलाफ सक्रिय हो उठी, जो मुक्तियुद्ध, बांग्लादेश की भावना और धर्मनिरपेक्षता व मानवता-विरोधी थी।
मुझे कट्टरवाद का विरोध करने के कारण बांग्लादेश से निकाला गया। चाहे वह खालिदा जिया हों या शेख हसीना, मुश्किलों के वक्त मेरे साथ खड़े होने के बजाय उन्होंने पाकिस्तान परस्त कट्टरपंथियों का साथ दिया। मुझे पराजित कर उन दोनों ने कट्टरपंथियों को जिताया। मुझे देश से निकालकर उन्होंने कुछ लोगों को धर्म की राजनीति करने का अवसर दिया। तथ्य यह है कि बांग्लादेश की सभी सरकारों ने मुक्तियुद्ध-विरोधी ताकतों को महत्व दिया है, उनकी तमाम मांगें मान ली हैं। यही नहीं, आजादी के बाद के इन पांच दशकों में उन्होंने बांग्लादेश को पाकिस्तान के अनुरूप ही आकार दिया है। सत्ता में आने पर जमात-ए-इस्लामी या हिफाजत-ए-इस्लामी जैसे दल जो फैसले लेते, बीती सदी के आठवें दशक की जियाउर रहमान की सरकार से लेकर आज की शेख हसीना की सरकार तक ने कमोबेश वही फैसले लिए हैं।
पचास साल पहले जिस मुक्तियुद्ध में बांग्लादेश को विजय मिली थी, उस युद्ध में मेरे परिवार के लोग शामिल थे। हमारा परिवार भी पाकिस्तान के सैनिकों के अत्याचार का शिकार हुआ था। मेरे पिता को घोर यातनाएं देने के बाद पाक सैनिक उन्हें लगभग मृत हालत में हमारे घर के बाहर फेंक गए थे। हमारे घर में घुसकर उन्होंने लूट मचाई थी। कैंपों में ले जाकर महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था। स्वाधीन बांग्लादेश में भी हमारे परिवार पर जुल्म ढाए गए। जिस तरह पाकिस्तानी सैनिकों ने बांग्लादेश के प्रगतिशील कवियों, लेखकों, दार्शनिकों, चित्रकारों, गायकों, फिल्मकारों की नृशंस तरीके से हत्या की थी, ठीक उसी तरह स्वतंत्र बांग्लादेश में उदार और धर्मनिरपेक्ष लोग सरकार समर्थित कट्टरवादियों के लगातार निशाने पर हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश में भी कट्टरवादी सोच के समर्थक निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए सरकार कट्टरवादियों का साथ दे रही है।
इसी का नतीजा है कि पचास साल पुराने बांग्लादेश में आज कट्टरवादी बहुत मजबूत स्थिति में हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि पाकिस्तान जिस तरह एक मजहबी राष्ट्र है, बांग्लादेश का शासन भी उसी के अनुरूप चल रहा है। इसी कारण संविधान से धर्मनिरपेक्षता शब्द हटा दिया गया है, उसकी जगह राष्ट्रधर्म ने ले ली है। बांग्लादेश का गणतंत्र आज सिर्फ नाम के वास्ते है। बांग्लादेश में पारिवारिक कानून समान अधिकार की बुनियाद पर नहीं, बल्कि पाकिस्तान के शासनकाल में जिस तरह धर्म की बुनियाद पर था, उसी तरह है। पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश में भी गैर-मुस्लिमों पर हमलों का सिलसिला लगातार जारी है।
इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि पिछले पचास साल के अनथक परिश्रम से बांग्लादेश आज दूसरा पाकिस्तान बन गया है। इसलिए बांग्लादेश की आजादी के पचास साल पूरे होने का यह ऐतिहासिक अवसर पाकिस्तानपरस्त कट्टरपंथियों और उनसे प्रभावित लोगों की भीड़ के लिए ही उत्साह और उल्लास का अवसर ज्यादा है। वर्ष 1971 में पाकिस्तान पर धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की जीत हुई थी। लेकिन उसके बाद से तो स्वतंत्र बांग्लादेश में लगातार कट्टरपंथी ही जीत रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष, मानवतावादी और उदार चिंतकों को या तो कट्टरवादियों का निशाना बनना पड़ रहा है या फिर उन्हें बांग्लादेश छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ रही है।
पचास साल पुराने इस देश का नाम बेशक अब भी बांग्लादेश है। वहां का राष्ट्रगान अब भी विश्व-कवि रवींद्रनाथ का आमार सोनार बांग्ला ही है। लेकिन मुझे भय होता है कि कहीं एक दिन यह राष्ट्रगान न बदल दिया जाए, क्योंकि बांग्लादेश में अब कौन मजबूत हो रहे हैं, यह मैं जानती हूं, वहां सबसे लंबा जुलूस किन लोगों का निकलता है, यह मुझे मालूम है। मुझे आशंका है कि मेरा वह प्रिय देश कट्टरता में पाकिस्तान से भी आगे न निकल जाए।

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