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- चीन-अमेरिका की...
आदित्य चोपड़ा; अमेरिका की लोकसभा (हाऊस आफ रिप्रेसेंटेटिव) की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा को लेकर चीन ने जिस तरह आक्रामक तेवर दिखाते हुए अमेरिका को इसके परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है उसका आशय यही निकाला जा सकता है कि चीन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना दबदबा किसी भी सूरत में अमेरिका से कम कर नहीं आंकता है और दुनिया को यह सन्देश देना चाहता है कि उसकी इच्छा के विपरीत ताइवान की लोकतन्त्र प्रेमी स्वायत्तशासी जनता की मदद के लिए कोई भी दूसरा देश किसी प्रकार की सदाशयता दिखाने का प्रयास न करे। दूसरी तरफ श्रीमती पेलोसी की यात्रा को अमेरिका की सरकारी अधिशासी यात्रा से अलग रख कर देखा जा रहा है क्योंकि अमेरिका की पेचीदा प्रशासनिक व विधायिका प्रणाली में इसकी संसद की अध्यक्ष को राष्ट्रपति के कार्यालय की मंजूरी की जरूरत नहीं होती। वह अपने क्षेत्र में स्वायत्त व स्वतन्त्र होती हैं। हालांकि अमेरिका के संविधान के अनुसार अध्यक्ष का नम्बर राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के बाद तीसरे नम्बर पर आता है। दरअसल इसे कूटनीति में अमेरिका की शासन से निरपेक्ष रणनीति भी कहा जा सकता है कि उसने श्रीमती पेलोसी की यात्रा करा कर चीन को यह समझा भी दिया कि उसकी दादागिरी उस पर नहीं चलेगी बेशक उसकी विदेश नीति 'एक चीन' की पक्षधर है और उसके ताइवान के साथ अधिकारिक राजनयिक दौत्य सम्बन्ध भी नहीं हैं मगर वह अपने देश के इस कानून से भी बन्धा हुआ है जिसमें दुनिया के किसी भी क्षेत्र के लोगों को अपनी सुरक्षा करने का अधिकार है और अमेरिका इसमें उनकी मदद करेगा। हालांकि पेलोसी की ताइवान यात्रा की खबर पाकर ही चीन ने अपनी सैनिक शक्ति का प्रदर्शन ताइवान के आसपास के समुद्री व हवाई इलाकों में करना शुरू कर दिया था और ताइवान को भी चेतावनी देनी शुरू कर दी थी कि उसकी इतनी हिम्मत दिखाने के परिणाम अच्छे नहीं होंगे मगर ताइवान ने अपनी तरफ से किसी प्रकार की कोई सैनिक हरकत नहीं कि और चीन को समझा दिया कि वह उसके मुकाबले में अकेला नहीं रहेगा। वैसे ताइवान और चीन का कोई मुकाबला नहीं है क्योंकि ताइवान की आबादी मात्र सवा दो करोड़ है जबकि चीन की 140 करोड़ से ऊपर है और चीन इस समय विश्व की आर्थिक शक्ति है। अमेरिका और चीन के बीच असली लड़ाई भी आर्थिक मसलों को लेकर ही है। अमेरिका ने चीन से आयातित होने वाले माल पर शुल्क की दरों को बढ़ा दिया है जिससे चीन को भारी आर्थिक हानि हो रही है। तथ्य यह भी है कि आज दुनिया में चीन के बने माल का निर्यात सर्वाधिक होता है जिसे यूरोपीय देशों से लेकर अमेरिका तक खरीदता है। दूसरी तरफ चीन 'वन बेल्ट-वन रोड' परियोजना पर काम करके पूरे एशिया व पूर्वी यूरोप आदि तक के क्षेत्रों को अपनी आर्थिक ताकत की जद में लेना चाहता है। यह स्थिति अमेरिका जैसी शक्ति से सहन नहीं हो रही है और वह परोक्ष रूप से चीन पर दबाव डाल रही है कि वह यूक्रेन-रूस के बीच चल रहे संघर्ष में रूस के साथ खड़ा हुआ दिखाई न दे और हिन्द-प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र में अपनी हेकड़ी दिखाना बन्द करे। इस मसले पर आस्ट्रेलिया व जापान के साथ भारत जिस तरह आया है उस पर भी चीन भीतर ही भीतर झुंझलाया हुआ है क्योंकि अमेरिका भी इस समूह में शामिल है। चीन प्रशान्त सागरीय क्षेत्र के दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में जिस तरह की दादागिरी दिखा रहा है उसका मुकाबला करने के लिए अमेरिका ने भी पूरी तैयारी कर रखी है और अपने शक्तिशाली युद्धपोत इस क्षेत्र में उतार रखे हैं। इस बीच अमेरिका ने बड़ी ही चतुराई के साथ उस राज्य ताइवान में अपनी संसद की अध्यक्ष नेन्सी पेलोसी की यात्रा करा दी जिसे चीन अपना हिस्सा मानता है और दावा करता है कि 1949 में इसके स्वतन्त्र होने से ही यह समुद्र टापू पर बसा छोटा सा देश उसी का हिस्सा है। जबकि ताइवान के लोग स्वयं को चीन का हिस्सा नहीं मानते और स्वयं को एक स्वतन्त्र देश कहलाना पसन्द करते हैं। लेकिन एेसा लगता है कि ताइवान के बहाने अमेरिका चीन को उसकी हैसियत बताना चाहता है और दुनिया में लोकतन्त्र के अलम्बरदार के रूप में अपना चेहरा उजला रखना चाहता है। इसी वजह से उसने चीन के इस तर्क को दरकिनार कर दिया कि ताइवान का मसला चीन की भौगोलिक संप्रभुता का मसला है क्योंकि ताइवान का मानना है कि यह प्रश्न भौगोलिक संप्रभुता का नहीं बल्कि ताइवान के लोगों के मूल मानवीय व नागरिक अधिकारों का है। यही वजह रही कि श्रीमती पेलोसी ने ताइवान के चुने हुए राष्ट्रपति से भेंट करने पर कहा कि असली मुद्दा लोकतन्त्र और अधिनायकवाद का है। चीन में लोकतान्त्रिक अधिकारों का दमन किया जाता रहा है। इस मुद्दे पर चीन का पलड़ा बहुत हल्का ही रहता है क्योंकि यहां कम्युनिस्ट शासन है। परन्तु सवाल यह प्रसांगिक है कि चीन के सबसे निकटतम पड़ोसी होने की वजह से भारत की इस सन्दर्भ में क्या भूमिका होगी? तो बड़ा ही स्पष्ट है कि तटस्थ रहते हुए स्वयं को किसी भी पक्ष के साथ खड़ा करना पसन्द नहीं करेगा। इस मामले में देश विदेशमन्त्री श्री एस. जयशंकर के चातुर्य पर विश्वास कर सकता है क्योंकि रूस- यूक्रने संघर्ष के दौरान भारत ने जो रुख अख्तियार किया उससे रूस के साथ हमारी ऐतिहासिक दोस्ती भी कायम रही और यूक्रेन के साथ भी हमारे सम्बन्ध पहले जैसे ही स्थिर रहे। जो लोग यह कयास लगा रहे हैं कि चीन व अमेरिका के बीच युद्ध हो सकता है उनका सोचना गलत है क्योंकि विश्व के वर्तमान माहौल में न चीन और न ही अमेरिका युद्ध की विभीषिका को सहन कर सकते हैं। आर्थिक युद्ध का सैनिक शक्ति प्रदर्शन भी एक आयाम होता है। अतः चीन व अमेरिका यही कर रहे हैं। दोनों की हालत ऐसी ही है-''आता है मेरे कत्ल को पुर जोशे रश्क से मरता हूं उसके हाथ मे तलवार देख कर।