सम्पादकीय

सिंधुताई स्मृति शेष: ढलना नश्वर देह की छांव का और रह जाना ममतामयी धूूप का.!

Gulabi
5 Jan 2022 4:36 PM GMT
सिंधुताई स्मृति शेष: ढलना नश्वर देह की छांव का और रह जाना ममतामयी धूूप का.!
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ऐसे ही अगले सवाल में ताई से जब पूछा कि किसी ने भी आपके साथ कुछ गलत काम किया हो
वात्सल्य और ममत्व की सागर सिंधुताई सपकाल नहीं रहीं। वे अनाथ और मासूम बचपन का आंचल और छाया थीं। हजारों बच्चों की माई, जिन्होंने सम्पूर्ण जीवन केवल अनाथ बच्चों के लालन-पालन और उन्हें संवारने में लगा दिया।
सिंधुताई के परिवार में हर वह शख्स शामिल था जिसका अपना परिवार नहीं था। वे उन तमाम लोगों की परिजन थीं जिन्हें भाग्य ने नाते-रिश्तेदार और परिजन नहीं दिए थे। उनका कुनबा विशाल, उदार और करुणामयी ममता से भरा हृदय था जिसमें वह सबकुछ समाहित था जो इस दुनिया में अकेला, असहाय और निराश्रित था।
माई के 1500 बच्चेे, 150 बहुएं और 300 से ज्यादा दामाद रहे। ताई का यह परिवार और भी विशाल है, उतना ही विस्तार लिए जितना उनका ह्दय था। दरअसल, यह संख्यात्मक पंक्ति दर्ज करने भर का उपक्रम भर नहीं है अपितु सिंधुताई जैसी स्त्रियों की मातृत्वशक्ति से उपजी विरासत और संस्कारों के विशाल वटवृक्ष की बानगी है जहां से ताई के नाम की वंशबेल समय के अंनत प्रवाह में सदा हरी-भरी होती रहेगी।
पुणे स्थित सिंधुताई की संस्था, सन्मती बालनिकेतन, अनाथ/ गरीब बच्चों के लिए सालों से काम कर रही थी। उन्होंने हजारों बच्चों को पाला और उन्हें काबिल बनाकर उनके जीवन को संवार दिया। ये माई की परवरिश और दिए संस्कार ही हैं कि उनके सैकड़ों बच्चे भी उन्हीं की तरह अनाथ, असहाय, निराश्रित बच्चों और महिलाओं के लिए काम कर रहे हैं।
ताई एक परंपरा थी। ममता और वात्सल्य की विरासत, जो संस्कारों के साथ उनके अनगिनत बच्चों में समाहित रही। ताई के आसरे में कोई बच्चा अनाथ नहीं था। उन्होंने अपनी सभी संस्थाओं में अनाथ शब्द का प्रयोग ही वर्जित कर रखा था। देश/ दुनिया में अपनी करुणा/ वात्सल्य और बच्चों के प्रेम के चलते सम्मानित हो चुकी ताई महाराष्ट्र की मदर टेरेसा कही जाती थीं। यह सिंधुताई का काम ही है कि उनके योगदान के बूते उन्हें 750 राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मान, राष्ट्रपति पुरस्कार और पद्मश्री सम्मान मिल चुका है।
आज सिंधुताई भले ही दैहिक रूप न हो, लेकिन उनके काम और परवरिश सालों साल अनाथ बच्चों की सेवा/लालन पालन और उनके संरक्षण के तौर पर बने रहेंगे।
महाराष्ट्र के वर्धा जिले में 14 नवंबर 1948 को जन्मीं सिंधुताई सपकाल की जीवन सरिता सामान्य धारा में कभी नहीं बही।
ताई कहती थीं- मेरी प्रेरणा, मेरी भूख और मेरी रोटी है।
महाराष्ट्र के वर्धा जिले में 14 नवंबर 1948 को जन्मीं सिंधुताई सपकाल की जीवन सरिता सामान्य धारा की तरह कभी नहीं बही। जीवन कई तरह के संघर्षों और उतार-चढ़ाव से गुजरा। कम उम्र में विवाह और जीवनयापन के संघर्ष बेहद कठिन/ जटिल और दुखदायी रहे। बचपन की यात्रा संघर्ष की छाया में शुरू हुई तो फिर उस अंधियारी छाया ने ताई का पीछा नहीं छोड़ा। परिवार रूढ़ीवादी, अशिक्षित और जड़ परंपराओं से ऐसा बंधा था कि उसका सीधा असर 10 साल की सिंधुताई पर पड़ा।
महज 10 की उम्र में 20 वर्ष के लड़के से उनका बाल-विवाह हुआ। जीवन कठिन से कठिनतर होता गया। कुछ सालों बाद गर्भवती हुईं तो 9वे माह में पति ने उनके पेट पर लात मारकर उन्हें घर से निकाल दिया। बेहोशी, टूटते शरीर और मृत्युु के समीप छटपटाती ताई ने गायों के बीच एक लड़की को जन्म दिया। भाग्य ऐसे रूठा था कि कम उम्र में भीषण प्रसव पीड़ा से गुजरते हुए ताई के भीतर की उस लड़की ने प्रथम प्रसव के बाद अपनी गर्भनाल भी स्वयं ही काटी थी।
एक कच्ची समझ, किंतु शक्ति से भरी जीवटता के बीच दुख, संत्रास, डर और दहशत से भरा वह एकांत ताई की आंखों से कभी गया नहीं था। मुंह मोड़कर मृत्युतुल्य कष्ट देने वाले समय के उस हिस्से को ताई आजीवन नहीं भूली। उस दारुण दुख के विलाप की टीस सालों तक उनकी आत्मा में धंसी रही। एक स्त्री के रूप में दूसरा जन्म ले रही ताई एक ऐसे अंधियारे के तले थी कि जीवन की रौशनी का एक कतरा भी भाग्य में बदा नहीं था।
बाद में जीवन ने करवट ली तो भी नवजात बेटी हाथों में थी, लेकिन सिर से छत गायब हो गई थी। जहां एक स्त्री को मां बनने के उपरांत अपने बच्चे की बेहतर परवरिश, स्नेह और संरक्षण की आस थी, वहां एक मां अपनी नवजात बच्ची को चिलचिलाती धूप, बारिश और अंधड़ के बीच लिए सड़कों पर भटकने के लिए मजबूर थी। कभी बच्ची को स्टेशन पर रखती और खाने का इंतजाम करती, कभी ट्रेनों में तो कभी सड़कों पर भीख मांगती, तो कभी श्मशान में चिता की रोटी खाती।
इस संसार में ताई को जीवन इसी रूप में मिला था। टूटा-फूटा, जीर्ण-शीर्ण, दुखों में लिपटा और रूठी हुई किस्मत लिए दुर्भाग्य में बिखरता हुआ।
एक समय ऐसा भी था जब ताई अपनी ही रूठी हुई किस्मत से टूटकर जीवन की ईहलीला समाप्त कर लेना चाहती। लेकिन उस दुख के बीच ताई जितनी टूटी उतनी ही मजबूत भी हुई। ह्दय टूटा नहीं बल्कि संवेदना और परदुख पीड़ा को ग्रहण करने वाला ममता से भरा महासागर बन गया।
पुणे स्थित सिंधुताई की संस्था, सन्मती बालनिकेतन, अनाथ/ गरीब बच्चों के लिए सालों से काम कर रही थी।
कुछ साल पहले कौन बनेगा करोड़पति में जब वे अपने बच्चों के लिए आईं तो उनकी सादगी/ सहजता/आत्मीयता और प्रेम व ममता से भरा व्यक्तित्व देखकर मैं अभिभूत हो गया था।
शो में जब अमिताभ बच्चन ने ताई से पूछा था कि आप पिंक रंग की साड़ी ही क्यों पहनती हैं तो ताई ने कहा था- जिंदगी में इतना काला देखा है अब थोड़ा गुलाबी भी होने दो ना..!
ऐसे ही अगले सवाल में ताई से जब पूछा कि किसी ने भी आपके साथ कुछ गलत काम किया हो तो आपने कुछ कहा नहीं- तब ताई ने मुस्कुराते हुए कहा था- जिंदगी में माफ तो मैंने अपने पति को किया जिसने मुझे पत्थर मार-मारकर घर से निकाल दिया! मेरे सत्कार के समय मेरे ससुराल वाले रो रहे थे, उस समय मुझे बहुत अच्छा लगा, लेकिन फिर अंदर से आवाज आई- गलती कर रही है सिंधुताई, यदि ये छोड़ते नहीं तो तू यहां तक नहीं पहुंचती।
यह सिंधुताई की ममता, वात्सल्य और एक स्त्री की जीजिविषा ही थी कि अपने उस अभागे और दुखियारे जीवन में भी वे टूटकर बिखरी नहीं। वे चलती रहीं क्योंकि एक असहाय, अकेली और टूटी हुई स्त्री के रूप में उनकी ममता कई दूसरे रूपों में साकार होने वाली थी। ताई सबकुछ के विपरित और जीवन की हर विषम परिस्थितियों और दुखों के दावानल में कुंदन हो रही थी। ताई का वात्सल्य एक उदार और विशाल मां का हृदय बनने वाला था। करुणा से भरी उनकी आंखों में संसार के हर बच्चे के लिए प्रेम और स्नेह की ऐसी ज्योति थी जिससे भविष्य में कई मासूम सितारे बनकर चमकने वाले थे। ताई ने अपने नक्षत्रों को स्वयं रचा था। एक अलग संसार स्वयं गढ़ा था।
ताई का जाना राष्ट्र के लिए तो क्षति है ही अपितु उन हजारों बच्चों के लिए भी सदमा है जो उनके आंचल में सुरक्षित और संरक्षित थे।
ताई अलविदा
ऐसे महज चलते चलते अचानक चली जाएंगी अंदाजा न था.
माई को आत्मीय नमन और श्रद्धांजलि..!

क्रेडिट बाय अमर उजाला
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