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- सहज जिंदगी के मर्म
शकुंतला देवी: प्रकृति और मनुष्य की बुनावट को समझने वाले जानकार सावन-भादो में आहार-विहार में बदलाव करने के लिए सलाह देते हैं। बहुत मामूली बातों पर भी सारा पैसा खींच लेने वाले डाक्टर क्या करते हैं, इसके भुक्तभोगी ज्यादातर लोग होते हैं। गृहस्थी के तमाम झंझटों के बीच सेहत पर गौर करने से कई दूसरी समस्याएं भी दूर हो जाती हैं। पिछले महीने घर के कार्यों से छुट्टी ले कुछ दिन पहाड़ों की सैर करने के लिए मन बना था। उस दिन काले-घने बादल सामने से निकल रहे थे और पहाड़ की गोद में हम घूम रहे थे।
उसी दौरान ऋषिकेश में लक्ष्मण छूले के बगल वाली सड़क पर दस साल के एक दीन-हीन बच्चे को देख कर परेशानी महसूस हुई। लेकिन शब्दों से उसके प्रति सहानुभूति के अलावा बच्चे के लिए कुछ कर सकना मुमकिन नहीं हुआ। वह गरीब था, उसके बावजूद मुस्करा रहा था। हम धनी होकर भी परेशान थे। फिर भी कविताएं लिखते हुए अपनी व्यथाओं और दुखों का भार शब्दों के जरिए सौंपने के अलावा कुछ नहीं किया जा पा रहा था।
यों भी शब्दों के जरिए जब हम अपना भार किसी के जिम्मे सौंपते हैं तो मजा कुछ और ही आता है, क्योंकि हकीकत में न भार सौंप रहे होते हैं, न कोई भार संभालने वाला सामने होता है। तब लगता है, जिंदगी का यह नजरिया ज्यादा बढ़िया और कामयाब है। साहित्य से संवाद हमारी कृतियों में ऐसे दिखता है जैसे कालीदास की शकुंतला का पेड़-पौधों से।
बादलों के झुंड देख लगता है कि ये बादल कितने संगठित और भाईचारे की मिशाल पेश करते हैं। उनमें जाति, मजहब का कोई झगड़ा-टंटा नहीं है और न सीमा में दखल देने की शिकायत। लेकिन कई बार लगता है कि क्या कभी बादल भी परेशान होते हैं। इतने परेशान कि चीत्कार करने लगते हैं! क्या हवाओं की भी मनमानी चलने लगी है? हवाओं पर किसका बस चलने लगा है आजकल?
बहरहाल, हवाओं की मनमानी की शिकायत प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत को भी है। लेकिन वे इसे बदलते मौसम के तौर पर देखते हैं। बस इतना कहते हैं कि मैं बरामदे में लेटा, शैया पर, पीड़ित अवयव। मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव। उमस और नीरवता- दोनों नकारात्मक व्यवहार हैं। लेकिन हम जितना नकारात्मक होते जाते हैं, उतनी ही हवाएं और नीरवता परेशान करते हैं। इसलिए विचारकों ने हर हालत में सहज रहने के लिए सलाह दी है। यह बात दीगर है कि हम उनकी सलाह मानते हैं या हवाओं की मनमानी की शिकायत करते अपनी भड़ास कुदरत पर निकालते हैं।
गजब की दुनिया है। थोड़ी-सी अति बर्दाश्त नहीं। शायद इसलिए 'अति सर्वत्र वर्जयेत' कह कर अति न करने की सलाह दी गई। 'अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।' बात सोलह आने ठीक है, लेकिन ऐसा क्या होता है? चारों तरफ अति ही अति करने वाले दृश्य दिखाई देते हैं। फिर हवा और उमस को ही क्यों कोसते फिरें? हवा व उमस आती हैं तो बरसात भी तो लाती हैं।
बात बस इतनी-सी है कि बर्दाश्त करने का हममें जो माद्दा हुआ करता था, वह खत्म हो गया है। थोड़ी-सी उमस, थोड़ी-सी गर्मी, थोड़ी-सी धूप और हवाओं का तेज चलना बर्दाश्त नहीं। ऐसा लगता है कि हम जिंदगी को जीतने की तरफ नहीं, हारने की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। शायद इसी वजह से किसी ने हमें खबरदार करते हुए कहा था- 'यदि जिंदगी की जंग जीतना है तो बर्दाश्त करना सीखो, क्योंकि यह ऐसी औषधि है जो कई संभावित रोगों को ठीक कर सकती है।'
कुछ दिन पहले उमस की वजह से लोगों के हाय-तौबा मचाने और कुदरत को कोसते देख समझ में आया कि लोग प्रकृति को भी अपने मुताबिक करना चाहते हैं, लेकिन प्रकृति के अनुसार जिंदगी को ढालने के लिए तैयार नहीं। यह भी नहीं सोचते कि प्रकृति ने हमारे लिए अनंत खुशियां और संसाधन उपलब्ध कराई हैं। उनमें हवाओं का तेज चलना और उमस का बढ़ना उसका एक हिस्सा-भर है।
हवा और उमस के साथ अगर मस्ती करना सीख जाएं तो उमस सहज लगने लगेगी। लेकिन हम शिकायतों की पिटारी लेकर बैठे रहते हैं। प्रकृति और प्रकृति के संसाधनों और कवायदों से इतनी शिकायतें? और हम जब अपनी स्वाभाविकता भूल जाते हैं तो कुदरत की हर कवायद बेकार लगती है।
ऋषिकेश में उस दीन-हीन बच्चे को किसी से शिकायत नहीं है। इसलिए जिंदगी में उमस आए, बादल गरजें या धूप हो, इसे सहजता के साथ बिना शिकायत इनका मजा लें। जिंदगी मजेदार बन जाएगी। और यही असली जिंदगी है। इसमें धन-दौलत की अहमियत का हिस्सा बहुत कम होता है।