सम्पादकीय

अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट

Subhi
27 Sep 2022 5:15 AM GMT
अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट
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इसमें कहा गया है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंक जिस तरह से अपनी प्रमुख ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, उससे अर्थव्यवस्था में सुस्ती बढ़ती जा रही है और यह सुस्ती 2023 में मंदी का रूप अख्तियार कर लेगी

सरोज कुमार; इसमें कहा गया है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंक जिस तरह से अपनी प्रमुख ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, उससे अर्थव्यवस्था में सुस्ती बढ़ती जा रही है और यह सुस्ती 2023 में मंदी का रूप अख्तियार कर लेगी। रपट में कहा गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में इस तरह की सुस्ती 1970 के बाद पहली बार देखी जा रही है।

महंगाई और बेरोजगारी की लंबी खिंचती परिस्थिति जिस परिणाम में बदल सकती है, अर्थव्यवस्था में उसके संकेत दिखाई देने लगे हैं। यह संकेत उनके लिए डरावना है, जिनकी जेब खाली है और हाथों में काम नहीं है। यह संकेत उनके लिए चेतावनी है, जिनके बटुए फिलहाल तो भरे हैं, मगर खाली होने का खतरा है। यह संकेत उस तंत्र के लिए भी चेतावनी है, जो कमोबेश इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार है, मगर जवादेही से बचता रहा है।

वैश्विक आर्थिक हालात और घरेलू परिस्थितियों के मद्देनजर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और विश्व बैंक सहित सभी रेटिंग एजंसियों ने वित्त वर्ष 2022-23 के लिए भारत के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) वृद्धि दर के अनुमान घटा दिए हैं। भारतीय स्टेट बैंक ने 7.5 फीसद के अपने अनुमान को घटा कर 6.8 फीसद कर दिया, सिटी बैंक ने आठ फीसद को 6.7 फीसद, गोल्डमैन सैक्स ने 7.2 फीसद को सात फीसद, फिच ने 7.8 फीसद को सात फीसद, मूडीज ने 8.8 फीसद को 7.7 फीसद, इंडिया रेटिंग्स ने सात फीसद को 6.9 फीसद, आइएमएफ ने 8.2 फीसद को 7.4 फीसद और विश्व बैंक ने आठ फीसद के अनुमान को घटा कर 7.5 फीसद कर दिया है।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान को भले ही 7.2 फीसद पर बरकरार रखा है, लेकिन वित्त वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही की दर उसके अनुमान को बेमानी साबित करती है। आरबीआइ ने पहली तिमाही के लिए 16.2 फीसद वृद्धि दर का अनुमान लगाया था, लेकिन 13.5 फीसद से ही संतोष करना पड़ा।

जीडीपी वृद्धि दर में गिरावट का सीधा अर्थ होता है कि आर्थिक गतिविधियां सुस्त हो रही हैं। आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती बेरोजगारी बढ़ाती है। बेरोजगारी से कमाई घटती है। कमाई खरीदारी पर असर डालती है और बाजार में मांग घट जाती है। फिर उत्पादन घटाना पड़ता है और बेरोजगारी बढ़ जाती है। कमाई, खपत, मांग और उत्पादन में गिरावट का चक्र लंबे समय तक टिका रहा तो यह दुश्चक्र में बदल जाता है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ही मंदी कहते हैं। मंदी में जीडीपी वृद्धि दर बढ़ने के बजाय घटने लगती है। लगातार दो तिमाहियों में जीडीपी वृद्धि दर घट गई तो तकनीकी तौर पर मंदी मान ली जाती है। भारत में फिलहाल यह स्थिति नहीं है, लेकिन वर्तमान आर्थिक चुनौतियां भविष्य के संकेत दे रही हैं।

विश्व बैंक ने अपनी एक ताजा रपट में 2023 में भयानक वैश्विक मंदी की बात कही है। इसमें कहा गया है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंक जिस तरह से अपनी प्रमुख ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, उससे अर्थव्यवस्था में सुस्ती बढ़ती जा रही है और यह सुस्ती 2023 में मंदी का रूप अख्तियार कर लेगी। रपट में कहा गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में इस तरह की सुस्ती 1970 के बाद पहली बार देखी जा रही है। अमेरिका, यूरोप और चीन जैसी दुनिया की तीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भयानक सुस्ती है। आगे यह दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को भी चपेट में ले लेगी। अमेरिका और ब्रिटेन में महंगाई दर चालीस साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुकी है। केंद्रीय बैंक इसी महंगाई को नियंत्रित करने ब्याज दर बढ़ाते जा रहे हैं। अमेरिकी फेडरल रिजर्व लगातार तीन बार ब्याज दर बढ़ा चुका है। यह सिलसिला आगे भी जारी रहने वाला है। साल के अंत तक फेड की ब्याज दर 4.4 फीसद तक पहुंचने का अनुमान है।

फेडरल रिजर्व की ब्याज दर वृद्धि महंगाई नियंत्रण में तो बेअसर दिखती है। लेकिन डालर की मजबूती में इसका असर स्पष्ट है। डालर नित नई ऊंचाई छू रहा है। भारतीय रुपया उसी रफ्तार से नीचे गिर रहा है। डालर के मुकाबले रुपया 81 के स्तर से भी नीचे लुढ़क चुका है। रुपए को संभालने आरबीआइ भी ब्याज दर बढ़ा रहा है। मई 2022 से अब तक तीन बार में 1.40 फीसद वृद्धि की जा चुकी है। इस महीने होने वाली समीक्षा बैठक में 50 आधार अंकों की अतिरिक्त वृद्धि का अनुमान है।

रेपो दर बढ़ाने के पीछे का जाहिर मकसद बाजार में तरलता घटा कर मांग को नीचे लाना होता है, ताकि महंगाई नीचे आ जाए। लेकिन महंगाई घटाने का यह फार्मूला तब कारगर होता है, जब बाजार में मांग ज्यादा हो। भारत में या पूरी दुनिया में मौजूदा महंगाई मांग के कारण नहीं, बाधित आपूर्ति के कारण है। भारत में महंगाई, बेरोजगारी की दीर्घकालिक परिस्थिति के कारण मांग पहले से सतह पर है। इससे ज्यादा मांग घट नहीं सकती, घटेगी तो दृश्य वीभत्स होगा।

अस्थिर आर्थिक वातावरण में ब्याज दर वृद्धि के जरिए विदेशी निवेश आकर्षित करना और उसे टिकाए रखना चलनी में पानी रोकने के समान है। लेकिन ब्याज दर वृद्धि का अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर अवश्यंभावी है। ऊंची ब्याज दर से आर्थिक गतिविधियां घटेंगी, उत्पादन घटेगा और आपूर्ति प्रभावित होगी। महंगाई, बेरोजगारी की स्थिति और गंभीर होगी। इस परिस्थिति से निकलना कठिन हो जाएगा, और न निकल पाना उतना ही कारुणिक।

हमारे पास ऐसी परिस्थिति से बचने के समयसिद्ध साधन रहे हैं, आज भी हैं, लेकिन हमने उन्हें मृतप्राय कर दिया है। भारत जैसे बड़े बाजार में मांग और रोजगार की कमी, विशाल श्रम बल और संसाधन के बावजूद उत्पादन और आपूर्ति की कमी, ऊर्वर भूमि अनुकूल मौसम के बावजूद खाद्यान्न की कमी बताती है कि हमारी नीतियां कितनी व्यावहारिक और नैतिक हैं। ये साधन अपने स्वाभाविक रूप में होते तो दुनिया की कोई भी मंदी कम से कम भारत के लिए बेमानी होती। हमने 2008 की वैश्विक मंदी को इन्हीं साधनों के जरिए बेमानी किया था।

असंगठित क्षेत्र 2008 में उद्धारक साबित हुआ था। पर हमने उसी की कमर तोड़ कर रख दी। जीडीपी के नकली आंकड़े दिखाने के चक्कर में अपनी असली ताकत को बर्बाद कर दिया। नोटबंदी ने असंगठित क्षेत्र का क्या हाल किया, यह किसी से छिपा नहीं है। रही-सही कसर महामारी ने पूरी कर दी। वित्त वर्ष 2011-12 में असंगठित अर्थव्यवस्था जीडीपी की 53.9 फीसद थी, जो 2020-21 में घट कर पंद्रह से बीस फीसद रह गई। आर्थिक प्रबंधकों का तर्क यह कि डिजिटलीकरण, जीएसटी, उद्यम पोर्टल और ई-श्रम पोर्टल के जरिए अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाया गया है।

औपचारिक अर्थव्यवस्था अच्छी बात है, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि इस चक्कर में हमने अर्थव्यवस्था के उस गुल्लक को ही तोड़ दिया जो गाढ़े वक्त में काम आ जाती थी? क्योंकि यदि अर्थव्यवस्था औपचारिक हुई है, फिर इतनी ऊंची बेरोजगारी (8.28 फीसद) क्यों है? आम जनता में बदहाली क्यों है? कृषि क्षेत्र ने बुरी हालत में भी महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था को सहारा देने का काम किया था। लेकिन हमने कृषि को कितना सहारा दिया? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर तलाशे बगैर मंदी से मुकाबले की बात पानी पर लाठी पीटने जैसी होगी।

बाहरी चुनौतियों से हम तभी लड़ सकते हैं, जब भीतर से मजबूत हों। लेकिन हमने तो खुद को ही कमजोर कर लिया है। आर्थिक कुनीतियों और कुप्रबंधन के कारण देश की आधी आबादी दरिद्रता में चली गई है। तेईस करोड़ लोग गरीबी के गड्ढे में गिर चुके हैं। शीर्ष दस फीसद लोगों के पास राष्ट्रीय आमदनी का सत्तावन फीसद है और आधी आबादी तेरह फीसद में आबाद! कारपोरेट कर में कटौती और आम जनता पर जीएसटी वृद्धि का बोझ! ऐसी नीतियों के जरिए तो हम मंदी को आमंत्रण दे रहे हैं। रबी और खरीफ की फसलों में गिरावट अलग चुनौती है। चारों तरफ चुनौतियों का चक्रवात है, और बीच में बचने के लिए हमारे पास टूटी छप्पर!


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