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पावन गंगा नदी के तट पर बसी काशी नगरी का कबीर चौरा मोहल्ला जहाँ की हवा में भारतीय शास्त्रीय संगीत और संत कबीरदास के निर्गुण की खुशबू व्याप्त है
मीनाक्षी प्रसाद
उड़त अबीर - गुलाल लाल हो
लाली छाए रही है।
श्याम लाल, लाल भई राधा
लाल नवल बृज वाल।।
पावन गंगा नदी के तट पर बसी काशी नगरी का कबीर चौरा मोहल्ला जहाँ की हवा में भारतीय शास्त्रीय संगीत और संत कबीरदास के निर्गुण की खुशबू व्याप्त है। उसी कबीर चौरा में ठुमरी साम्राज्ञी सिद्धेश्वरी देवी बृज में चल रही होली की परिकल्पना कर राग काफी में भगवान कृष्ण और राधा के स्वरुप का खूबसूरत वर्णन ऊपर लिखी होली के माध्यम से कर रही हैं।
उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब ने उन्हें ठुमरी साम्राज्ञी की उपाधि दी थी। सिद्धेश्वरी देवी का जन्म 8 अगस्त 1908 में हुआ था। जिन संगीतकारों ने ठुमरी को उपशास्त्रीय से निकाल कर शास्त्रीय संगीत में लाकर रखा, उनमें सिद्धेश्वरी देवी का नाम सर्वोपरि है।
समकालीन जीवन की समस्याएं, सामाजिक व्यवस्था, श्रृंगार, करुणा, विरह हर विषय को सिद्धेश्वरी जी ने अपनी ठुमरी के माध्यम से व्यक्त किया। वे 'माँ' के नाम से मशहूर थीं। बचपन में ही माता- पिता की मृत्यु हो जाने की वजह से उनका बचपन कठिनाइयों भरा था। लेकिन परेशानियों ने उन्हें दूसरों के प्रति दया, सहानुभूति, कम साधन में रहने की कला और स्वावलंबन भी सिखाया।
कहते हैं न कि हर परिस्थिति के दो पहलू होते हैं। अपने इन गुणों की वजह से उन्हें हर जगह प्यार और सम्मान मिला। काशी विश्वनाथ को जहां वो पिता के समान पूजतीं, वहीं कृष्ण की वो परम भक्त थीं। वे हमेशा कहतीं संगीत के जरिए मैं अपने भगवान से बात करती हूँ। बचपन से वे कृष्ण भक्त थीं जो भक्ति उम्र के साथ-साथ नया रूप लेती गई। कभी कृष्ण को सखा की तरह देखा तो कभी उद्धारक की तरह।
गुरु का सानिध्य
पंडित सियाजी महाराज और पंडित बड़े रामदास जी, ये दोनों उनके प्रमुख गुरु थे। वे अपने गुरुओं को याद करके कहती थीं कि उनके संगीत की शुद्धता उनके गुरुओं के पवित्र व्यक्तित्व और प्रेम का ही परिणाम है।
उनका संबंध देश के हर बड़े कलाकार से था चाहे वो उस्ताद बड़े गुलाम अली खान हों, एस. डी. बर्मन हों, लता मंगेशकर हों, केसरबाई केरकर हों, या फिर दक्षिण भारत में एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी हों।
लाहौर की घटना
सन् 1930 में वो पहली बार लाहौर प्रस्तुति देने गई थीं वहाँ मुंबई से मशहूर गायक के. एल. सहगल भी गए थे। ज्यादातर श्रोता 'सहगल जी' को सुनने आये थे। जब सिद्धेश्वरी जी के नाम की उद्घोषणा हुई तो श्रोता मात्र 22 वर्षीय गायिका को सुनने को तैयार नहीं थी लेकिन जब सहगल साहब ने मंच पर आकर कहा कि अगर मेरी गायकी पर रंचमात्र भी भरोसा है तो इन्हें सुनिये। मैं खुद आपके साथ बैठकर इन्हें सुनने को लालायित हूँ और सहगल साहब के बोलते ही सारे श्रोता शांत और 'माँ' का संगीत सुनने को भी उत्सुक हो गए।
जैसे ही सिद्धेश्वरी जी ने आलाप के साथ ख्याल, ठुमरी, टप्पा, होरी और भजन एक- एक बाद एक रत्न को पेश करना शुरू किया तो श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सुनते चले गए। वे इस वाकये को याद करके कहती थीं कि गाने के साथ मैंने सीखा कि कैसे नवोदित कलाकार को प्रोत्साहित किया जाता है और उन्हें इज्ज़त दिलाई जाती है।
इस प्रकार उनका गायन दिन - प्रतिदिन बढ़ता गया। उन्हें पद्मश्री समेत कई सम्मानों से नवाज़ा गया। रविन्द्र भारती विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी गई। वे देश-विदेश के हर प्रतिष्ठित मंच, राजा- महाराजाओं के दरबार, शास्त्रीय संगीत से संबंधित हर सेमिनार- कॉन्फ्रेंस में आमंत्रित की जाती रहीं। पर 26 जून 1976 को उन्हें पक्षाघात हुआ और वे हमेशा के लिए चलने- फिरने से मज़बूर हो गईं।
आप समझ सकते हैं कि यह एक इतने क्रियाशील व्यक्ति के लिए जीवित रहते हुए भी मृत्यु के समान अवस्था थी। 17 मार्च 1977 की शाम से उनकी तबियत खराब होने लगी और रात कैसे बीती किसी को पता नहीं चला। सुबह 6 बजे उन्होंने कंपित ओठों से 'राम-राम-राम' कहा और उनका चेहरा एक असाधारण तेज से भर उठा। क्षणभर में वे सदा के लिए हम सबके बीच से जा चुकी थीं। इसके साथ ही ठुमरी के एक युग का समापन हो गया।
उनका संगीत गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित सिद्धेश्वरी देवी एकैडेमी ऑफ इंडियन म्युजिक के माध्यम से आज भी फल - फूल रहा है। इस बार संयोगवश उनकी मृत्यु की तिथि और होली एक ही दिन है। आप जहाँ कहीं भी हैं हमेशा होली गाती रहें अपने कृष्ण मुरारी के लिए और हम सबों की विनम्र श्रद्धांजलि स्वीकार करें।
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