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एनसीआर का दायरा सीमित करिए, ताकि राजधानी का अनावश्यक विस्तार न हो. राजधानी में सरकार होती है
एनसीआर (NCR) प्लानिंग बोर्ड ने इसकी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) को कम कर दिया है. अब यह 55083 वर्ग किमी से घट कर 37115 वर्ग किमी का रह गया है. इसको नापने के लिए दिल्ली के राजघाट को केंद्र बनाया गया है और उससे चारों तरफ 100 किमी के दायरे को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रखा गया है. यह एक तरह से ठीक भी है. अनावश्यक रूप से दिल्ली से दूरस्थ कई इलाक़ों को उन नियम-क़ानूनों को मानना पड़ता था, जो उस क्षेत्र के लिए ग़ैर-ज़रूरी हैं. हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि इससे उनके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. दूसरी तरफ़ कुछ लोग कहते हैं, कि हाशिए पर आने वाले शहर न तो एनसीआर प्लानिंग बोर्ड से फ़ायदा उठा पा रहे थे न संबंधित राज्य सरकारों की योजना का. जबकि उनकी कमाई का उपभोग राज्य सरकारें करती थीं.
अब देखिए, दिल्ली से जयपुर जाओ या हरिद्वार या चंड़ीगढ़. तीन विपरीत दिशाओं के इन शहरों की दूरी समान है. सब दिल्ली से करीब ढाई-तीन सौ किमी की दूरी पर स्थित हैं. थोड़ी इससे कम दूरी आगरा की है. लेकिन आगरा के सिवाय बाकी के तीनों शहरों की तरफ जाना और वापस दिल्ली आने के नाम से ही दिमाग में एक टेंशन रहता है कि किसी तरह बॉर्डर से दिल्ली पहुंच जाया जाए! पिछले दिनों मुझे जयपुर जाना था, और कार से गए. साथियों ने कह दिया था कि सुबह छह बजे ही दिल्ली छोड़ देना वर्ना मानेसर पहुंचने में ही तीन घंटे लग जाएंगे. सुबह छह बजे तैयार होकर गाड़ी निकाली तो पाया धुंध के कारण आगे बढ़ना मुश्किल. धौला कुआं पहुंचते-पहुंचते आठ बज़ गए और इसके बाद मानेसर क्रास करने में दो घंटे और लगे. इस तरह कुल 280 किमी की यात्रा में मुझे पूरे आठ घंटे लग गए. अगले रोज़ जब वापसी हुई तो मानेसर पहुंचा साढ़े चार बजे और इसके बाद दिल्ली-गुरुग्राम का जाम पार करने में चार घंटे लग गए.
बेबात के झगड़े
ऐसी ही यात्रा चंडीगढ़ जाने-आने में होती है. सोनीपत तक पहुंचना और सोनीपत से दिल्ली तक आना रुला देता है. जाम तो मिलता ही है, अक्सर रूट डायवर्जन के चलते भटकना पड़ता है. दिल्ली-हरिद्वार मार्ग पर भी यह त्रासदी झेलनी पड़ती है. सवाल यह है कि देश के किसी भी बड़े शहर के करीब पहुंचकर अपने गंतव्य तक जाने में इतनी परेशानी क्यों होती है. वे शहर चाहे मुंबई हों या कोलकाता, चेन्नई अथवा बेंगलुरु. शहर के अंदर दाखिल होना एक बड़ी समस्या है. ईंधन और समय की बर्बादी तो होती ही है. जाम में उलझे लोग अक्सर अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं और बात-बेबात लड़ने लगते हैं. ये जो रोड-रेज़ की घटनाएं बढ़ रही हैं, इसके पीछे एक बड़ी वज़ह यह जाम का झाम भी है.
लखनऊ जाना आसान किंतु दिल्ली जाना मुश्किल
आज किसी व्यक्ति को दिल्ली-एनसीआर से लखनऊ जाना हो तो पता चलता है कि जितना समय उसे दिल्ली के जाम में देना पड़ता है, लगभग उतने ही और समय में व्यक्ति दिल्ली से लखनऊ पहुंच जाता है. पिछले दिनों लखनऊ से नोएडा के महामाया चौक तक, यानी कोई 485 किमी का फासला तय करने में मुझे कुल पांच घंटे लगे. पर इसके बाद वसुंधरा स्थित अपने घर पहुंचने में मुझे तीन घंटे और लग गए. जबकि महामाया चौक से मेरा घर कुल 18 किमी की दूरी पर है. इसकी मुख्य वज़ह है दिल्ली-एनसीआर में रोजाना हजारों लोग ऐसे होते हैं, जो रहते तो अन्य शहरों में हैं लेकिन नौकरी करने दिल्ली आते हैं. यानी अभी तक इस बात का कोई विकल्प नहीं निकला है कि कैसे जल्द से जल्द स्मार्ट शहर विकसित कर लिए जाएं, जिससे महानगरों में रहने वालों को फ़िज़ूल में समय जाया न करना पड़े. अगर हर सूबे में ऐसे शहर विकसित हो गए तो महानगरों पर पड़ने वाला यह भार कम हो जाएगा.
सिर्फ़ राजधानी का विकास क्यों?
आज़ादी के बाद से यह एक परंपरा चल निकली है कि राजधानी और उसके आसपास का विकास किया जाए और बाकी के परंपरागत शहरों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए. यही कारण है कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, जयपुर, लखनऊ, पटना, हैदराबाद आदि शहर तो फैलते गए लेकिन कानपुर, जलंधर, लुधियाना जैसे औद्योगिक शहर इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव में पिछड़ते गए. अभी ज्यादा वक़्त नहीं गुज़रा जब राजधानियों में सिर्फ सचिवालय में काम करने वाला बाबू वर्ग रहता था अथवा कुछ जरूरत की चीज़ें बेचने वाले व्यापारी. तब दिल्ली में ही शाम छह के बाद सडकों पर सन्नाटा पसरने लगता था और ज्यादा देर हो जाए तो सार्वजनिक परिवहन तक नहीं उपलब्ध होता था. उसी दिल्ली में आज सारी रात बसें मिलती हैं और रात ढाई बजे भी आईटीओ जैसे चौराहे पार करने के लिए दो से तीन मिनट तक रुकना पड़ता है.
कुछ ऐसा ही हाल राज्यों की राजधानियों का भी है. मगर इसके विपरीत बहुत सारे शहर ऐसे भी हैं जहां से लोग पलायन कर रहे हैं, क्योंकि वहां रोज़गार नहीं है, काम-धंधा ठप पड़ा है. इसकी वज़ह वहां पर आवश्यक मूलभूत सुविधाओं का घटते जाना है. किसी भी शहर को विकसित होने के लिए वहां बिजली, सड़क और पानी की सुविधा तो जरूरी है ही, साथ में क़ानून-व्यवस्था का चौकस होना भी है. लेकिन अब सिवाय राजधानियों के अन्य शहरों में पीने के पानी का घोर अभाव है, बिजली की आवाजाही लगी ही रहती है और सड़कें चलने लायक नहीं बची हैं. क़ानून-व्यवस्था का आलम है कि सरे आम लूट हो जाती है. यही कारण है कि 40 लाख की आबादी वाला कानपुर शहर अब उद्योग शून्य हो चला है और वहां के युवक भाग कर दिल्ली आ रहे हैं.
राजनेताओं की सुविधापरस्ती
इसकी एक खास वज़ह तो राजनीतिकों की अपनी सुविधापरस्ती है. वे अपनी सुविधा और अपने वोटबैंक के लिहाज़ से शहरों का विकास कराते हैं. अलबत्ता राजधानियां स्वतः विकसित हो जाती हैं. लेकिन अगर स्मार्ट सिटी विकसित किये जाने की परंपरा चल निकली तो शायद राजधानियों का लोड कम हो जाए. लेकिन इसके लिए अपनी सुविधा और वोटबैंक नहीं बल्कि उन शहरों की तरफ ध्यान देना होगा जिनका विकसित होना लाजिमी है. जिनमें कुछ सुविधाएं पहले से मौजूद हों और जहां आस-पास के लोगों से कच्चा माल मिल सके. इस मामले में कानपुर, लुधियाना और जलंधर जैसे शहर उदाहरण बन सकते हैं. अगर ये शहर विकसित हुए तो दिल्ली का लोड कम होगा और जाम के झाम से छुट्टी मिलेगी. इसी तरह मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और बेंगलूरू आदि राजधानियों के आसपास भी ऐसे शहर तलाशने होंगे. इसके बाद ही हम जीवन के अनावश्यक टेंशन से मुक्ति पा सकेंगे.
Shiddhant Shriwas
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