सम्पादकीय

माओवादियों का सिकुड़ता दायरा : प्रशासन और सुरक्षा बलों के तालमेल से देश के आंतरिक हिस्सों में बदलते हालात

Neha Dani
24 Sep 2022 3:04 AM GMT
माओवादियों का सिकुड़ता दायरा : प्रशासन और सुरक्षा बलों के तालमेल से देश के आंतरिक हिस्सों में बदलते हालात
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सड़क निर्माण से भी सुरक्षा बलों को अपनी गतिविधियां बढ़ाने में मदद मिली।

हाल ही में सीआरपीएफ ने दावा किया है कि सुरक्षा बलों ने झारखंड के बूढ़ा पहाड़ और बिहार के चक्रबंधा और भीमबांध जैसे अति हिंसाग्रस्त इलाके को पूरी तरह से नक्सल मुक्त कराकर वहां पर अपना कब्जा जमा लिया है। ये इलाके नक्सलियों का गढ़ माने जाते थे, क्योंकि भौगोलिक स्थिति के कारण वहां सुरक्षा बल पहुंच नहीं पाते थे। आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से यह सुरक्षा बलों की बड़ी सफलता है।




गौरतलब है कि वर्ष 2008-09 में देश के बीस राज्यों में 223 जिले माओवादी गतिविधियों से प्रभावित थे, जिनमें बिहार और झारखंड के काफी इलाके शामिल थे। लेकिन आज बिहार, झारखंड में ज्यादातर वसूली से संबंधित घटनाएं होती हैं। माओवादी आज वहां बहुत ज्यादा सक्रिय नहीं हैं। पैसा कमाने के लिए वे इक्का-दुक्का घटनाओं को अंजाम देते हैं। जो माओवाद कभी आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जाता था, वह आज सामान्य कानून-व्यवस्था का मामला बनकर रह गया है।


माओवाद का संकुचन सिर्फ बिहार और झारखंड में नहीं हुआ है, बल्कि पूरे देश में हुआ है। एक समय जहां बीस राज्यों के 223 जिले माओवाद प्रभावित थे, वे आज घटकर मात्र 55 जिलों में सिमट कर रह गए हैं। वर्ष 2008 में देश के 65 जिले माओवाद से अत्यधिक प्रभावित थे। हमारे डाटाबेस (साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल) के अनुसार, छत्तीसगढ़ के सिर्फ दो जिले बीजापुर और दंतेवाड़ा माओवाद से बहुत ज्यादा प्रभावित हैं।

बाकी जो माओवाद प्रभावित जिले हैं, उनमें कुछ में इक्का-दुक्का हिंसा की घटनाएं होती हैं और कुछ में मात्र राजनीतिक गतिविधियां होती हैं, जैसे- कहीं माओवादी पोस्टर लगा देते हैं, या गांवों में जाकर अपनी जन अदालत लगा लेते हैं या प्रोपगैंडा फैलाते हैं। पहले जो माओवादियों के कई गुट आपस में संपर्क कर सकते थे, दूसरे इलाके में हिंसक वारदातों को अंजाम दे सकते थे, इन सब पर अंकुश लगाया गया। माओवाद पर कैसे काबू पाया गया, इसे समझने के लिए हमें पीछे की तरफ लौटना पड़ेगा।

वर्ष 2009-10 में माओवादी हिंसा चरम पर थी। 2009 में माओवादी हिंसा में देश भर में कुल 1,128 मौतें हुई थीं और 2010 में यह संख्या बढ़कर 1,180 हो गई। इनमें माओवादी, आम नागरिक और सुरक्षा बलों-सभी की मौत के आंकड़े शामिल हैं। हमारे डाटाबेस के मुताबिक, इस साल अभी तक सिर्फ 94 लोग मारे गए हैं। 2005 से 2010 के बीच माओवादी हिंसा में मौत की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती चली गई।

तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने नक्सलियों के खिलाफ ऑल इंडिया मैसिव ऐंड कोऑर्डिनेटिव ऑपरेशन चलाया था, लेकिन वह न मैसिव (व्यापक) था और न ही कोऑर्टिनेटिव (सामंजस्यपूर्ण) था। यह एक गलत नीति थी, जिसके कारण माओवादियों को अपना विस्तार करने का मौका मिला। उसी समय सलवा जुडुम शुरू हुआ था। जब एमसीसी और पीडब्ल्यूजी का विलय हुआ और सीपीआई माओवादी पार्टी बनी, तो नक्सल आंदोलन का काफी विस्तार हुआ और इससे काफी लोग जुड़े और उनकी आपस की लड़ाइयां खत्म हो गईं।

इस तरह एक तरफ माओवादियों की एकजुटता थी, तो दूसरी तरफ केंद्र की गलत नीतियां। उससे काफी नुकसान हुआ और आम नागरिकों व सुरक्षा बलों की बड़ी संख्या में मौतें हुईं। फिर धीरे-धीरे केंद्र सरकार को समझ आने लगा कि इस तरह से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। पूरे माओवाद प्रभावित इलाकों में एक साथ ऑपरेशन चलाने के लिए न तो उतने सुरक्षा बल थे और न ही पर्याप्त संसाधन। तब आंध्र प्रदेश का मॉडल अपनाया गया, जो खुफिया जानकारियों पर आधारित लक्ष्य केंद्रित ऑपरेशन था।

इसलिए लक्ष्य केंद्रित ऑपरेशन शुरू किए गए। जैसे-जैसे ये ऑपरेशन बढ़ते गए, नए इलाकों में माओवाद के विस्तार पर अंकुश लगा, नई भर्तियां कम हुईं और नक्सली नेतृत्व को काफी नुकसान पहुंचा। कई माओवादी नेता मारे गए और कई गिरफ्तार किए गए। जो मारे नहीं गए, उनके ऊपर बहुत ज्यादा दबाव आ गया। वे कोई गतिविधियां नहीं कर पा रहे थे, विभिन्न गुटों के बीच तालमेल और सहयोग नहीं हो पा रहा था। सरकार की सुरक्षा नीति में भी बदलाव होने लगा।

इसलिए 2011 के बाद थोड़े उतार-चढ़ाव के बावजूद माओवादी गतिविधियों में लगातार कमी आती गई। सुरक्षा बलों का वर्चस्व बढ़ने से माओवादी गतिविधियों में तो कमी आई ही, स्थानीय लोग भी सुरक्षा बलों के साथ आते गए। पहले के आंकड़े देखें, तो ज्यादातर आम नागरिक और सुरक्षा बल मारे जाते थे, लेकिन अब ज्यादातर माओवादी या कुछेक नागरिक मारे जाते हैं। इस साल जो 94 लोग मारे गए हैं, उनमें 12 सुरक्षा बलों के जवान मारे गए हैं और 40 माओवादी मारे गए हैं।

माओवाद पर अंकुश लगाने में सरकारी कार्यक्रमों की भी बड़ी भूमिका रही है। छत्तीसगढ़ में दो रुपये चावल देने का कार्यक्रम ऐसा था कि उसे माओवादी भी बाधित नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि उन्हें पता था कि अगर लोगों को चावल लेने से रोका गया, तो वे हमारे खिलाफ खड़े हो जाएंगे। कई बार वे अपने वर्चस्व वाले इलाकों में सरकारी योजनाओं को ठीक से लागू करवाने में मदद करते थे। सड़क निर्माण से भी सुरक्षा बलों को अपनी गतिविधियां बढ़ाने में मदद मिली।

सोर्स: अमर उजाला


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