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ऑस्ट्रेलिया आदि में जलवायु परिवर्तन के कारण धीरे-धीरे बारिश कम होती जा रही है.
जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से हम अब भिज्ञ हैं. हमारी भौतिकवादी सोच ने हमें ऐसे चौराहे पर ला खड़ा कर दिया है, जहां से आगे का रास्ता बेहद दुरूह है. विशेषज्ञों की मानें, तो जहां आज बड़े पैमाने पर खेती होती है, वहां पैदावार में व्यापक कमी की संभावना है. ऐसे आंकड़े भी हैं, जो यह साबित करते हैं कि उत्तर एवं दक्षिण अमेरिका, दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया, ऑस्ट्रेलिया आदि में जलवायु परिवर्तन के कारण धीरे-धीरे बारिश कम होती जा रही है.
तटवर्ती मैदान समुद्र में समाते जा रहे हैं. ऐसे में खाद्यान्न उत्पादन का बड़ा भूभाग बंजर एवं अनुपजाऊ हो जायेगा. इसलिए अब ऐसे अनाज की पैदावार पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो कम पानी में हो सकता है और पौष्टिक भी हो. खाद्य एवं कृषि संगठन ने 2023 को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज या पोषक अनाज वर्ष घोषित किया है. मोटे अनाजों में प्रोटीन, फाइबर जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों तथा एंटीऑक्सीडेंट की मात्रा आज के पारंपरिक खाद्यान्नों की तुलना में ज्यादा है.
भारत सरकार ने भी खाद्यान्न रणनीति को अपने तरीके से सुलझाने की दिशा में पहल करना प्रारंभ कर दिया है. मसलन, अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष 2023 को जन आंदोलन बनाने के साथ-साथ भारत को वैश्विक पोषक अनाज हब के रूप में स्थापित करने की दिशा में प्रयास हो रहे हैं. भारत सरकार इस दिशा में पहले से काम कर रही है. इसी के तहत 2018 में मिलेट्स को न्यूट्रल सीरियल के रूप में सरकार ने घोषित किया था.
भारत में ‘मिलेट्स क्रांति’ को बाहरी चुनौतियों के समाधान के रूप में देखा जा रहा है. मोटे अनाजों से स्वास्थ्य संबंधी समस्या का समाधान होगा तथा पर्यावरण व जलवायु में परिवर्तन की चुनौती का भी सामना करने में लाभ होगा. मोटे अनाज के उत्पादन से देश में बड़ी संख्या में जो छोटे जोत के किसान हैं, उनको भी इसका लाभ मिलेगा.
सामान्य परिभाषा के तौर पर, जिस अनाज की बिना जोते बुआई की जाती है, उसे मोटे अनाज की संज्ञा दी जाती है. वैसे कम पानी और कम समय में उपजने वाले अनाज को मोटा अनाज बताया जाता है. भारत में मोटे अनाज दो वर्गों में उगाये जाते हैं. प्रथम वर्ग के प्रमुख मोटे अनाजों में ज्वार, बाजरा और रागी को रखा गया है, जबकि दूसरे वर्ग में कंगनी, कुटकी, कोदो, वरिगा या पुनर्वा और सांवा शामिल हैं. यदि इतिहास की बात करें, तो मिलेट अनाजों के प्रमाण सबसे पहले सिंधु सभ्यता में पाये गये हैं.
खाद्यान्न समस्या के समाधान के लिए भारत ने 1960 के दशक में हरित क्रांति पर कार्य करना प्रारंभ किया. इसके लिए विदेशों से न केवल कृषि तकनीक आयातित गया, अपितु विदेशी पद्धति को भी अपनाया गया. हरित क्रांति ने खाद्यान्न संकट का तो समाधान कर दिया, लेकिन उसके साथ कई विसंगतियां भी आयीं. हरित क्रांति के कारण देश में गेहूं और चावल के उत्पादन को बढ़ावा दिया गया. इसके कारण सिंचाई के लिए अधिक पानी की आवश्यकता हुई. इस पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए हमने भूजल का दोहन प्रारंभ किया. देश का बड़ा भूभाग जल संकट की समस्या से जूझ रहा है.
यही नहीं, चावल और गेहूं की खेती के चक्कर में हमारे किसानों ने जमकर रसायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का उपयोग किया. इससे जहां एक ओर मिट्टी की संरचना खराब हुई, वहीं दूसरी ओर भूजल में आर्सेनिक नामक खतरनाक रसायन की मात्रा हद से पार हो गयी. अब वही विषाक्त पानी हम पी रहे हैं. मोटे अनाज की खेती के लिए अधिक जल की आवश्यकता नहीं होती है. इसके उत्पादन के लिए कोई गहरी जुताई की जरूरत ही नहीं पड़ती है. रासायनिक उर्वरक की तो जरूरत बिल्कुल ही नहीं पड़ती है. साथ ही, इसकी खेती के लिए किसी प्रकार के कीटनाशक की जरूरत नहीं पड़ती है. इसके उत्पादन के लिए अपेक्षाकृत कम तकनीक का प्रयोग किया जाता है.
मोटा अनाज भारतीयों के भोजन का प्रमुख अंग लंबे समय से रहा है, किंतु हरित क्रांति ने इसे थाली से अलग कर दिया. जिस अनाज को हम साढ़े छह हजार साल से खा रहे थे, उससे हमने मुंह मोड़ लिया और आज फिर पूरी दुनिया उसी मोटे अनाज की तरफ वापस लौट रही है. इसमें वसा, विटामिन ई, विटामिन बी, फाइटोकेमिकल और एंटीऑक्सीडेंट मिलते हैं. मोटा अनाज रक्त में शुगर लेवल को भी नियंत्रित रखता है.
यह कोलेस्ट्रोल की समस्या को भी नियंत्रित करता है. छोटे ब्लड क्लॉट नहीं बनने देता, जो प्रायः हार्ट अटैक के लिए जिम्मेदार होता है. मोटे अनाज में मैग्नीशियम, सेलेनियम और कॉपर जैसे आवश्यक तत्व पाये जाते हैं. इसे मोटा अनाज इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके उत्पादन में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती. ये 10 से 12 साल बाद भी ये खाने लायक होते हैं. मोदी सरकार ने इसे श्री अन्न की संज्ञा दी है. इसके पीछे भी बड़ी सोच काम कर रही है. भारत सरकार ने देश को इसका हब बनाने की योजना बनायी है. इसके लिए भारत के हर नागरिक को आगे आने की जरूरत है.
सोर्स: prabhatkhabar
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Triveni
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