सम्पादकीय

दबंगई दिखातीं तकनीक की ताकतें: टेक कंपनियां और इनके अरबपति निवेशक अपनी दबंगई से भारत और अन्य देशों को हांकना चाहते हैं

Gulabi
9 Jun 2021 8:59 AM GMT
दबंगई दिखातीं तकनीक की ताकतें: टेक कंपनियां और इनके अरबपति निवेशक अपनी दबंगई से भारत और अन्य देशों को हांकना चाहते हैं
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दबंगई दिखातीं तकनीक की ताकतें

विकास सारस्वत : यूरोप से उपजा उपनिवेशवाद जिस अहंकार और स्वदेशी संवेदनाओं के दमन में निहित था, उसका पता उपनिवेशवाद को उचित ठहराने वाली समकालीन मानसिकता में मिलता है। अमेरिकी महाद्वीप पर अपने कब्जे को जायज ठहराने के लिए स्पेन ने उस जनादेश का सहारा लिया, जिसके तहत पोप ने गैर ईसाई विश्व पर ईसाई शासकों का नैसर्गिक अधिकार घोषित किया था। मूलत: आर्थिक कारणों से उपजे उपनिवेशवाद को सिर्फ ईसाई रूढ़िवादियों का ही समर्थन प्राप्त नहीं था। जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे उदारवादियों ने भी कई प्रकार के तर्क देकर उपनिवेशवाद का बचाव किया था। साम्यवाद के प्रणेता कार्ल माक्र्स तो भारत में अंग्रेजी शासन से इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने इस उपनिवेशवाद के दो महत्वपूर्ण उद्देश्य भी बता दिए। मार्क्स ने कहा कि ब्रिटिश शासन को एशियाई सामाजिक कल्पना को ध्वस्त कर पाश्चात्य सामाजिक मूल्यों की नींव डालनी चाहिए। यह पश्चिमी विचारधारा के दोनों छोरों पर उपनिवेशवाद की व्यापक जनस्वीकृति का ही लक्षण था कि जंगल बुक के रचयिता और नोबेल पुरस्कार विजेता रुडयार्ड किपलिंग ने अश्वेत लोगों को सभ्यता के दायरे में लाना गोरे लोगों का कर्तव्य बताया।

उपनिवेशवाद के अवशेष कई माध्यमों से बने रहे

पिछली सदी के छठे दशक तक अधिकांश विश्व को उपनिवेशवाद से मुक्ति मिली, परंतु उसके अवशेष कई माध्यमों से फिर भी बने रहे। संस्कृतियों पर गहरे प्रभाव के अलावा शिक्षा के माध्यम यूरोपीय भाषाओं में बदल गए थे। संस्थागत रूप से भी कहीं कॉमनवेल्थ तो कहीं लैटिन यूनियन जैसे संगठन बने रहे। कई देशों के झंडों और सिक्कों पर आज भी औपनिवेशिक काल के चिन्ह मौजूद हैं। बदली शिक्षा व्यवस्था में उच्च शिक्षा के लिए बहुत से एशियाई और अफ्रीकी लोग पश्चिम का रुख करने पर मजबूर हुए।
स्वयं असांजे के पीछे पड़ा अमेरिका दूसरे देशों में पत्रकारिता पर खतरे की चिंता प्रकट करता

बात सिर्फ सांस्कृतिक अतिक्रमण या आर्थिक निर्भरता की नहीं थी। शोध संस्थाओं, मानवाधिकार संगठनों, राजनीतिक सक्रियता और मीडिया के चतुर उपयोग से वही पश्चिम, जिसने सदियों तक दमन और उत्पीड़न किया, रातोंरात वैश्विक नैतिकता का रखवाला भी बन गया। स्वयं जूलियन असांजे और एड्वर्ड स्नोडन के पीछे पड़ा अमेरिका दूसरे देशों में पत्रकारिता पर खतरे की चिंता प्रकट करता है।
बिग टेक कंपनियां अपनी दबंगई से भारत और अन्य देशों को हांकना चाहते हैं

बिग टेक कंपनियां जैसे फेसबुक, ट्विटर, गूगल, वाट्सएप और इनके अरबपति निवेशक उस फेहरिस्त में जुड़ गए हैं, जो अपनी दबंगई से भारत और अन्य देशों को हांकना चाहते हैं। जहां पूर्वाग्रहग्रस्त पश्चिमी मीडिया पत्रकारिता के अधिकारों की दुहाई देता है, वहीं तकनीकी कंपनियों ने निजता के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपना हथियार बनाया है। जिस निजता के अधिकार की दुहाई देकर आज तकनीकी कंपनियां भारत सरकार से टकराव की स्थिति में हैं, उसी निजता की अवहेलना कर फेसबुक ने कैंब्रिज एनालिटिका को लाखों भारतीयों का डाटा बेच दिया था। जो तकनीकी कंपनियां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की माला जपते नहीं थकतीं, उनके अपने दफ्तरों में भी स्थिति एकदम भिन्न है। 2018 में करीब 100 फेसबुक र्किमयों ने कंपनी में वाम-उदारवादियों की घोर असहिष्णुता के खिलाफ मोर्चा खोला था।
ट्विटर में वामपंथी झुकाव

ट्विटर के सीईओ जैक डोर्सी ने खुद माना था कि उनके संगठन में वामपंथी झुकाव है और उनके गैर वामपंथी सहकर्मी अपनी राजनीतिक राय रखने से भी डरते हैं। यह कमाल है कि इतने असहिष्णु संगठन भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चिंता जता रहे हैं। ट्विटर के अकाउंट वैरिफिकेशन और कार्रवाई संबंधी मानक मनमाने हैं। इसका पता हाल में वेंकैया नायडू, मोहन भागवत आदि को ब्लू टिक से वंचित करने से चला। इसके पहले बंगाल हिंसा से आहत अभिनेत्री कंगना के ममता बनर्जी को उन्हीं की भाषा में उत्तर देने संबंधी ट्वीट पर ट्विटर ने उनका अकाउंट बंद कर दिया, परंतु दिल्ली दंगों और लाल किले पर हुए राजद्रोह को ट्विटर पर मिले खुले उकसावे पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसी तरह शर्जील उस्मानी के जय श्रीराम को आतंकवाद से जोड़ने वाले ट्वीट पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई।

तकनीकी कंपनियों का भारत में अलगाववाद को बढ़ावा, भारतीय कानून न मानने का हठ

मनमानी और पक्षपात से आगे बढ़कर तकनीकी कंपनियों की सबसे बड़ी समस्या उनका भारत में अलगाववाद और देश विरोधी ताकतों को बढ़ावा और भारतीय कानून न मानने का हठ है। चाहे फिर ये कानून आपराधिक सामग्री, झूठे भड़काऊ संदेश, महिला उत्पीड़न के वीडियो आदि के मूल स्नोत जानने से संबंधित ही क्यों न हों। कुछ समय पहले कनाडा से चलाए गए खालिस्तान 2020 जनमत संग्रह अभियान को ट्विटर ने न सिर्फ पैसे लेकर प्रचारित किया, बल्कि इसकी शिकायत करने पर पूर्व केंद्रीय मंत्री का ट्विटर हैंडल ही निलंबित कर दिया। आज जब भारत ने सूचना प्रसारण संबंधी नियमों के क्रियान्वयन की समयरेखा तय की है तो ये कंपनियां और खासकर ट्विटर कुछ ज्यादा ही हील-हुज्जत कर रहा है। जो कंपनियां अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और आस्ट्रेलिया में कानूनों को मानती हैं, जुर्माने भरती हैं और संसदीय समितियों के सामने दौड़कर पेश होती हैं, वे भारत को तिरस्कृत कर अपने नियमों की प्राथमिकता का हवाला दे रही हैं।

ट्विटर को भारतीय नियमों की कोई परवाह नहीं

टूलकिट मामले में तो जांच के लिए बुलाए जाने पर ट्विटर के क्षेत्रीय अधिकारी ने स्वयं को अमेरिकी कंपनी का कर्मचारी बताकर दिल्ली पुलिस को अमेरिकी ऑफिस से संपर्क करने की सलाह दे डाली। इस प्रकार भारतीय संप्रभुता की खिल्ली उड़ाकर ट्विटर ने यह दिखाने का प्रयास किया कि उसे भारतीय नियमों की कोई परवाह नहीं है।

टेक कंपनियों को भारत ने दिखाया आईना

ट्यूनीशिया, मिस्न आदि में अपनी दखलंदाजी से सत्ता परिवर्तन के बाद टेक कंपनियों के हौसले काफी बढ़े हुए हैं। उन्हें लगता है कि जनमानस को प्रभावित करने की उनकी क्षमता के चलते पूरा विश्वपटल उनके लिए खुला मैदान है। वे बड़े-बड़े नेताओं और चुनी हुई सरकारों को अपने सामने कुछ नहीं समझते। आधुनिक युग के इन सामंतों में स्टुअर्ट मिल की पेचीदगी, मार्क्स की घातकता और किपलिंग की गोरी श्रेष्ठता कूट-कूटकर भरी है। अच्छी बात यह है कि भारत सरकार अपनी आजादी को इन नव-उपनिवेशवादियों के सामने गिरवी रखने को तैयार नहीं है। उसने स्पष्ट कर दिया है कि बिग टेक माध्यम मात्र हैं और उस पर चर्चा नियमित करने का अधिकार सिर्फ भारत की चुनी हुई संसद को है।

( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं स्तंभकार हैं )
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